Tuesday 16 August 2016

स्वतंत्रता दिवस के जश्न की सार्थकता

स्वतंत्रता दिवस के जश्न की सार्थकता 

-: हनीफ मदार                                      सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं
दिल पे रखकर हाथ कहिये देश क्या आज़ाद है |
 
अदम गौंडवी साहब को क्या जरूरत थी इस लाइन को लिखने की | खुद तो चले गए लेकिन इस विरासत को हमें सौंप कर जिसके चंद शब्दों की सच बयानी या  साहित्यिक व्याख्या  आज किसी को भी देश द्रोही कहलवा सकती है | दरअसल यह लेख लिखते समय अचानक इन लाइनों ने आकर दस्तक दी है और परेशान किया है | जबकि हम सब पूरा देश स्वाधीनता दिवस की 69वीं वर्षगाँठ पर आज़ादी के जश्न की ख़ुमारी में डूबे हैं | यही समय है जब देशभक्ति हमारे रोम-रोम से फूट पड़ने को आतुर होती है | और यह होना भी चाहिए स्वाभाविक भी तो है क्योंकि आज़ादी खुद जश्न की वायस है ज़िंदगी का सर्वोत्तम है इसलिए यह लालसा न केवल इंसान को बल्कि हर जीव को होती है | फिर हमने तो इस आज़ादी के लिए बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई है | हमें गर्व है कि हम दुनिया के एक मात्र ऐसे देश हिन्दुस्तान के बाशिन्दे हैं जहाँ विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग-समूह, भाषा-भूषा, कला-संस्कृति, पर्व-अनुष्ठान एक साथ सांस लेते हैं | हर वर्ष स्वतन्त्रता दिवस की वर्षगाँठ मनाते हुए हम समय के लिहाज़ से एक और वर्ष आगे बढ़ चुके होते हैं यानी व्यवस्थाओं और सुशासन में एक वर्ष आगे की प्रगति | वैसे भी यह दिन महज़ राष्ट्र ध्वज फहराकर इतिश्री करने का तो नहीं ही है बल्कि देश की आज़ादी के लिए कुर्बान हुए हज़ारों शहीदों के अरमानों में बसने वाले आज़ाद भारत के सपने की दिशा में बढ़ने का संकल्प लेने का भी तो है |
यह दिन है हर अगले स्वाधीनता दिवस के आने तक अदम गौंडवी, हरिशंकर परसाई, मुक्तिबोध, बाबा नागार्जुन, जनकवि शील, आदि की रचनाओं के समक्ष एक ऐसी समाज व्यवस्था के साथ भारत निर्माण के अहद का जो इन तमाम लेखकों की रचनाओं को तात्कालीन रचनाएं सिद्ध कर सके | क्या हर वर्ष 15 अगस्त को मन में यह सवाल नहीं उठता कि इतने लम्बे समय के अपने स्वाधीन लोकतंत्र के बावजूद भी भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, कृपलानी, असफाक़उल्ला खान जैसे अमर शहीदों के आज़ाद भारत के सपने को साकार कर पाने में पूर्ण सफल हुए हैं…? फिर क्यों इन लेखकों की रचनाओं में मिलने वाले तात्कालीन भारतीय समाज के चित्र हमें आज भी बहुतायत में और बदतर हालत में नजर आते हैं |
 
     आज हम तकनीकी रूप से न केवल सुदृढ़ हुए बल्कि दक्ष भी तब भी युवा बेरोजगारी की दर का साल दर साल बढ़ते जाना | जनगणना निदेशालय द्वारा जारी पिछली रिपोर्ट के अनुसार भारत में सत्ताइस प्रतिशत मौतों का चिकित्सा के अभाव में होना | हमारी स्वाधीन लोकतांत्रिक व्यवस्था को सवालों के घेरे में ला खड़ा करता है | भारतीय आज़ादी के प्रतीकों से सजी दुकानों और पटे हुए बाज़ारों की चमक की आत्ममुग्धता में डूबे  हुए हम क्या यह भुला सकते हैं कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी स्कूली शिक्षा पार करने के बाद 9 छात्रों में से महज़ 1 छात्र ही कॉलेज तक जा पाता है | नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य होता है | आज़ाद भारतीय सत्ता व्यवस्थाओं द्वारा हर वित्तीय वर्ष में घटा दिए जाने वाले शिक्षा बजट से उत्पन्न होतीं इन स्थितियों के साथ क्या मात्र राष्ट्रवादी भावनाओं में विकसित राष्ट्र के भ्रम में जीते रहना उचित मान लिया जाय ?
 
निसंकोच स्वतंत्रता के बाद इन वर्षों में हम वैज्ञानिक एवं तकनीक की दिशा में प्रगति के कई पड़ाव पार करके सूचना प्रौद्योगिकी में एक अग्रणी देश बन गए हैं लेकिन आज भी देश के अंतिम नागरिक तक स्वच्छ पेय जल की व्यवस्था दे पाने में काफी पीछे है। आज भी देश में प्रदूषित पानी पीने से पनपने वाली कई बीमारियों से होने वाली मौतों की संख्या कम नहीं है | बात फिर चाहे सड़कों की हो बिजली या अन्य मूलभूत सुविधाओं की हो, दलित और स्त्री अधिकारों की हो | हर वर्ष हमारी आज़ादी का यह दिन अपील करता है और उम्मीद के साथ विदा होता है कि अगला वर्ष आज से बेहतर होगा | अब आवश्यकता नहीं रही है कोरे वादों और लुभावने भाषणों की, जरूरत है तो बस राजनैतिक इच्छाशक्तियों से सामाजिक रूप से इन तमाम क्षेत्रों के अधूरे कार्यों को पूरा करने की | देश के अंतिम व्यक्ति तक संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों में इंगित मूलभूत सुविधाओं की पहुँच सहज, सरल और सुलभ हों, इसे हम अपनी प्राथमिकता तय करें | सही अर्थों में यही हमारी सच्ची राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता दिवस के जश्न की सार्थकता भी होगी | तब निश्चित ही अदम गौंडवी की यह लाइनें निरर्थक और तात्कालीन ही साबित होंगी |
 
स्वतंत्रता दिवस की ढेरों शुभकामनाओं के साथ …..

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