Thursday 25 August 2016

“ये है मथुरा मेरी जान”

-: हनीफ़ मदार  

कुछ किताबों, फाइलों को खंगालते हुए मेरे साहित्यिक अतीत की कुछ यादें जो तहा कर रखी गयीं थीं जीवन के कीमती वर्कों की तरह, अचानक से निकल कर सामने आ गयीं | दरसल यह कागज़ के चंद टुकड़े मेरे शहर को अभिव्यक्त करने की मेरी कोशिशों की ज़िंदा तफसीलें हैं | यूं तो इतिहास गढ़ने की मेरी क्षमताएं नहीं हैं और न ही ऐसा कोई दावा इन स्मृतियों के धागे में बंधा है लेकिन जब से देखने-समझने की क्षमता विकसित हुई तभी से जीवन के यथार्थ की कितनी ही आड़ी तिरछी रेखाएं खिंचती रहीं मेरी आँखों के सामने और मेरे मानस पटल पर बनता रहा एक रेखाचित्र मेरे शहर का |
नगर, कस्बा या गाँव कोई भी हो क्या फर्क पड़ता है, सभी लगभग एक जैसे ही होते हैं | वही गड्ढों से भरी सड़कें, कीचड़ से बजबजाती नालियों में अलमस्त पसरे पड़े सूअर, भीड़ भरे बाज़ारों में स्वच्छंद बिचरते आवारा पशु और हल्की सी ही बारिश से सड़कों पर पैदा हुयी कीचड़ में चिप-चिप करते निकलते असंख्य इंसानी पैर…. | उस पर से बिजली कटौती और पानी के संकट जैसी असंख्य परेशानियां….| सुबह काम की तलाश में घर से बाहर निकलते हाथ, सर-सर चलती ए सी गाड़ियों में जाते हुए लोग | ठहरी हुई दोपहरी में पेड़ों के नीचे या दुकानों के सामने पड़ी टीन सैटों में ताश फेंटते युवा हाथ,  ए सी कमरों में विडियो गेम खेलते हाथ या थ्री एक्स देखतीं युवा आँखें | ऊंचे-नीचे, कच्चे-पक्के बंगले, घर और झोपडियां आदि लगभग सभी कुछ एक जैसा ही है | यह समानताएं किसी भी नगर के इकहरे खोल को ही प्रस्तुत करती हैं, जबकि हर शहर के भीतर एक ठोस और बुनियादी शहर अपनी सांस्कृतिक ताकत के साथ जी रहा होता है | और उसी सांस्कृतिकता से सृजित वातावरण ही वहाँ की सामाजिक संस्कृति और पहचान का बायस होता है | खैर, यह बातें तो जितनी चाहो लम्बी हो सकती हैं इस लिए मैं लौट कर वहाँ आता हूँ  जहाँ से बात शुरू होनी है ….
तो दोस्तों ! मैं मथुरा का निवासी हूँ | उस प्रेम नगरी मथुरा की बात कर रहा हूँ जिसके प्रेम में सय्यद इब्राहीम रसखान बन जाता है जो किसी भी रूप में इस ब्रज की माटी को छोड़ना नहीं चाहता  –
“ मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
Hanif Madaar 
 केवल रसखान ही नहीं मथुरा की अमन पसंद जनता के सौहार्द की मिशाल पूरे देश में दी जा सकती है | और यह महज़ इस शहर का कोई ऊपरी आवरण भर नहीं है बल्कि इसके सांस्कृतिक कलेवर में ही गंगा जमुनी तहज़ीब के अंकुर मिलते हैं | बात २००४ की है, मैं उन दिनों सहारा समय के लिए सांस्कृतिक विश्लेषण लिखा करता था तब मैंने मथुरा के पारम्परिक आखाड़ों पर एक लेख लिखा था जो “मंहगाई ने उजाड़े मल्लों के अखाड़े” शीर्षक से छपा था | तब एक दिलचस्प जानकारी मिली बताया गया कि मथुरा के तमाम पारम्परिक मल्ल विद्या के अखाड़ों के उस्ताद कोई भी रहे हों लेकिन खलीफा मुस्लिम ही रहे हैं |
वह किशोरवय की अल्हड़ उम्र थी तब ईद या रमज़ान के आखिरी शुक्रवार (अलविदा जुमा) का उल्लास चरम पर होता था | संभव हुआ तो नए कपड़े और कुछ पैसे अपनी पूरी आज़ादी से खर्चने को मिलते थे | शर्त यह होती थी कि हमें भी नमाज़ पढने मस्जिद जाना होगा और उस छद्म आज़ादी के लिए हम कुछ भी करने को तैयार रहते थे | ईदगाह या चौक बाज़ार वाली बड़ी मस्ज़िद में ही नमाज़ को जाते थे क्योंकि मेला वहीँ लगा होता था | तब भले ही अन्य चीज़ों की समझ न रही हो लेकिन जो देखा उसे विस्मृत नहीं किया जा सकता | चौक बाज़ार में ज्यादातर दुकाने कंठी माला, पोशाक और श्रंगार की हुआ करती थीं और अमूमन ही हिन्दुओं की | उन दिनों मस्ज़िद पर नमाज़ियों की इतनी भीड़ होती थी कि मस्ज़िद में तो उस भीड़ का एक चौथाई हिस्सा ही समा पता था, बाकी की भीड़ चौक बाज़ार की इन्हीं सड़कों पर बिछाई गई सफ़ेद चादरों पर नमाज़ पड़ती थी | मज़े की बात कि नमाज़ के वक़्त लगभग सभी दुकानदार अपनी गद्दियों को छोड़ कर नीचे आ जाते थे और ख्याल रखते थे’ कि नमाज़ के वक़्त कोई कुत्ता या अन्य जानवर नमाजियों के बीच में न आ पाए | और नमाज़ के बाद सभी आपस में गले मिलने के बाद ही दुकानों पर बैठते थे |
मथुरा की राम बारात उत्तर भारत में बहुत प्रसिद्ध है | राम बारात के साथ चलते बैंड बाजों में सभी बैंड पार्टियां मुस्लिमों की ही होती हैं वहीँ राम बारात के समय चौक बाज़ार वाली जामा मस्ज़िद के द्वार खोल दिए जाते थे ताकि बारात के दर्शनार्थी हिन्दू भाई-बहने मस्ज़िद में ऊपर चढ़ कर बारात को देख सकें |
भक्तिकालीन प्रसिद्ध कवि “नवी” ने मथुरा के लिए लिखा था –
“मधुपुरी मधु सौं भरी कबहुं तज़ी नहिं जात ,
और पुरी में मद नहीं जामें ‘नवी’ समात |
इसके अलावा ‘ताज बेगम’, ‘आलम सेख,’ ‘नज़ीर,’  जैसे कई कवियों ने इस नगरी को अपनी कविताओं में अभिव्यक्त किया है | ब्रज भाषा में शेर और सबय्या लिखने वाले ‘शमीम मथुरावी’ जिन्हें लोग दुसरे रसखान के नाम से जाने जाते थे  |  ब्रज के प्रति ‘नज़ीर’ की प्रेम भक्ति कुछ इस तरह प्रदर्शित होती है  –
यारो सुनो ये दधि के लुटैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन ॥
मोहन-स्वरूप निरत करैया का बालपन।
बन बन के ग्वाल गौएं, चरैया का बालपन।
ऐसा था, बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या क्या कहूं मैं किशन कन्है या का बालपन॥
मथुरा की होली को ही लीजिये जो पूरे भारत वर्ष में जानी जाती है | होली पर यहाँ न केवल देश भर से अपितु विदेशों से भी सैलानी और दर्शनार्थी होली का आनंद लेने आते हैं | इसे इस लोकोक्ति से समझा जा सकता है कि “सब जग होरी जा ब्रज में होरा” मथुरा की होली नज़ीर की लिखी रचनाओं के बिना अधूरी जान पड़ती है –
जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में॥
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौपय्यन में॥
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में ॥
जहाँ अनेक मुस्लिम कवियों ने मथुरा ब्रज को अपनी रचनाओं में लिखा वहीँ इस्लाम धर्म के आखरी पैगम्बर ‘मुहम्मद साहब’ पर नातें लिखने वाले हिन्दू कवि भी रहे हैं जिनमे ‘गोपी मोहन जौहरी’, एडवोकेट नर्मदा प्रसाद दानेश’, ‘लक्ष्मी चंद जौहरी’, ‘बहसी बदायुनी’ आदि के नाम जानकारी में आते हैं |
जानकारों की माने तो यह मथुरा की अमन पसंद आवाम के सांस्कृतिक सामाजिक आदान प्रदान का ही नतीज़ा है कि १९९२ रहा हो या फिर २००२ देशभर में कहीं भी साम्प्रदायिक लपटें उठती रहीं हों लेकिन मथुरा में अभी तक घोषित कर्फ्यू दर्ज नहीं हुआ है | ऐसा भी नहीं है कि फासिस्टी ताकतों और चरमपंथियों ने कोशिश नहीं  कीं हों लेकिन सांस्कृतिक रूप से समृद्ध इस शहर के लोगों ने हमेशा ही उन कोशिशों को नाकाम किया है | प्रसंगवश: एक और वाकया याद आ रहा है बात १९९२ के ठीक बाद की है मथुरा के कुछ चरमपंथियों ने ईद न मनाने का फैसला किया | मुस्लिम दुकानों पर काले झंडे लगाए और काली पट्टियां बांधी | इस बात से मथुरा का सांस्कृतिक वर्ग बेहद परेशान था | सवाल था “घर में एक भाई त्यौहार नहीं मना रहा है” सांस्कृतिक और रंग संगठनों की बैठकें हुईं और तय हुआ कि कुछ भी हो हमें अपने भाई को मनाना होगा | तब शहर भर के रंग संगठनों के बारह-पंद्रह लोग मथुरा के ह्रदय स्थल होलीगेट पर जुटे और होलीगेट से डीगगेट की तरफ एक स्लोगन “आओ ईद मनाएं मेरे भाई, सबको गले लगाएं मेरे भाई |” को गाते हुए बड़े थे | ठीक उसी तरह कि “मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया |” बारह पन्द्रह लोगों को यह उम्मीद भी नहीं थी कि उनकी आपसी सौहार्द की इस कोशिश में इतने लोग शामिल होंगें | होलीगेट से लगभग ढेड किलोमीटर दूर डीगगेट तक बारह पन्द्रह लोगों से शुरू हुए उस कारवां में लोगों की लाइन ख़त्म नहीं हुई थी | इस आत्मिक कोशिश का असर यह हुआ कि मुस्लिम लोगों ने काले झंडे उतारे पट्टियां खोलीं और पूरे उल्लास से न केवल ईद मनाई बल्कि उन ताकतों की विद्रूप कोशिशों को, लोगों के आपसी प्रेम और एकता ने नाकाम किया था |
ऐसे बहुत से वाक़यात और क्षण हैं अपने इस शहर को व्यक्त करने के, बावजूद इसके, दूर शहरों और प्रदेशों के लोग इसे एक प्राचीन शहर की छवि में वही घिसी पिटी औसत मिथकीय धारणाओं के साथ इसके इकहरे मृत खोल को ही देखते या जानते हैं | दरअसल इसमें रहकर ही आप यह जान पाते हैं कि इसके अन्दर एक दूसरा ही ठोस और जीवित शहर है, जिसकी कई-कई परतें हैं, जिन पर अलग अलग वक्तों के गहरे और हलके आड़े तिरछे कई निशान हैं | वैसे भी आपका शहर तो वही होता है जिसे आप अपनी आँखों से देखते हैं और अपने अनुभव से पहचानते हैं या जैसा अपना अक्स वह आपके अन्दर डाल देता है |
देश भर के तमाम दोस्तों के साथ बात-चीतों में अक्सर ही मैं सुनता हूँ कि मथुरा तो फलां पार्टी के एजंडे में शामिल है या साम्प्रदायिक रूप से बेहद संवेदनशील शहर है आदि आदि, हालांकि मैं देर तक अपने शहर की एक सही, सच्ची और मुकम्मल तस्वीर उनके सामने रखने की कोशिश करता हूँ बावजूद इसके ऐसी कथित धारणाएं  मुझे बेहद क्षुब्ध और व्यथित करती हैं | इसी क्षुब्धता के कारण अपने जीवनानुभवों के अक्सों जो यादों के रूप में तहा कर रखे थे को आपके साथ बांटने को विवश हुआ हूँ |
किसी भी नगर की पहचान वहाँ की संस्कृति और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध परम्परा पर निर्भर करती है | इस दृष्टिकोण से भी यमुना नदी के पश्चिमी तट पर दिल्ली और आगरा के बीच बसे मथुरा की सांस्कृतिक विरासत अत्यंत प्राचीन और समृध रही है | कभी यह नगर बौध धर्म का गढ़ रहा | बताते हैं पहली शताब्दी में यह कनिष्क की दूसरी राजधानी रहा | यहीं से उत्खनन से प्राप्त हुईं मथुरा संग्रहालय में रखी बुद्ध की कंधार शैली की विभिन्न मूर्तियों के अलावा बुद्ध की प्रख्यात भग्न मूर्ती इस बात की शिनाख्त करती नज़र आतीं है | जहाँ जैन, शाक्त, तांत्रिकों, नाथ पंथियों, सूफियों के अलावा वैष्णव सम्प्रदाय एवं अष्ठ्छाप के कवियों के अत्यंत प्राचीन केद्र यहाँ दिखाई देते हैं वहीँ चैतन्य की स्मृति अब तक जीवित है जिसके सूत्र बंगाल और उत्तर पूर्वी भारत तक जाते हैं | तानसेन के गुरू हरिदास से लेकर चंदन जी तक चली ध्रुपद गायन की प्राचीन परम्परा का चलन यहाँ के कई मंदिरों में आज़ादी के बाद तक चला | भारतीय नवजागरण काल में भारतेंदु मंडल के कई सदस्य भी मथुरा के रहे हैं |
बारहों महीने तीज त्यौहार और प्राचीन मेलों में सर्कस, नाटक, दंगल, कव्वाली, नौटंकी, मुशायरा, रसिया, रास, नृत्य आदि के आयोजन मथुरा की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत के हिस्से रहे हैं |
रासलीला, संगीत परम्परा, नौटंकी, लोकगायन तथा नृत्य की विभिन्न पारम्परिक रंगमंचीय शैलियों में पारंगत मथुरा में आधुनिक रंगमंच की जड़ें भी बहुत गहरी हैं | एक समय दर्जनों रंग संस्थाएं प्रगतिकामी सांस्कृतिक आन्दोलन की दिशा में सक्रीय योगदान में जुटी रहीं हैं | बीसवीं सदी के सातवें दशक में गठित कला भारती संस्थान के बाद, मथुरा की पृष्ठभूमि पर लिखे गए चर्चित और कालजई उपन्यास ‘नाच्यो बहुत गोपाल, मानस का हंस, खंजन नयन, आदि  के रचयता सुप्रसिद्ध साहित्यकार ‘अमृतलाल नागर’ के मार्गदर्शन में ‘स्वास्तिक रंगमंडल’, भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के अलावा मथुरा जूनियर चैंबर, जन संस्कृति मंच, मथुरा कल्चरल सोसाइटी, संकेत रंग टोली आदि संस्थाएं निरंतर नाट्य मंचनों के द्वारा मथुरा की आधुनिक सांस्कृतिक विरासत को न केवल मजबूती देतीं रहीं बल्कि आपसी प्रेम, सद्भाव और गंगा-जमुनी तहजीब के बीज बोती रहीं हैं | यह अलग बात है कि कई संस्थाएं कॉर्पोरेटी सांस्कृतिकता और बाजारी व्यवस्था के दवाव में गुमनाम हो गईं किन्तु जन संस्कृति मंच, संकेत रंग टोली, कोवलेन्ट ग्रुप जैसी संस्थाओं के प्रयासों ने मथुरा में आधुनिक थियेटर एवं प्रगतिवादी विचार आन्दोलन की जन-पक्षीय गौरवशाली परम्परा को मरने नहीं दिया है |
जनवादी साहित्य और विचार की बड़ी विरासत एस एल बशिष्ठ (सव्यसांची) के रूप में मथुरा को मिली । सव्यसांची का वैचारिक प्रवाह केवल मथुरा में ही नहीं अपितु देश भर के साहित्यकारों, कलाकारों, बुद्धुजीवियों के वीच बेहद सम्मानजनक रूप से आज भी मौजूद है । परिकथा के संपादक शंकर साहब से मेरी पहली बात-चीतों में जब मैंने बताया था कि मैं मथुरा से हूँ तो उन्होंने यह कह कर मथुरा को पहचाना- “सव्यसांची’ वाला मथुरा…?” ‘सव्यसांची’ के मथुरा में होने के कारण ही ‘जनवादी लेखक संघ’ की मथुरा में स्थापना से लेकर जनपक्षीय विचार दृष्टि मथुरा के जन मानस में आज भी मौजूद है |
इन पौराणिक नगरों की अस्मिता की पहचान के प्रति गढ़ित मिथकीय धारणाओं अवधारणाओं में कार्पोरेट मीडिया की भूमिका भी परिलक्षित होती रही है | चलते-चलते एक और वाकया जो मेरे मन पर किसी भारी बोझ की तरह बना रहा है | ‘मैं उन दिनों एक साप्ताहिक अखवार के लिए लिख रहा था | 6 दिसंबर करीब था, मुझे संपादक का फोन आया “हनीफ ! यार मथुरा को लेकर एक मसालेदार आर्टिकल लिख दो |” अचकचा कर मैंने उनसे पूछा – “मसाला….? मैं समझा नहीं |” जवाब था “अरे यार वहाँ मंदिर-मस्जिद का मुद्दा कितना मसालेदार है उसी पर लिख दो |” यह वाक्य मेरे लिए विचलित कर देने वाला था | मैं परेशान था यह सोच-सोच कर कि मथुरा की ऐतिहासिक छवि तो कभी साम्प्रदायिक रही ही नहीं है फिर यह क्यों जबरन कोशिश की जा रही है | हाँ अवसरवादी राजनैतिक तत्वों द्वारा अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकने के लिए इस मुद्दे को गर्माने की कोशिशें तो जरूर की जाती रही हैं लेकिन मथुरा की अमन पसंदी ने उन कोशिशों को कभी आधार तो नहीं बनने दिया | फिर मैं ही क्यों चंद रुपयों के लिए लिखे जाने वाले इस लेख को अपने घर के लिए ही माचिस की तरह इस्तेमाल करूं | मैंने तय कर लिया था कि मैं लिखूंगा और यहाँ की साझी सांस्कृतिक विरासत पर लिखूंगा | मैंने मथुरा की इसी गौरवशाली साझी सांस्कृतिक विरासत पर लेख लिख कर उन्हें भेजा….. जिसे प्रकाशित नहीं किया गया | मेरे तर्क करने पर कह दिया गया कि ‘अखवार तुम्हारे सिद्धांतों से नहीं बिकता … अखवार में मसाला बिकता है | यहाँ खबर को भी खबर नहीं मसाला बनाना पड़ता है | मानवता, सिद्धांत और संवेदना जैसे शब्द, घर रख कर आओ यहाँ काम करना है तो |’ मैं क्या करता ….. मैं ऐसे काम नहीं कर सकता था और मैंने नहीं किया |
इस सब के बाद यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं है कि वर्तमान के विभिन्न अवरुद्ध विकास, घोर आत्मविस्मृति, आक्रामक फासिस्ट सक्रियता, के बावजूद भी उत्तर भारतीय इन कस्बों, नगरों की संरचना में बुनियादी तौर पर कोई तो ऐसी बात है जो इंसानियत के रूप में धड़कती है और उसे मुकम्मल तौर पर ख़त्म करना आसान नहीं है | फिर यह तो प्रेम नगरी मथुरा है जिस पर मुझे गर्व है, इस लिए कहता हूँ “ये है मथुरा मेरी जान” |

Tuesday 16 August 2016

स्वतंत्रता दिवस के जश्न की सार्थकता

स्वतंत्रता दिवस के जश्न की सार्थकता 

-: हनीफ मदार                                      सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं
दिल पे रखकर हाथ कहिये देश क्या आज़ाद है |
 
अदम गौंडवी साहब को क्या जरूरत थी इस लाइन को लिखने की | खुद तो चले गए लेकिन इस विरासत को हमें सौंप कर जिसके चंद शब्दों की सच बयानी या  साहित्यिक व्याख्या  आज किसी को भी देश द्रोही कहलवा सकती है | दरअसल यह लेख लिखते समय अचानक इन लाइनों ने आकर दस्तक दी है और परेशान किया है | जबकि हम सब पूरा देश स्वाधीनता दिवस की 69वीं वर्षगाँठ पर आज़ादी के जश्न की ख़ुमारी में डूबे हैं | यही समय है जब देशभक्ति हमारे रोम-रोम से फूट पड़ने को आतुर होती है | और यह होना भी चाहिए स्वाभाविक भी तो है क्योंकि आज़ादी खुद जश्न की वायस है ज़िंदगी का सर्वोत्तम है इसलिए यह लालसा न केवल इंसान को बल्कि हर जीव को होती है | फिर हमने तो इस आज़ादी के लिए बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई है | हमें गर्व है कि हम दुनिया के एक मात्र ऐसे देश हिन्दुस्तान के बाशिन्दे हैं जहाँ विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग-समूह, भाषा-भूषा, कला-संस्कृति, पर्व-अनुष्ठान एक साथ सांस लेते हैं | हर वर्ष स्वतन्त्रता दिवस की वर्षगाँठ मनाते हुए हम समय के लिहाज़ से एक और वर्ष आगे बढ़ चुके होते हैं यानी व्यवस्थाओं और सुशासन में एक वर्ष आगे की प्रगति | वैसे भी यह दिन महज़ राष्ट्र ध्वज फहराकर इतिश्री करने का तो नहीं ही है बल्कि देश की आज़ादी के लिए कुर्बान हुए हज़ारों शहीदों के अरमानों में बसने वाले आज़ाद भारत के सपने की दिशा में बढ़ने का संकल्प लेने का भी तो है |
यह दिन है हर अगले स्वाधीनता दिवस के आने तक अदम गौंडवी, हरिशंकर परसाई, मुक्तिबोध, बाबा नागार्जुन, जनकवि शील, आदि की रचनाओं के समक्ष एक ऐसी समाज व्यवस्था के साथ भारत निर्माण के अहद का जो इन तमाम लेखकों की रचनाओं को तात्कालीन रचनाएं सिद्ध कर सके | क्या हर वर्ष 15 अगस्त को मन में यह सवाल नहीं उठता कि इतने लम्बे समय के अपने स्वाधीन लोकतंत्र के बावजूद भी भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, कृपलानी, असफाक़उल्ला खान जैसे अमर शहीदों के आज़ाद भारत के सपने को साकार कर पाने में पूर्ण सफल हुए हैं…? फिर क्यों इन लेखकों की रचनाओं में मिलने वाले तात्कालीन भारतीय समाज के चित्र हमें आज भी बहुतायत में और बदतर हालत में नजर आते हैं |
 
     आज हम तकनीकी रूप से न केवल सुदृढ़ हुए बल्कि दक्ष भी तब भी युवा बेरोजगारी की दर का साल दर साल बढ़ते जाना | जनगणना निदेशालय द्वारा जारी पिछली रिपोर्ट के अनुसार भारत में सत्ताइस प्रतिशत मौतों का चिकित्सा के अभाव में होना | हमारी स्वाधीन लोकतांत्रिक व्यवस्था को सवालों के घेरे में ला खड़ा करता है | भारतीय आज़ादी के प्रतीकों से सजी दुकानों और पटे हुए बाज़ारों की चमक की आत्ममुग्धता में डूबे  हुए हम क्या यह भुला सकते हैं कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी स्कूली शिक्षा पार करने के बाद 9 छात्रों में से महज़ 1 छात्र ही कॉलेज तक जा पाता है | नैसकॉम और मैकिन्से के शोध के अनुसार मानविकी में 10 में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य होता है | आज़ाद भारतीय सत्ता व्यवस्थाओं द्वारा हर वित्तीय वर्ष में घटा दिए जाने वाले शिक्षा बजट से उत्पन्न होतीं इन स्थितियों के साथ क्या मात्र राष्ट्रवादी भावनाओं में विकसित राष्ट्र के भ्रम में जीते रहना उचित मान लिया जाय ?
 
निसंकोच स्वतंत्रता के बाद इन वर्षों में हम वैज्ञानिक एवं तकनीक की दिशा में प्रगति के कई पड़ाव पार करके सूचना प्रौद्योगिकी में एक अग्रणी देश बन गए हैं लेकिन आज भी देश के अंतिम नागरिक तक स्वच्छ पेय जल की व्यवस्था दे पाने में काफी पीछे है। आज भी देश में प्रदूषित पानी पीने से पनपने वाली कई बीमारियों से होने वाली मौतों की संख्या कम नहीं है | बात फिर चाहे सड़कों की हो बिजली या अन्य मूलभूत सुविधाओं की हो, दलित और स्त्री अधिकारों की हो | हर वर्ष हमारी आज़ादी का यह दिन अपील करता है और उम्मीद के साथ विदा होता है कि अगला वर्ष आज से बेहतर होगा | अब आवश्यकता नहीं रही है कोरे वादों और लुभावने भाषणों की, जरूरत है तो बस राजनैतिक इच्छाशक्तियों से सामाजिक रूप से इन तमाम क्षेत्रों के अधूरे कार्यों को पूरा करने की | देश के अंतिम व्यक्ति तक संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों में इंगित मूलभूत सुविधाओं की पहुँच सहज, सरल और सुलभ हों, इसे हम अपनी प्राथमिकता तय करें | सही अर्थों में यही हमारी सच्ची राष्ट्रीयता और स्वतंत्रता दिवस के जश्न की सार्थकता भी होगी | तब निश्चित ही अदम गौंडवी की यह लाइनें निरर्थक और तात्कालीन ही साबित होंगी |
 
स्वतंत्रता दिवस की ढेरों शुभकामनाओं के साथ …..