फिल्म कैद पर श्याम नंदन का एक
महत्वपूर्ण आलेख जिसे उन्होंने सफदर स्टूडियो दिल्ली में हुई 8 फरवरी 2014 को फिल्म की पहली स्क्रीनिंग में फिल्म देखने के बाद 11
को लिखा था । हालांकि उसके बाद जन सिनेमा द्वारा निर्मित यह फिल्म
देश के लगभग सभी महत्वपूर्ण फिल्म फेस्टेवलों में चर्चा का विषय बनी रही है और लगातार
जारी है ।
Posted: फ़रवरी 11, 2014 in Film Reviews
Tags: एम गनी, जन सिनेमा, थिएटर, पैरलल सिनेमा, रंगमंच, समान्तर सिनेमा, स्टूडियो सफ़दर, क़ैद, फ़िल्म रिव्यू, Film Review, Film Review of Quaid, Jan Cinema, Parallel Cinema, Quaid, Rangmanch, Samantar Cinema, Studio Safdar, Theatre
Tags: एम गनी, जन सिनेमा, थिएटर, पैरलल सिनेमा, रंगमंच, समान्तर सिनेमा, स्टूडियो सफ़दर, क़ैद, फ़िल्म रिव्यू, Film Review, Film Review of Quaid, Jan Cinema, Parallel Cinema, Quaid, Rangmanch, Samantar Cinema, Studio Safdar, Theatre
फेसबुक, फ्रेंडशिप और फ़िल्म
तक़रीबन दो हफ्ते
पहले की बात है, मेरे फेसबुक पेज पर एक फ्रेंड रिक्वेस्ट आया। रिक्वेस्ट
चाहे किसी का हो, मैं स्वीकार जरूर करता हूं। हां, एकबार प्रोफाइल अवश्य देखता हूं। फ़िल्म, साहित्य, मीडिया और अन्य
रचनात्मक कार्यों से जुड़े लोगों के फ्रेंड रिक्वेस्ट तो मैं बिना सोचे-समझे एक्सेप्ट करता हूं। यह रिक्वेस्ट भेजने वाले थे, मथुरा के ‘एम गनी साहब’, जो थिएटर और सिनेमा से जुड़े थे। लिहाजा सरसरी तौर पर उनका फेसबुक प्रोफाइल देखते ही उन्हें
कन्फर्म कर दिया।
इधर कन्फर्म किया
ही था कि चैट इनबॉक्स में उनका अभिवादन “कुमार साहब आदाब” नुमाया हुआ। बड़ा अच्छा लगा, क्योंकि मुझे ऐसे लोग खासे पसंद हैं, जो इस तरह सजग (एक्टिव) होते हैं और पहल करते हैं। कहीं-न-कहीं
यह एक-दूसरे से जुड़ने के प्रति एक ललक और सकारात्मक
रुझान को दर्शाता है। दो-तीन पंक्तियों में हुई औपचारिक चैटिंग के बाद उन्होंने लिखा “जी कुमार साहब, हमारी फिल्म की पहली स्क्रीनिंग ‘स्टूडियो सफ़दर दिल्ली‘ 8 फरवरी को आयोजित करा रहा है, आप सादर आमंत्रित हैं।”
मेरे जानने वाले
जानते हैं कि मैं कैसा और कितना बड़ा फ़िल्मी कीड़ा हूं। गनी साहब का यह आमंत्रण ‘नेकी और पूछ-पूछ’ वाली कहावत को चरितार्थ कर रही थी। ऊपर से 8 फरवरी दिन शनिवार था, जो कि मेरा वीकली ऑफ़ होता है, मतलब सोने पे सुहागा वाली बात थी। अपनी ख़ुशी दबाते हुए गनी साहब को
मैंने जवाब लिखा- “जी, जरूर”।
Poster of Quaid
by M Gani |
फिर गनी साहब ने
मेरा ईमेल आईडी मांगा जो मैंने फ़ौरन से पेश्तर दिया। कुछ यूं मानो अभी-के-अभी ईमेल आईडी न दिया तो किसी प्रोडक्ट
के बम्पर ऑफर में मिला एक शानदार प्राइज़ कहीं मेरे हाथ
से निकल न जाए। आधे मिनट से भी कम समय में चैट-बॉक्स में उनका सन्देश आया “कार्ड मेल कर दिया है, उसी पर पता लिखा है, 089097***** मेरा फोन है”।
गनी साहब के साथ
चैटिंग ख़त्म होने के बाद मैंने अपने जवारी दोस्त रवि श्रीवास्तव ‘मनीष’ को कॉल किया जो आजकल न्यूज़एक्स में विडियो जर्नलिस्ट हैं। वह एक बेहतरीन कैमरामैन है, जो कई हिंदी और भोजपुरी फिल्मों, विडियो अल्बमों और डॉक्यूमेंट्रीज की शूटिंग कर चुका है। रवि भी मेरी तरह एक
महान फिल्मी कीड़ा है। सो मैंने गनी साहब के मेल को उसे
फॉरवर्ड कर दिया और पूछा कि अगर वह 8 फरवरी को फ्री हो, तो साथ हो ले। रवि को यह मेल करने से पहले मैंने गनी साहब से इसकी परमिशन ले ली थी।
स्टूडियो सफ़दर की
तलाश
ऑफिस के असाइनमेंट
में व्यस्त होने कारण रवि तो नहीं आ पाया, लेकिन मेरा जाना तय था और मैं डंके की चोट पर गया। गनी साहब ने जो ई-कार्ड भेजा था, उससे पता नोट किया। मालूम हुआ कि
स्टूडियो सफ़दर शादीपुर मेट्रो स्टेशन, सत्यम सिनेमा के पास, डीएमएस बूथ के नजदीक है। शो का समय शाम 6:30 बजे निर्धारित था। मैं समय से शादीपुर मेट्रो स्टेशन पहुंचा और
बाहर निकल कर एक रिक्शेवाले भाई से पता पूछा तो उसने कहा “सत्यम सिनेमा और डीएमएस बूथ दोनों अलग दिशाओं में है, अब बताइए आपको जाना कहां है?” मैंने कहा- ‘डीएमएस बूथ’।
वही हुआ, जो मेरे साथ अक्सर होता है, मतलब दिल्ली की गलियों में श्यामलीला। जाना था जापान, पहुंच गए चीन यानी स्टूडियो सफ़दर की उलटी
दिशा में आ गया था। खैर, गनी साहब का नंबर मिलाया। फोन स्विच ऑफ!
मैं भन्नाया- “इसका मतलब शो शुरू हो चुका है और
उन्होंने फ़ोन ऑफ कर लिया है, अब क्या करूं?” रिक्शेवाले भईया मेरा मुंह ताक रहे थे। मेरी खुशनसीबी, तभी गनी साहब का जवाबी फ़ोन आ गया। फिर उन्होंने सही रास्ता बताया तो यही
कुछेक पांच-सात मिनटों में स्टूडियो सफ़दर पहुंच गया।
A still of
Sanju in Quaid |
“थैंक गॉड” बोलते हुए मैंने रिक्शे का भाड़ा चुकाया और लगे हाथ कन्फर्म करने की गरज से पास खड़े एक सज्जन से पूछा ‘स्टूडियो सफ़दर यही है न’! वे “हां” बोल ही रहे थी कि एक दरवाजा खुला और अंदर आने का विनम्र
इशारा हुआ। जैसे अंदर पहुंचा मेरी दुनिया बदल गयी, रौशनी से एकदम सिनेमा-हाल वाले मेरे सपनों की दुनियां में पहुंच गया, जहां का गहरा सुरमई अंधेरा मुझे बचपन से पसंद है, शायद दीवानगी के हद से भी ज्यादा।
होठों पे चुप्पी, माथे पे शिकन और कुछ सवाल
फ़िल्म शुरू हो
चुकी थी। टाइटल पहले से पता था- “क़ैद”। फ़िल्म की कहानी प्रसिद्ध लेखक श्रीमान ज्ञानप्रकाश विवेक जी से साभार ली गयी थी और वे स्वयं भी दर्शक दीर्घा में
हाजिर-नाजिर थे (यह फ़िल्म ख़त्म होने
के बाद पता चला)। इस शो में लगभग 30-35 दर्शक ही थे, लेकिन जो भी थे प्रबुद्ध थे (यह भी बाद में पता चला)। दर्शकों में कुछ थिएटर से, कुछ फ़िल्मी दुनिया से, कुछ मीडिया से, कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं से, कुछ स्कूल की शिक्षिकाएं थी और कुछ मेरे जैसे यानी फ़िल्मी कीड़ा (यह भी फ़िल्म ख़त्म होने के बाद पता चला)।
फ़िल्म देखकर मुझे
केवल और केवल महान फिल्मकार श्याम बेनेगल साहब की याद आई। यह फ़िल्म एक सामाजिक-मनोवैज्ञानिक फ़िल्म थी, जिसका एक-एक शॉट क्लासिक था। कहानी एक वैसे बच्चे (संजू) की थी, जैसा कि चौथी-पांचवीं क्लास में पढ़नेवाला एक जहीन और हंसमुख बच्चा
होता है यानि तेज, शरारती, मजाकिया और समय को अपनी उम्र के हिसाब से मजे में जीनेवाला। लेकिन स्कूल के नीरस शैक्षणिक वातारवरण और शिक्षकों के ईगो और
स्वार्थ में फंसकर संजू गहन अवसाद (डिप्रेशन) का शिकार हो जाता है।
घरवाले या कहें
समाज उसके डिप्रेशन का कारण समझ नहीं पाता है। मासूम संजू इतना ज्यादा डिप्रेस्ड होता है कि उसकी मानसिक दशा
उग्र और हिंसक हो जाती है। घरवाले इसे ईश्वरीय कोप और
भाग्य का लेखा मानने लगते हैं और अपने बच्चे को अंधविश्वास की अंधेरी गहरी खाई में धकेल देते हैं। ओझा-गुनी, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र और गण्डे-तावीज़ के उलूल-जुलूल चक्कर फंसकर में
एक मासूम जीवन अंधेरे कमरे में क़ैद कर दिया
जाता है।
इस कैद से संजू को बाहर निकालने की कोशिश इस
फ़िल्म का सबसे आकर्षक पार्ट है। एक कमरे में कैद संजू अंधेरे और अकेलेपन का ऐसा आदी हो जाता है कि किसी को देखते ही भयानक रूप से चीख उठता है। उफ़!
वह चीख अभी तक मेरे जेहन और कानों में गूंज रही है।
कहते हैं, ‘एवरी कलाउड हैज़ सिल्वरलाइनिंग’, जो यहां भी सही सिद्ध हुई। आखिरकार एक संवेदनशील युवा और थिएटर
कलाकार संजू की समस्या को समझने में सफल होता है। वह सहज बाल मनोविज्ञान सिद्धान्त के रास्ते पर चलकर संजू को उस क़ैद से मुक्त करता है।
फ़िल्म में संजू का
किरदार अदा किया है, मास्टर किशन सिंह ने, जिसकी उम्र महज 10-11 साल से ज्यादा
नहीं होगी। मगर उसका अभिनय, माशा-अल्लाह! अभिनय और भाव (एक्सप्रेशन) लाजवाब हैं। चाहे वह कैसा भी दर्शक हो, उसे खुद से कनेक्ट कर लेने में वह सफल रहा है।
संवेदनशील युवा और
थिएटर कलाकार की भूमिका अदा किया है, सनीफ़ मदार जी ने। वे वास्तविक जीवन में पेशे से शिक्षक और शौक से थिएटर आर्टिस्ट हैं। उनका
चेहरा इस फ़िल्म में के रोल में बड़ा फोटोजेनिक है।
कैसे बनी यह फ़िल्म?
गनी साहब अपने
फ़िल्म के पोस्टर पर लिखते हैं- ‘अ फ़िल्म बेस्ड ऑन ज्ञानप्रकाश विवेक्स स्टोरी’ (A film based on Gyanprakash Vivek’s
story), फिर नीचे लिखा है-
‘जन सिनेमा प्रेजेंटेशन’ (jan cinema presentation) और सबसे नीचे लिखा है- ‘एम गनी’ज क़ैद’ (m gani’s Quaid)। मुझे इसमें जो सबसे ज्यादा आकर्षक लगा, वह लाईन है- जन सिनेमा प्रेजेंटेशन।
दरअसल जन सिनेमा, जन नाटक, जन मंच आदि से मेरा जुड़ाव बहुत पुराना है। कभी ‘इप्टा’ (IPTA) से जुड़े रहने का जो सौभाग्य मुझे मिला है, इस फ़िल्म के लिए यह आकर्षण उसी का सातत्य है। लेकिन, जन सिनेमा की जो परिभाषा गनी साहब ने दी, वह दिल को छू गयी।
बकौल गनी साहब, उन्होंने कभी फ़िल्म फ़िल्म बनाने के बारे
में सोचा ही नहीं था। लगभग दो साल पहले एक मौका आया
कि उन्होंने एक कैमरा ख़रीदा, शायद 5D या 7D (गनी साहब कृपया स्पष्ट करेंगे और क्षमा भी कि कैमरे का
ब्रांड और नाम याद नहीं रख पाया)। उन्हीं दिनों
उनकी निगाह श्री ज्ञानप्रकाश विवेक जी की कहानी पर गयी और बस फ़िल्म बनाने का मन बन गया।
लेकिन, सिर्फ मन बनने से या एक कैमरा होने से
फ़िल्म थोड़े ही न बन जाती है। लेकिन बात
केवल मन की नहीं थी, बात थी दृढ़ निश्चय, रचनाधर्मिता, लगनशील और जुझारू होने का। शायद किसी भी इंडस्ट्री में एक न्यू कमर
को इन्हीं औजारों की सबसे ज्यादा जरूरत होती है।
फिर भी, बात डेढ़ घंटे की एक फ़िल्म बनाने की हो, तो पर्याप्त बजट चाहिए, कलाकार चाहिए, एडिटिंग स्टूडियो और कुछ आवश्यक इक्विपमेंट, मसलन लाईट्स, लेंस, रिफलेक्टर चाहिए।
AM Gani after
show with Audience |
लेकिन गनी साहब ने
सोच लिया था कि फ़िल्म बनानी है, तो बनानी है। और फ़िल्म बनी, शानदार बनी। कलाकार के रूप में थिएटर के कुछ साथियों ने उनकी मदद की, तो कुछ परिचितों
ने भी साथ दिया, बिना कोई पैसा लिए। वे अपने हर्जे-खर्चे से शूटिंग पर आते थे।
एडिटिंग स्टूडियो
के रूप में गनी साहब के एक मित्र ने ‘प्रीमियर प्रो’ पर एडिट करने का वादा किया और निभाया भी, लेकिन बड़े रोचक तरीके से। हुआ यह कि उनके मित्र किसी जरूरी प्रोजेक्ट में
बिजी रहते थे, सो वे गनी साहब को फ़ोन पे इंस्ट्रक्शन दिया करते थे कि अमुक तरह से कम्यूटर
खोलिए, यहां क्लिक कीजिए, ये कट लगाइए
वगैरह-वगैरह। इस प्रकार करते-करते गनी साहब भी एडिटिंग सीख गए।
रहा सवाल लाईट्स, लेंस, रिफलेक्टर जैसे उपकरण का, तो कहते हैं न, जहां चाह, वहां राह। बकौल गनी साहब, दिन में सूर्यदेव का प्रखर किरण, रात में बिजली के बल्ब या ट्यूबलाइट का सहारा था, लेकिन विशेष प्रभाव उत्पन्न करने के लिए उन्होंने बैटरी वाली 3-4 घरेलू टॉर्च और मोबाइल के लाईट का
इस्तेमाल किया।
डबिंग के लिए जो
तरीका उन्होंने अपनाया, वह भी बड़ा लाजवाब था। जब उन्होंने यह तरीका फ़िल्म की समाप्ति के
बाद दर्शकों को बताया तो सभी खूब हंसे। डबिंग में सबसे बड़ी समस्या एम्बिएंस के न्वॉयज यानि अनपेक्षित आवाज या शोर को रोकने की होती है, जिसके लिए साउंड-प्रूफ स्टूडियो की शरण
लेनी होती है।
लेकिन, उनकी टीम ने यह काम बंद कार के अंदर किया, जो शायद रात के सन्नाटे में या सुनसान जगह पर किया गया होगा। बकौल गनी साहब, इस फ़िल्म में चार-पांच किरदारों के आवाज उन्हीं की आवाज में है। कारण? बस यह कि जो किरदार थे, वे कलाकार नहीं थे, उन्हें डायलॉग याद नहीं रहते थे।
सबसे इंटरेस्टिंग
बात तो यह कि पूरी फ़िल्म बनते-बनते दो साल बीत गए। इस दरम्यान संजू का किरदार निभाने वाले किशन सिंह, उनकी बड़ी बहन और अन्य स्कूली बच्चे बड़े हो गए। इससे मुझे भी यह
समझ में आया कि दो साल बच्चों के शारीरिक विकास के लिए कम समय नहीं होता है। फिल्ममेकिंग के कई रोचक प्रसंग होते हैं और इस फ़िल्म के लिए भी हैं। उसे
तफसील से फिर कभी बताऊंगा। यहां अहम है इस फ़िल्म के सन्देश को समझना।
Sanif, lead actor and Sir Gyan Prakash Vivek, writer |
तो, जो मुख्य सन्देश इस फ़िल्म से निकलकर आती है, वह है कि एक उत्साही व्यक्ति 85 मिनट की एक शानदार फ़िल्म बनाता है, जिसकी चर्चा एक मैगज़ीन में आउटलुक के आलोक मेहता करते हैं, जनसत्ता अख़बार में खबर छपती है और थिएटर की दुनिया के लोग वाह-वाह कहते हैं।
और, सबसे बड़ी बात तो यह कि आज के 50 करोड़, 100 करोड़ की लागत से फिल्में बनाने वालों को यह फिल्म एक नसीहत देती है। मुझे लगता है, भारत में समान्तर सिनेमा का पुनरोदय होने वाला है, जन सिनेमा का ज्वार चढ़ने वाला है। कम से कम बजट की अच्छी फिल्में दर्शकों और घरों
तक पहुंचने वाली हैं।
बस गनी साहब, फिर वही कहूंगा जो फ़िल्म देखने के बाद
स्टूडियो सफ़दर में कहा था – “पहली फ़िल्म है, शानदार है, मनोरंजक है”। कहने वालों ने बहुत कुछ कहा, मसलन एडिटिंग में लोचा था, डबिंग में खामियां थीं, एक्टिंग और बेहतर होती, स्क्रीनप्ले, डायरेक्शन और कसी होनी चाहिए, लाम-क़ाफ़, वगैरह-वगैरह।
फिल्म - कैद
प्रस्तुति - जन
सिनेमा
अवधि - 85 मिनट
कहानी -
ज्ञानप्रकाश विवेक
पटकथा एवं संवाद -
एम0 हनीफ मदार
निर्देशक - एम0 गनी
मुख्य पात्र--
किशन सिंह - संजू
एम0 सनीफ मदार - रंजन
राहुल गुप्ता
- तांत्रिक
राजेश श्रीवास्तव
- पिता
बॉबीना - मम्मी
रीता शर्मा - हिन्दी अध्यापिका
अजय नागर - गणित अध्यापक
संदीपन नागर - प्रधानाचार्य
अनीता - मालती
दिलीप रघुवंशी - दुकानदार
बेहेतरीन समीक्षा के लिए श्याम नन्दन जी का आभार
ReplyDelete