Monday 1 September 2014

एक और रिहाना नहीं (कहानी )

एक और रिहाना नहीं
एम हनीफ मदार 
 
 
 
दिन भर की बूँदा-बाँदी शाम को थककर बन्द हुई। हवा वातावरण में हल्की ठण्डक घोलने लगी। रूई के फाहों की तरह भूरे, कुछ हल्के स्लेटी बादल, आसमान के एक छोर पर धीरे-धीरे ऐसे इकट्ठे हो रहे थे मानो आकाश जैसे बड़े कैनवस पर, कोई सुन्दर चित्रकला में रंग भरने की क्रिया कर रहा है। बारिश थमने के बाद से ही मैं छत पर बैठा इस अनोखी कारीगरी को देख रहा था। एकदम शान्त एकाग्र होकर जैसे मैं यह माने बैठा था कि मेरे कुछ बोल पड़ने या गुनगुनाने से आकाश में छपती ये सुन्दर आकृतियाँ बिगड़ जायेंगी कि अचानक चीख-चिल्लाहट की आवाज से मेरी एकाग्रता भंग हुई। यह आवाज मेरे पड़ौसी बुन्दू की बड़ी बेटी रिहाना की थी। बुन्दू मेरे घर के ठीक पीछे वाले प्लॉट में बने में एक कमरे में रहता है। मकान मालिक ने उसे खरीदा ही था कि उसे दिल्ली में काम मिल गया इसलिए किराए पर उठाकर चला गया। मैंने छत से झाँककर देखा रिहाना के हाथ आटे से सने हुये थे। आँखों से क्रोध में डूबी खीझ टपक रही थी। उसके मुँह से भद्दी गालियाँ निकल रहीं थीं जो उसके अपने छोटे नौ बहन-भाइयों के लिए थीं जिन्हें वह, कुनबा कह रही थी ''दारीकेऔ एकऊ ने आवाज निकारी तौ मौंह तोड़ दूँगी... कुनबा वा बाप ते नाय रोय सकतु जा नरिऐ भरिवे कूँ...? इतनौ कहाँ ते लाऊँ तुमकूँ।" दरअसल यह उसके मन का गुबार अपने उस बाप के लिए था जिसके लिए पारिवारिक तथा सामाजिक सरोकारों का कोई अर्थ नहीं है। उसका दिन शराब की दुकान से शुरु होकर जुआरियों के साथ बैठकर खत्म होता है।

चीखती-चिल्लाती रिहाना, अपने बहन-भाइयों को रोटी तथा तरकारी बाँट कर दे रही थी तब बुन्दू ने घर में प्रवेश किया। उसकी आँखें लाल हो रहीं थीं। वह पूरी तरह शराब के नशे में था। रिहाना की आँखें बच्चों को इतनी रोटी से ही भूख शान्त करने का आदेश दे रहीं थीं ताकि उसके घर की अन्तिम सांसें गिनती आबरू अर्थी में न बदले। मगर बन्दू इतने पर भी शर्मसार तो बिल्कुल भी नहीं था हाँ गौरवान्वित मुद्रा में, मुहम्मद बिन तुगलक जैसी मूँछों पर हाथ फिरा रहा था। इस दृश्य को देखकर जैसे आसमान भी रो पड़ा था। बारिश तेज होन लगी तो मैं भी छत से उतरकर नीचे आ गया। कुछ देर बाद बारिश फिर थमी तो मेरी माँ कुछ रोटियाँ तथा तरकारी रिहाना की बीमार माँ को देने गयी।

रहीमा को टी.बी. की यह बीमारी विरासत में नहीं मिली बल्कि, भूखे पेट पूरा-पूरा दिन मेहनत करना ऊपर से पति द्वारा उसकी इच्छा के विरुद्ध नौ बच्चों को शीघ्रातिशीघ्र जन्म देने का परिणाम है। लोगों से सुनकर वह इतना भी जानती है कि, आज इस बीमारी का इलाज है। लेकिन चालीस रुपये में कॉल्डस्टोर में, जहाँ गर्मियों में भी हाड़ कंपा देने वाली सर्दी होती है में मजदूरी करके वह वर्षों से बच्चों का पेट भरने की कोशिश में ही जुटी रही है। अब ऐसे में उसे अपनी बीमारी का ध्यान ही कहाँ था...। किसी ने बताया था तो एक दो बार सरकारी अस्पताल गयी भी तो वहाँ देने के लिए उसके पास कुछ था नहीं इसलिए उसकी वहाँ सुनने वाला ही कौन था। उसके बाद उसने पति के नकारापन के साथ इस बीमारी को भी भाग्य का लेखा मान लिया किन्तु, उस पर अपने छोटे बेटे का अपाहिजपन नहीं देखा जाता। जब वह छोटा था तब तेज बुखार में उसे यह शिकायत हुई थी। डाक्टर ने कहा था कि अभी ठीक हो जायेगा। मगर दवाई के लिए पैसे कहाँ जुटा पायी। इसके लिए उसने बुन्दू से भी खूब झगड़ा किया एकाध बार पिटी भी। अन्त में एक दिन बुन्दू ने साफ कह दिया ''मर जान्दै भैन के लौड़ाऐ। जादा मरी जाय रई ऐ तौ दूसरौ खसम करि लै।"

''तू मरि तौ जा पहलैं तबई तौ कछु करि लुँगी।" और कुछ न कर सकी बेटा अपाहिज हो गया। आज भी जब रहीमा की नजर अपने बेटे पर जाती है तो कलेजा धक से रह जाता है। इसी से तो उसने बुढ़ापे की उम्मीदें जोड़ीं थीं। बड़े बेटे रज्जाक का सहारा तो उसके लिए पहले ही जाता रहा है। वह अट्ठारह वर्षीय हट्टा-कट्टा जवान है किन्तु रहीमा के लिए यह भी दुर्भाग्य की काली छाया ही है। वह अपने बाप से भी दो कदम आगे है। पक्का कामचोर बाप की तरह ही लड़ झगड़कर माँ की कमाई खा-खाकर खूब फल-फूल रहा है। ऐसे में रहीमा को यह मान लेने में ज्यादा कठिनाई नहीं होती कि रज्जाक के रूप में दूसरा बुन्दू तैयार हो रहा है जैसे इतिहास खुद को दुहराने की तैयारी कर रहा हो।

इन दिनों रहीमा को शारीरिक बीमारियों से ज्यादा उन्नीस वर्षीय रिहाना की शादी की चिंता सता रही है तभी उसकी बीमारी उसको चारपाई से न उठने को मजबूर कर रही है। ऐसे में वह किसका सहारा तलाशे पति का ... पुत्र का...? या स्वयं अपना ...? पति के इन कर्मों के कारण परिवार से भी सम्बन्ध टूटे वर्षों हो गये। इसलिए अब उनका मुँह फेरे रखना उसे कुछ गलत नहीं लगता। अब तक तो उसे भरोसा था कि बेटा सयाना हो जाएगा तो उसकी मुश्किलें कुछ कम हो जायेंगी परन्तु ऐसा भी नहीं हुआ। इसी दिन रात की चिन्ता ने रहीमा की कमर तोड़ कर रख दी। बीमारी ने भी उसके साथ कोई कसर नहीं छोड़ी, आखिर उसने चारपाई पकड़ ही ली। अब न चाहते हुए भी परिवार के पालन-पोषण की पूरी जिम्मेदारी ही रिहाना और अपाहिज पुत्र सलीम पर आ गई। सलीम का एक पैर जमीन पर नहीं आता है अब ऐसी हालत में भी सिलाई की मशीन चलाता देखकर किसी माँ का हृदय तार-तार क्यों न हो जाये...। ''स्यानी लड़की है, कोलिस्टोर में कैसे भेज दऊँ...? जमानौ ठीक नाँय मैं का करि लुंगी...।" इसी डर से रिहाना घर पर ही मोतियों की माला बनाने में जुटी रहकर शाम तक कुछ पैसा कमाने और सुबह शाम ताऊ के घर पर खाना पकाती है सिर्फ कुछ रोटियों के लिए। करना तो उसकी माँ भी कुछ ऐसा ही चाहती है लेकिन असमर्थ है। तब वह बच्चों के पेट को डाँट-फटकार या कभी-कभी पिटाई व गालियों से भरकर सुलाने में मदद करती है। तब रिहाना इस तरह झल्लाने के अलावा कुछ नहीं कर पाती। कभी-कभी तो वह परेशान होकर मर जाना भी चाहती है किन्तु उसे इस कुनबे के सामने सिवाय अंधकार के कुछ भी तो नजर नहीं आता और अगले ही पल वह पूरी हिम्मत से खड़ी हो जाती है। मेरी माँ को हाथ में खाना लिए दरवाजे पर खड़ी देखकर रहीमा मुश्किल से उठकर आ सकी। मेरी माँ से यह खाना लेते वक्त रहीमा के हाथ काँप उठे थे। उसने कनखियों से देखा कि बुन्दू की निगाह उसी पर थीं परन्तु क्या करे, बच्चों का पेट तो भर ही जाएगा यही सोचकर उसने झुकी निगाहों से खाना ले लिया। परन्तु खौं-खौं करती रहीमा जैसे किसी बोझ से दबी जा रही हो। उसका चेहरा कुछ ज्यादा ही मलिन हो गया था। मेरी माँ के संकोच न करने के आग्रह पर उसने अपने आप को संयत करने का असफल प्रयास किया। रहीमा ने मुड़कर एक नजर बुन्दू पर डाली। उसे भय था कि आज वह जरूर मार-पीट करेगा... किन्तु बुन्दू की लालच में चमकी नजरें सिर्फ रोटियों पर ही टिकी थीं। ''ला रांणी जल्दी" उसने रहीमा के हाथ से खाना छीन लिया और खा पीकर वहीं सो रहा। रहीमा मन मसोस कर यह देखती भर रही गयी। सिवाय आँखों से आँसू टपकाने के वह चाह कर भी कुछ न कर सकी।
रोज की तरह उस दिन भी मैं समाचार पत्र को उलट-पलटकर कोई सार्थक खबर पढ़ने की तमन्ना में चाय की चुस्कियाँ भर रहा था कि ''सर जी नमस्ते" यह अब्दुल था रिहाना के ताऊ का बड़ा लड़का। उम्र में रिहाना से लगभग तीन साल बड़ा। मेरी तरह उसका भी रोज का काम था मेरे पास बैठकर राजनैतिक खबरें पढ़ना और उन पर अपनी टिप्पणी करते हुए नेताओं को गरियाना और उनके द्वारा पब्लिक को बेवकूफ समझ कर दिये गये बयानों पर ठठाकर हँसना ''साले उल्लू समझते हैं।" मगर उसने मुझे दोपहर को बुन्दू के घर आने का आमंत्रण देकर चौंकाया ''आज कोयी खास बात है क्या...?" मैंने पूछ लिया, उसके चेहरे पर एक अजीब सी वितृष्णा फैलकर स्थाई हो गयी ''अरे कुछ नहीं, मजबूरी है... कि पिताजी की नाक कटी जा रही है। उनकी मान-मर्यादा एकदम जाग गयी है... और भायपन भी... सो, साले इसी चाचा की लड़की की शादी करनी पड़ रही है... आज उसे देखने वाले आ रहे हैं।" अन्तिम शब्दों तक आते आते वह अन्दर से खौलने लगा था। ''चलो कोई बात नहीं है... तुम इस लायक हो तो कर दो... आखिर बहन ही है।" मैंने कहकर उसे चलता किया।
दोपहर तक बुन्दू के घर का स्वरूप ही बदल गया था। रहीमा के बच्चों के चेहरे उस दिन फूलों की तरह खिले हुये थे। घर में बन रहे खाने की महक उनकी आँखों में उतरकर चमक रही थी। यही खाना आज उन्हें भी मिलने वाला था। इसी उमंग में वे इधर-उधर खुशी से उछल-कूद रहे थे। डेढ़ वर्षीय बच्ची को आज पेट भर दूध मिल गया था इसलिए उसकी उल्लासभरी किलकारी अपनी तरफ ध्यान आकर्षित कर रही थी। रहीमा को भी जैसे कोई बीमारी नहीं रह गयी थी। वह हँसती सी चूल्हे के पास बैठी कुछ पका रही थी। उसने रिहाना की नानी द्वारा दिये गये कपड़े पहन रखे थे। चमकीला सा हरे रंग का सलवार तथा उसी रंग का कुर्ता और चमकीला गोटा लगा दुपट्टा, आज रेगिस्तान में भी जैसे हरियाली की लहर दौड़ पड़ी थी। बदन में बनियान तथा गमछा लपेटे रज्जाक, पड़ौस से चारपाई पर बिछाने को चादर माँ गकर लाया था। कुछ झुँझलाया सा क्यों कि आज उसे कुछ हाथ-पैर हिलाने पड़ रहे थे, अपनी मर्जी के बिना। बुन्दू कहीं नजर नहीं आ रहा था। यही सवाल उस बूढ़ी औरत के मन में था जो रहीमा से पूछ रही थी ''बुन्दू नाँय दिख रए का उनें पतौ नाँय?" रहीमा खाँसी के बाद लम्बी-लम्बी साँसों को संयत करते हुए बोली ''बाय सब पतौए... परि कैसें आबैगौ? जेब में कछु होयगौ तबई तौ आबैगौ... शराब पीवे और सटटौ लगायवे ते फुरसत मिलै तबई तौ...?"
उसने पल भर में पति को गालियों के साथ न जाने क्या-क्या भला-बुरा कह डाला। उस बूढ़ी ने जैसे उसके अन्दर पति के लिए सुलगती चिंगारी को हवा दे डाली थी। रिहाना के ताऊ शमशुद्दीन के डाँटनें पर ही वह शान्त हुई। किन्तु उसके होंठ देर तक कुछ बड़बड़ाते रहे। रिहाना की भाभी ने रिहाना के केशों को सँवार कर आँखों में काजल लगा दिया था। एकदम हरे रंग के कपड़ों में लिपटी रिहाना के लाली लगे होंठ कश्मीर की हरी वादी में खिले हुए किसी फूल की पंखुडी से दिखने लगे। चेहरे पर काजल लगी आँखें फूलों पर आ बैठे भँवरे सी दिखने लगी। पूरी तरह से सजी सँवरी रिहाना की झुकी हुई निगाहें उसे और सुन्दर बना रहीं थीं। माँ से रहा न गया तो उठकर एक काला टीका रिहाना के माथे पर लगा दिया कि बेटी को नजर न लग जाय। रिहाना इससे पूर्व इस दिन की कल्पना भी नहीं कर पाई थी। बाप की गैर जिम्मेदारी के कारण घर की जिम्मेदारियों के बोझ को ढोते-ढोते, उसे समय ही कहाँ मिला था, युवा सपने संजोने का। अब अचानक आये इस दिन न जाने कैसी-कैसी उथल-पुथल उसके भीतर हो रही थी। उसके हृदय की घड़कनें बढ़ी हुई थीं। साँसे तेज चल रही थीं। इसे उसके उरोजों के उत्थान-पतन से महसूस किया जा सकता था। कोई अनचाहा डर उसके भीतर वैचारिक भूचाल खड़ा कर रहा था। उसके मस्तिष्क पर रेखाएँ बन-बिगड़ रहीं थी। ''कैसा होगा वह घर...? कैसे लोग होंगे...? उसका दूल्हा कैसा होगा...?" वह अपनी माँ के पति की कल्पना मात्र से ही सिहर उठती है। फिर अचानक उसके होंठ हल्की मुस्कान में फैलने लगे मन में कुछ गुदगुदी के साथ नयी तरंगे तरंगित होने लगीं जो उसके लिए बिल्कुल अनौखी और अंजान थी। वह मन के भीतर कहीं इस नारकीय घर से दूर, सपनों के एक ऐसे घर की बुनियाद रख रही थी जहाँ उसकी जिन्दगी भी सहेली वसीमा और किरण जैसी होगी। उसके सुख-दुख का ध्यान रखने वाला उसका पति होगा। दूर-दूर तक कोई दुख नहीं होगा। माँ की खांसी तथा छोटी बहन के रोने के सम्वेत स्वरों ने उसकी चेतना भंग कर दी। उसकी नजर माँ पर आकर ठहर गयी। आँखे लबालब भरी किसी झील सी नजर आने लगीं। ''मम्मी तौ अब बैठिवेतेऊ परेसानै तौ जि इन बालकन्ने कैसैं समारैगी...? अब तौ बामै इतनी तागतिऊ नाँय बची कै बाबूए परे धकेलि कै खुदकूँ बचायले.... जि मर जाइगी... वैसैंऊ अकेलौ सलीम जा कुनबाए कब तक जियावैगौ?''
इन्हीं सब बातों को सोचते-सोचते उसकी आँखों का किनारा कहीं से टूट गया और पानी की बूँदें उसके गालों से लुढ़ककर उसके आंचल में दम तोड़ने लगीं। अचानक चार-पाँच स्त्री-पुरुषों के आते ही सब ऐसे सतर्क हो गए जैसे किसी मोर्चेबंदी पर हों। रिहाना को देखा जाने लगा ''बेटा जरा खड़ी हो जाना।" लड़के का बाप बोला। रिहाना खड़ी हो गई। ''जरा चलके तो दिखा।" लड़के की माँ ने पूरी तसल्ली कर ली कि वह लंगड़ी नहीं है। ''बेटा चेहरे से ये घूंघट हटा के जरा चेहरा ऊपर हमारी तरफ तो कर।" लड़के के दादा जी अपना चश्मा ठीक करते हुए बोले थे। इस सबसे रहीमा को परेशान होता देख लड़के का बाप कह उठा ''आप परेशान न हों ये सब तो होता ही है मट्टी का घड़ा भी ठोक-बजा के ही खरीदा जावै है।" आखिर में रिहाना उनको पसंद आ ही गई।
शाम धीरे-धीरे गहराने लगी थी। अब रहीमा कुछ चिन्तातुर लगने लगी थी उसकी मनः स्थिति ठीक नहीं थी। उसने अभी खाना भी नहीं खाया था। रिहाना ने माँ से कहा ''मम्मी तू रोटी खाइलै।" ''तू खाइलै मेरौ मन नांऐं।" रहीमा ने कहीं खोये हुए जबाब दिया। ''अब काऐ रोटी खाय चौं नाँय रई।" रिहाना ने जिद की तो रहीमा जैसे झल्ला पड़ीद ''मैं नाँय खाय रई मौय भूंख नाँय, तू खाय लै।" और उठकर कमरे से बाहर आ बैठी। दरअसल रहीमा बुन्दू को लेकर परेशान थी उसे पता था आज वह जान बूझकर सारा दिन घर नहीं आया है फिर जैसा भी है बुन्दू उसका पति है। इसलिए वह इस खुशी को पति के साथ बांटना भी चाहती है। अपने भीतर की इन सब बहसों के बाद भी वह रिहाना को इस सब का एहसास भी नहीं होने देने में पूरी तरह सफल दिख रही थी।
गलियों में रात का सन्नाटा फैलने लगा तब बुन्दू के साथ ही शराब की चिरपरिचत गन्ध ने घर में प्रवेश किया। रहीमा कुछ कहने को थी कि बुन्दू के लड़खड़ाते शब्द फूटे ''कर ले तू अपने मन की... वो... वो शादी करेगा मेरी लड़की की... मैं क्या मर गया हूँ... अरे मेरी लड़की है जब चाहूँगा तब करूँगा या कभी न करूँ वो कौन होता है... समझा, मेरी लड़की को बेचना चाहता है साला?... लड़की मेरी, पैसा तू गिनेगा... ये शादी नहीं हो सकती... तू सुन ले रांणी।" अन्तिम शब्दों के साथ ही उसने पत्नी को अपना फैसला सुनाया और एक कोने में जाकर पड़ गया। यह चीखना-चिल्लाना आज कुछ नया नहीं था। शराब के नशे में पत्नी या बेटी को पीटना और चिल्लाना उसके लिए आम बात थी। बहाना कोई भी हो, चाहे सब्जी में नमक कम हो या ज्यादा, पत्नी जल्दी सो गई या देर तक क्यों नहीं सोई...। ऐसा लगता है जैसे उधार लेकर जुए में हार जाने पर उधारी वालों की गाली-गलौच की पूरी खीझ वह यहाँ घर में आकर उतारता है। इससे गली के लोग परेशान भी होते हैं मगर कोई उसके मुँह नहीं लगना चाहता। बुन्दू के इस फैसले से रहीमा कुछ बुदबुदाती सी सिसकने लगी थी। रिहाना का तो सपनों का पूरा महल ही रेत की तरह बिखर गया। उसे लगा बुन्दू ने उसके शीशे के मन पर कोई पत्थर दे मारा हो और उसकी किरचें भीतर चुभकर रिसने लगी हैं। रिहाना अपने ही मन के किसी कोने में छटपटाने लगी। माँ की खाँसी की तरह उसके आँसुओं का भी कहीं अन्त नहीं हो रहा था। दिन भर की भूख ने इतना साहस भी नहीं छोड़ा था कि वह माँ को ढांढस बंधाती। वह साहस जुटा भी ले तो आखिर कहेगी क्या...? यह प्रश्न उसे भूख से कहीं ज्यादा अपाहिज किये हुये था क्योंकि भूख से लड़ने की ताकत तो उसको बचपन से ही मिल गई है। रिहाना जब पाँच साल की थी, रज्जाक को कूल्हे पर रखे घूमती रहती जब थक जाती और समझ लेती कि अब मम्मी ने रोटी पका ली होगी। वह घर आती। लेकिन जब कभी वह तरकारी और आटा फिंका हुआ देखती और बाप के हाथों माँ को पिटता देखती तब उसका मासूम मन यह तो नहीं समझ पाता था कि आखिर माँ का दोष क्या है? हाँ भूखे पेट करवटें बदलते आज ही की तरह रात काटने को मजबूर होना पड़ता था। रिहाना कमरे के बाहर पड़े छप्पर में रोज की तरह जमीन पर कुछा बिछा कर लेट गई। पास ही झूला हो चुकी चारपाई पर रहीमा आँखें मूंदे पड़ी थी। कभी-कभी उठती खाँसी उसके जगे होने का एहसास करा देती थी। कमरे के कोने से उठते बुन्दू के खर्राटों की आवाज दोनों को बैचेन कर रही थी।
रहीमा के पिता ने रहीमा की शादी बुन्दू के नाम कुछ एकड़ जमीन के टुकड़े को देखकर कर दी थी। जब कि उन्हें यह पता चल गया था कि बुन्दू काम-धाम तो कुछ नहीं करता सिवाय नेताओं की रैलियों और जुलूसों में घूमने और आवारागर्दी के। वहीं उसमें यह सब गन्दी आदतें भी पनपी हैं। फिर भी उन्होंने यह सोचकर शादी कर दी थी कि चलो नेतागिरी तो करता है तो कुछ इधर-उधर करके कमा लेगा फिर जमीन भी है... और शादी के बाद जब वजन आ जाएगा तो सुधर जाएगा। बिना दान-दहेज के अच्छा घर भी मिल गया है। किन्तु शादी के बाद ही शहर जा बसने की जिद करके अपने हिस्से की जमीन बेचकर वह शहर चला आया। जमीन का पैसा उसके बुरे कर्मों में कुछ दिन ही साथ दे पाया तब तक रहीमा के आँगन में रिहाना और रज्जाक के रूप में दो पुष्प महकने लगे थे। साथ ही उत्पन्न हुई थी बच्चों का पेट भरने और उनकी पढ़ाई-लिखाई के लिए खर्चे की समस्या रहीमा के रोज-रोज कहने और झगड़ने से तिलमिलाकर बुन्दू इन जिम्मेदारियों से और दूर भागने लगा। अब वह सुबह जो भी मिलता खाकर सुबह घर से निकलता और शाम को घर लौटता खाली हाथ लेकिन शराब पीकर। रहीमा दिन भर इन्तजार करती कि आज कुछ कमा लाएगा। शाम को बुन्दू को खाली हाथ देखती तो पड़ोसियों से कुछ माँग-मूँग कर कुछ पका लेती। रहीमा सोचती कि वह कमाता तो है तो क्या सब रुपयों की शराब पी आता है? रहीमा ने इस बात पर भी झगड़ना शुरु किया तो बुन्दू मारपीट पर उतारू हो आता ''मादरचोद तुझसे कुछ माँ गता हूँ?" मगर रहीमा का यह भ्रम भी जल्दी ही टूट गया जब कुछ उधारी माँ गने वाले घर तक पहुँचकर रहीमा को ताकने लगे तब से बुन्दू घर में भी देर रात को आने लगा कि कोई देख न ले। अब पड़ोसियों का भी सब्र टूट गया सो उनके दरवाजे भी रहीमा के लिए बन्द हो गये। रहीमा दोनों बच्चों की भूख से दुखी होकर पहली बार मजदूरी करने गयी थी। उस दिन शाम को घर की आवरू का हवाला देते हुए बुन्दू ने रहीमा को बहुत मारा था। इतनी पिटाई के बाद भी रहीमा ने अपनी कमाई के पैसों से दोनों बच्चों का पेट भरकर असीम शान्ति का अनुभव किया था। इसके बाद तो रहीमा की जैसे दिनचर्या ही बन गई थी कि सुबह से शाम तक हाड़तोड़ मेहनत के बाद पति की गाली-गलौज सुनना या पिटना ऊपर से पति की शारीरिक भूख को भी तृप्ति देना। रहीमा ने इसे अपनी नियती मान लिया था। मासूम रिहाना इन क्रियाकलापों को देखती और समझने को अपने दिमाग पर जोर डालती जब कुछ समझ नहीं पाती तो सो जाती मगर आज रिहाना की आँखों से नीद कोसों दूर है। रिहाना की हालत एक ऐसे निर्दोष कैदी की सी हो रही है जिसे, जेल से रिहाई की खबर के बाद अचानक पुनः जेल में सड़ने का आदेश सुना दिया हो। इसी बेचैनी में उसकी नजर अपने कुनबे से होती हुई अपने बाप पर पहुँची जो नशे में बेसुध सो रहा था। न जाने क्यूँ रिहाना को उसका चेहरा किसी सांप का सा नजर आने लगा। जिसके डर से उसका कुनबा कीड़े-मकोड़ों की तरह सिकुड़ा-सिमटा पड़ा है। दीये की मध्यम रोशनी में रिहाना को अपने पिता का चेहरा और ज्यादा डरावना दिखने लगा और उसने घबराकर आँखे बन्द कर लीं। वह कुछ अच्छा सोचना चाहती थी लेकिन, उसे बचपन की वह रात बार-बार याद आ रही थी। वह आठ वर्ष की थी, और सिर्फ इतना जान पाई थी कि पूरे रोजे रखने पर ईद पर नये कपड़े मिलते हैं। इसी तमन्ना में उसने पूरे तीस रोजे रखे थे। वह ईद की चाँद रात थी, जब रिहाना ने बाप से पहली बार कुछ बोलने की हिम्मत जुटाई थी ''बाबू मैंने पूरे रोजे रखे हैं ईद पै नए कपड़ा पहरुंगी।" ''ला हरामखोर पहले तुझे पोशाक पहना दूँ।" बाप की इस गाली के साथ उसे इतनी मार खानी पड़ी थी कि वह रात भर माँ के आंचल में मुँह छिपाये सिसकती रही थी। वह चाह कर भी बाप की तरफ देखने का साहस तब भी कहाँ जुटा पाई थी। उसके बचपन का वह डर घृणा में बदल गया था जब उसने इसी छोटे से कमरे में मेहनतकशी से टूटी हुई माँ के साथ अपने बाबू को जबरदस्ती करते देखा था। अपने पति के सामने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाती माँ कितनी बेबस नजर आती थी। रिहाना मूकदर्शक बनी उसे देखती रहती थी। कभी-कभी उसका मन करता था कि वह अपने बाबू को धक्का मारकर बाहर निकाल दे मगर, मन के कोने में बैठा डर उसे ऐसा करने से रोकता था। जब बड़ी होने लगी तो वह आत्म-ग्लानि से आँखे मूँद लेती थी किन्तु, पिता के हाँफने की आवाज और माँ की सुबकियाँ उसे देर तक विचलित करती रहती थीं। माँ को टी.बी. हो गई। भाई अपाहिज हुआ। इन्हीं स्मृतियों में खोये-खोये ही न जाने कब उसकी आँख लग गई।
रिहाना की शादी टूटने के बाद, दिनभर मेहनत, सुबह शाम खाना पकाना, रात को माँ की लगातार खाँसी और उनींदी आँखों के अलावा बाप की निर्लज्जता के खर्राटे सुनते न जाने कब एक वर्ष बीत गया। इस एक साल में वैसे तो कुछ नहीं बदला, लेकिन रिहाना का चेहरा, अगले दस वर्षों के बराबर तरक्की कर चुका था। रिहाना अब उन औरतों की चर्चाओं का हिस्सा बन गई थी जो रेड लाइट एरिया की तरह, दोपहर में बन ठन कर बिना किसी काम के घरों के दरवाजों पर बैठी बतियाती रहती हैं। इन चर्चाओं में वे रिहाना के चरित्र को लेकर चटखारे भरती और गरामागरम बहसें करतीं। ऐसी बे सिर पैर की बातें जब रहीमा को सुनने को मिलतीं तो रहीमा का चेहरा अपाहिजपन से खिन्न हो उठता। रिहाना की बेचारगी उसके चेहरे को ढंक लेती उसको लगता उसके हृदय को कोयी मुटठी में दबाकर निचोड़ रहा है। लड़कों को जैसे कोई काम ही नहीं रह गया था सिवाय रिहाना पर नजरें गढ़ाने के। रिहाना को यह नजरें नोंचती सी लगतीं। रहीमा को कोसों तक कोयी रास्ता नजर नहीं आता कहाँ जाऊँ...? किसके पैर पकडूँ? किससे कहूँ ...? सोचते-सोचते रहीमा एक बार फिर रिहाना के ताऊ के घर पहुँची। यह सोचकर कि उनके पैर पकड़ लूँगी तो शायद उन्हें कुछ रहम आए।
शमशुद्दीन के पैर पकड़ कर रहीमा रो पड़ी थी ''मैं तौ औरतूँ पराई समजौ मेरौ काऐ परि जि तौ तुमारे खानदान की इज्जतै अबके कैसैऊ करौ...!" कहते-कहते वह खाँसने लगी और देर तक खाँसती रही। पत्नि के नाक-भौं सिकुड़े देखकर शमशुद्दीन खुलकर तो कुछ नहीं बोले ''चल-चल मैं देखुँगौ... तू जा।" रहीमा इतना सुनकर संतोष से भर गई थी।
शमशुद्दीन उन दिनों अपने छोटे बेटे की नौकरी को लेकर परेशान थे। उसे उन्होंने जैसे-तैसे दे दिलाकर हाईस्कूल पास करा दिया था। कद-काठी का ठीक था इसलिए फौज की भर्ती देखने गया था। वहाँ वह शारीरिक परीक्षा में तो पास हो गया मगर लिखित परीक्षा में औकात सामने आ गयी। अब शमशुद्दीन के पास न तो पैसा था रिश्वत देने को और न ही कोयी बड़ी सिफारिश, इसलिए घर बैठा बेटा उन्हें अपनी छाती पर रखा बोझ सा लग रहा था। अब शमशुद्दीन की भाग-दौड़ इसी के लिए हो रही थी कि कहीं छोटी-मोटी कैसी भी हो, सरकारी नौकरी लग जाय।। एक दिन शाम को शमशद्दीन खुश मगर किसी उधेड़बुन में घर पहुँचे ''हज्जो''! पत्नी को आवाज दी पत्नी पास आ गयी।
''आज एक रिश्तेदार मिले।"
''कौन से... ?" पत्नि ने बीच में ही बात काट दी
''तू नहीं जानती... और मैं भी नहीं जानता था... बातों-बातों में रिश्ता निकल आया।''
''तौ फिर... !" हज्जो की उत्सुकता बढ़ गयी।
''कह रहे थे जल निगम में जुगाड़ है नौकरी लगवा देंगे लेकिन... एक बात और कही ढंग से मेरी समझ में नहीं आयी....।"
''क्या... ? हज्जो की आँखें गोल-गोल फैल गयीं।
''कह रहे थे लड़कियाँ कम हो रही हैं। लड़के की शादी में दिक्कत आ रही है... फिर बोले कोयी लड़की हो तो मेरे लड़के की शादी करवा दो... तुम्हारे लड़के की नौकरी तो समझो लग गयी।" शमशुद्दीन सब बातें एक साँस में बोल गये।
''शादी कहाँ से करवा दें...?" हज्जो परेशान होकर बोली।
''अपनी रिहाना से करवा देते हैं... उस पर ऐहसान भी हो जायेगा और अपना भी काम...।" शमशुद्दीन की इस बात से दोनों के चेहरों पर एक साथ मुस्कान तैर गयी। शमशुद्दीन तो जैसे वहीं से सारी बातें पक्की करके ही आये थे। वे तो बस हज्जो के मन की बात जानना चाह रहे थे। दूसरे ही दिन रहीमा को भी शादी की दिन तारीख बता दी गई। यह सब इतना गुपचुप हुआ था कि बुन्दू को खबर न लग जाय। इस बार शमशुद्दीन रिहाना की शादी का टल जाना नहीं चाह रहे थे। क्योंकि शादी में ही बेटे की नौकरी छिपी थी। उन्होंने रिहाना की शादी की तैयारी अपने घर पर पूरी करवाई। शादी से दो दिन पहले रहीमा अपने कुनबे के साथ शमशुद्दीन के घर आ गयी थी। अब बुन्दू भी कुछ नहीं कर पा रहा था।
सुबह से ही परिवारीजन बारात आगमन की तैयारियों में व्यस्त थे। रहीमा, शमशुद्दीन और उनकी पत्नी हज्जो की तारीफें करते नहीं थक रही थी। उसके लिए तो शमशुद्दीन अल्लाह का भेजा फरिश्ता बन गये थे। बुन्दू उदासी का आवरण ओढ़े थके कदमों से इधर-उधर घूम रहा था। आज वह नशे में नहीं था। वह लोगों से नजरें चुराना चाह रहा था कि लोग उससे उसकी उदासी का कारण न पूछ बैठें। इसलिए अपनी उदासी को छुपाने के लाख प्रयासों के बाद भी उसकी सारी कोशिशें बेकार साबित हो रही थीं। अन्दर कमरे में बैठी तन्हा रिहाना युवा मन के पंख फैलाकर कल्पना लोक में उड़ रही थी। यहाँ उसे बाप के आतंक का कोयी डर नहीं था। वह पी मिलन से पूर्व सपनों के समुद्र में डूबक लगा रही थी ''अब मैंऊँ वसीमा की तरै मैंगे कपड़ा पैरकैं सजी-धजी कबऊ-कबऊ आऔ करुँगी। कोहनी तक चूड़ी और ऊँची ऐड़ी की सैंडिल मोयपेऊ होइगी।" युवा मन मचल रहा था उस अजनबी से मिलने को जो अपनी बाँहों में समेट लेगा उसके सम्पूर्ण अस्तित्व को और वह बचपन से अब तक की सारी पीड़ा एक पल में भुला देगा। ''मैं चैन की नींद सोउँगी और जगुंगी। मैं जब रूठ जाउँगी तो वु अपनी उँगरियन तै मेरी ठोड़ी पकरिकै ऊपर उठाय कै मोय मनावैगौ।" यहाँ उसने हमेशा छोटे भाई-बहनों को मनाया ही था, अगर वह कभी रूठी, तो उसे किसी ने मनाया हो उसे याद नहीं पड़ता। बचपन में बाल हठ में रूठने पर दिन भर काम में भूखी लगी रहने के बाद उसके भूखे पेट की टीस ही उसे मान जाने को मजबूर करती थी। रिहाना अचानक रूँआसी हो गयी जब उसकी नजर धौंकनी सी चलती साँसों को नियंत्रित करने का असफल प्रयास करती माँ पर पड़ी जो ढाई वर्षीय बच्ची को चुप करने की कोशिश में थी। रिहाना भी उस माँ के बड़े परिवार में से एक है। कभी-कभी वह सोचती थी कि अगर उसके भाई-बहन कम होते तो हमें यूँ भूखे पेट ठण्ड से ठिठुरकर रातें नहीं काटनी पड़तीं। और मम्मी भी इतनी जल्दी न बूढ़ी होती और न बीमारी होती। वह कर भी क्या सकती थी सोचने के अलावा... ?
बैंड-बाजों की आवाज पास आती गई और बारात आँगन में आ गयी। बारात देखने के लिए औरतें छत पर जाने लगी। रिहाना भी छत पर जा पहुँची अपने सपनों के राजकुमार को देखने। वह अवाक् रह गयी, एकदम जड़, जैसे पत्थर में तब्दील हो गई हो। उसकी नजर अपने से लगभग छह वर्ष उम्र में छोटे एक असुन्दर से लड़के पर थी जो घोड़े पर सवार उसे ब्याहने आया है। उसके चेहरे से बचपन की परत भी पूरी तरह से हठ नहीं पायी थी। बैण्ड बाजों की आवाज शान्त हो गयी। औरतें लड़कियाँ रिहाना को साथ लेकर नीचे आने लगी। रिहाना को लगा उसका एक-एक पैर सौ-सौ मन का हो गया है जो पूरी ताकत से उठ पा रहा है। उसका मन दहाड़े मारकर रोने को हो रहा था। आखिर भरे मन से ही सही निकाह हो गया। विदाई हो रही थी। रिहाना अपने अन्दर उठ रहे बबण्डर को रोक नहीं पा रही थी। आज वह जी भर रो लेना चाह रही थी। उसके धैर्य का बाँध टूट चुका था। उसकी आँखों से जैसे झरना फूट पड़ा था जिसमें उसके सारे सपने बह रहे थे। रिहाना का दुख जैसे सबकी आँखों में आँसू बनकर उतर आया था। हृदय द्रवित हो रहे थे।
रिहाना रोते हुए अपने बाबू को पुकार रही थी। वह अपने बाबू से शिकायत करना चाहती थी अपने भविष्य की जिन्दगी के साथ हुए इन्साफ की। वह बाबू को अपने आँसू पौंछने को बुला रही थी। सभी ने बुन्दू को रिहाना के पास जाने को कहा मगर वह साहस नहीं जुटा पा रहा था रिहाना को गले लगाने का। बुन्दू गली के छोर पर खड़ा भरी आँखों से कुछ बड़बड़ाता सा दूर जाती रिहाना को देखता रहा था।
अपने भाग्य पर कुदरत की एक और चोट समझकर रिहाना नये घर में खुद को खुश रखने के पूरे प्रयास में जुट गयी। वह अपनी स्मृति में बीते जीवन की एक भी छाया नहीं रहने देना चाहती थी। बहुत जल्दी ही उसने अपनी मेहनत और प्रेम से घर वालों का दिल भी जीत लिया और वह खुश रहने लगी। जैसे उसे जन्नत मिल गई किन्तु उसका यह मिथक जल्दी ही टूट गया जब एक रात उसका पति शराब के नशे में घर लौटा। रिहाना का कलेजा धक से रह गया। वह कुछ समझ पाती कि वह किसी बहसी की तरह उस पर टूट पड़ा। रिहाना के प्रतिरोध करने पर उसने एक थप्पड़ रिहाना के मुँह पर जड़ दिया और जोर जबरदस्ती के बाद ठण्डा होकर सो गया। रिहाना देर तक बैठी फफकती रही। सोते हुए पति में उसे अपने बाप की शक्ल दिखाई देने लगी। उसके बाद तो जैसे यह रोज का क्रम ही बनने लगा। वह किसी से शिकायत भी नहीं कर सकती थी पति की धमकी के कारण उसने पहले ही दिन कह दिया था ''किसी से शिकायत की तो बोटी-बोटी कर दूँगा।" एक दिन रोटी लेकर जाते समय रिहाना ने अपनी सास को अपने पति से कहते सुना ''देख रहे हो कल वह टी.बी. का स्टेपलाइजर बेचकर रात को भी पीकर आया था।" शराब पीकर आने की तो वह जान गई थी घर चीजें बेचकर पीता है यह सुनते ही रिहाना के पैरों तले की जमीन खिसकने लगी। उसका दिल धड़धड़ाकर बाहर आने को हुआ। पूरे दिन किसी भी काम में उसका मन नहीं लगा। शाम को रिहाना का ससुर अपने पुत्र को डाँट रहा था ''अगर तू अपनी हरकतों से अब भी बाज नहीं आया तो इस घर में तेरे लिए कोयी जगह नहीं है।" उसने चेतावनी दी थी। रिहाना का पति प्रतिवाद कर रहा था ''घर में से मेरा हिस्सा मुझे दे दो चला जाऊँगा।" किवाड़ की आड़ में खड़ी रिहाना यह सब एक बेबस प्रतिमा की भाँति सुन व देख रही थी। उसके हाथ-पैर जैसे निर्जीव होते जा रहे थे। उसे अपना अतीत अट्टाहास करता महसूस हो रहा था। अचानक रिहाना का चेहरा पथराने लगा जैसे उसने कोई फैसला किया हो। दूसरे दिन वह माँ की याद आने का बहाना बनाकर मायके आ गयी। रिहाना का पति रिहाना को बुलाने आया तो रिहाना ने जाने को मना कर दिया। कुछ दिनों के बाद रिहाना का ससुर कुछ अन्य लोगों के साथ, रिहाना को समझा बुझाकर वापस बुलाने आया, तब भी रिहाना ने साफ मना कर दिया। सभी ने उसे समझाया भी किन्तु उसने अपनी हठ नहीं छोड़ी। रिहाना के आँगन में यहाँ-वहाँ के लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। सौ लोग सौ-बातें वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। सभी रिहाना से ससुराल न जाने का कारण जानना चाह रहे थे। उसे मजबूर किया तो रिहाना फफक कर रो पड़ी जो अब तक सिर झुकाये सिमटी बैठी थी। अचानक रोते-रोते जैसे चीखी थी वह ''बस... अब एक और रिहाना नहीं।" इतना कहा उसने और रोती हुई वापस बुन्दू के कुनबे में समाहित हो गयी।

रोजा

रोजा
एम हनीफ मदार 
 
 

 पाक रमजान माह का दसवां रोजा था, मैंने रोजा नहीं रखा था। जबकि मैं जानता था कि दुनिया के हर मुसलमाँ को रोजा रखना फर्ज है। ऐसी धार्मिक मान्यताऐं भी हैं। साल के बारह महीनों में से एक महीना खुदा की इबादत के लिए तया है। इस्लाम में इस महीने को नेकियों का महीना भी कहते हैं। इसलिए रोजे के लिए कुछ सिद्धान्त (उसूल) भी तय हैं उनकी पूर्ति के साथ रोजा रखना ही अल्लाह की सच्ची इबादत है। रोजा रखने के लिए दृढ़ निश्चय करना होता है कि मैं झूठ नहीं बोलूँगा, किसी को गाली नहीं दूँगा, किसी की चुगली या कोई ऐसा काम नहीं करूँगा, जिससे किसी को कोई भी पेरशानी हो, मैं केवल तेरी (खुदा) की इबादत करूँगा। नमाज एवं कुरान पढ़ने के साथ-साथ दुनिया की भलाई को दुआ करूँगा इसके साथ-साथ अपने तमाम शौक जलपान आदि के त्याग का नाम रोजा है।
 
मैंने एक बार रोजा रखा था। सुबह की नमाज घर पर ही अता की और काम पर आ गया यहाँ आकर मुझे बिजनेस के दृष्टिगत कुछ लोगों से एकदम झूठ बोलना पड़ा, सफेद झूठ। मेरे हृदय से एक आवाज उठी कि तूने रोजा तोड़ दिया और मुझे अपने ऊपर एक बोझ सा प्रतीत होने लगा मैंने अपने को और संयमित किया और रोजा बरकरार रखा अभी दोपहर नहीं हो पाया था कि मेरी जुबान से एक आध भद्दा शब्द भी फिसल गया जो बातचीत के बीच में आजकल हवा में तैरते रहते हैं साँसों के साथ अन्दर जाते हैं और जुबान के द्वारा बाहर आकर फिर हवा में तैरने लगते हैं। ऑफिस में कुछ मित्रों के साथ वार्ता में कुछ अच्छे बुरे विचारों का आदान-प्रदान भी मेरे न चाहते हुए हो गया उन्हें मैं चाहकर भी न रोक पाया क्योंकि वही मेरे मित्र ग्राहक भी थे जिनसे मेरी जीविका चलती है। अतः शाम होते-होते कितनी बार मेरा रोजा खण्डित हुआ। दिनभर की भूख-प्यास से ज्यादा कितनी ही दफा रोजा टूटने एवं खुद एवं खुदा को धोखा देने की टीस ने मुझे तोड़ कर रख दिया। मैंने बुझे मन से रोजा खोला। मुझे लगा कि मैंने रमजान नहीं रखा बल्कि, बहुत बड़ा गुनाह किया है। मैंने रोजा नहीं रखा अपितु दिखावा किया है। रोजे का ढोंग किया है। तबसे मैं रोजा नहीं रखता और तभी से मैंने रमजान में कहीं भी जाना बन्द कर दिया था, क्योंकि बिना रमजान रखे कहीं भी किसी रिश्तेदार के यहाँ जाना मानो पुलिस रिमाण्ड पर जाना हो, यही सुनने को मिलेगा रोजा जरूर रखा करो। खुदा को मत भूलो। हर मुसलमान को रोजा रखना जरूरी है। तुम्हें शर्म नहीं आती, पलभर में चेहरे की हवाइयाँ उड़ा देना बस इसी डर से मैं रमजान के महीने में किसी भी मुस्लिम संबधी के यहाँ नहीं जाता। दुर्भाग्य से उस दिन मुझे किसी अति आवश्यक कार्य से अपनी बहन के यहाँ जाना पड़ा। मैं डरा हुआ सा बस में जा बैठा बस धीर-धीरे स्थान छोड़ गंतव्य की ओेर बढ़ने लगी थी बस के इंजन की आवाज के साथ-साथ मेरा डर भी प्रखर होने लगा था। मुझे डर था रोजा न रखने का और मेरी मंजिल थी दूर शहर के मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र में मेरी बहन का घर। जबकि अम्मा ने मुझे सुबह सहरी के वक्त जगाया भी था कहा था आज तो रोजा रख ले बहन के यहाँ बिना रोजे से जाएगा तो लोग क्या कहेंगे ''परन्तु उस समय मैंने अम्मा की इस बेहद जरूरी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया था। अब मुझे अपनी मनाही के फैसले पर पश्चाताप भी हो रहा था। काश मैं आज तो रोजा रख ही लेता। गड्ढायुक्त सड़कों पर बस हिचकोले खा रही थी मुझे लगा किसी ने मुझे झकझोर कर कहा है हाँ आज के रोजे से वहाँ झूठा सम्मान तो मिल जाता क्या यह धोखा नहीं होता? मैंने जेब से तम्बाकूयुक्त जर्दा निकाला मुँह में डालता कि पीछे से आवाज उभरी ''भाई साहब बीड़ी मत पीयो मैं रोजे से हूँ" मुझसे तीसरी सीट पर बैठे हुए एक आदमी ने कहा था, बगल में बैठे हुए आदमी से जो बीड़ी पी रहा था सभी यात्रियों का ध्यान बरबस उस व्यक्ति की ओर चला गया जो रोजे से था, मुँह पर गमछा लपेटे हुए उसकी हल्की दाढ़ी के कुछ सफेद काले बाल गमछे से बाहर झाँक रहे थे। उसने बीड़ी फेंक दी और एक अपराधी की भांति सिमट कर बैठ गया, मेरे हाथ से जर्दा का पैकेट भी गिर चुका था, मुझे बस के सभी यात्री मेरी तरफ घूरते से प्रतीत हो रहे थे और जैसे मुझ पर झपटने वाले थे तूने रोजा नहीं रखा। क्यों? तम्बाकू के पैकेट को मैंने जूते से दबाकर छिपा लिया सामने अम्मा खड़ी थी, कहा था कि आज तो रोजा रख ले मैंने अम्मा के साथ खड़े इतने लोगों से नजरे बचाने के लिए अपनी आँखे मूँद लीं और सीट में मानो चिपक कर बैठ गया बस के झटके से मेरी तंद्रा टूटी, बस मेरी मंजिल पर अपने साथियों के बीच खड़ी थी। बैठे यात्री खड़े एक-दूसरे को धकियाते अपनी शीघ्रता का एहसास दिला रहे थे। मैं थके बैल की तरह ऐसा बैठा था, जिसे लाठियों के सहारे उठाया जाता है। दिल बैठा जा रहा था, सामने बहन का घर दिखाई दे रहा था। सहमें कदमों से घर में प्रवेश किया, हृदय में समाए भय का कुछ अंश होठों पर आकर सूख गया था। नैतिक अभिवादन के साथ ही ''आ जाओ क्यों तबियत ठीक नहीं है क्या?" बहन ने हमदर्दी दिखाई और खुद ही जबाब दे दिया ''हाँ, रमजान से होंगे" मैंने संकोच से नहीं में सिर हिला दिया। क्या? मानो बहन को गाली दी हो ''तुम रोजे से नहीं हो तुम तो पढ़े-लिखे हो, यहाँ देखो छोटे बच्चे से लेकर बुड्ढे तक सभी रोजा रखते हैं अभी शाम को देखना घर-घर से सबको बुलाते हुए एक भीड़ के रूप में सभी मस्जिद को जाऐंगे" मैं कुछ बोलता कि वह फिर समझाने लगी ''एक बात बताओ ग्यारह महीने कमाना खाना, भला-बुरा, झूठ-साँच न जाने क्या-क्या करते हैं अमानुष हो जाते हैं कम से कम इसी बहाने एक महीने इन्सान बनकर तो जी लेते हें अपने तमाम गुनाहों से तौबा तो कर लेते हैं तुम तो वह भी नहीं कर रहे हो।" मैं पैरों तले जमीन को पढ़ने की कोशिश कर रहा था इसके बाद हम दोनों घर परिवार की सलाहियत की चर्चा में घंटों व्यतीत करते रहे।

अब तक आसमान में पंछी भी समूह के रूप में अपने घोंसलों में वापस होने लगे थे। धूप पहले ही जा चुकी थी। मैं भी घर को वापस हो लिया, मैं वहाँ पूर्ण संध्या नहीं होने देना चाहता था क्योंकि अब तक मुझमें तमाम रोजेदारों का सामना कर पाने का सहस शेष नहीं रह गया था। मैं गली के नुक्कड़ पर ही था, सामने से भीड़ ने रास्ता बन्द कर रखा था। दो औरतें आपस में लड़ रहीं थीं। कारण जानने की उत्सुकता में मैं भी भीड़ में समा गया, कुछ बच्चे हाथ में प्लेटों में नमकीन कुछ कटे हुए फल लिए खड़े थे जो शायद मस्जिद जा रहे थे रोजा खोलने, गोल टोपी लगाए एक व्यक्ति दूसरे दाढ़ी वाले को बता रहा था ''ये नालायक तो है, जब वह नमाज पढ़ रही थी तो उसे क्या जरूरत थी इतनी तेज आवाज में टेप बजाने की मना किया तो लड़ने लगी। दोनों ओर से भयंकर भद्दी गालियों के बाण चल रहे थे जिन्हें सुन पाना मेरे लिए असंभव हो रहा था। गालियाँ क्या साक्षात अमानवीय अश्लीलता का बखान हो रहा था। दोनों अपने भद्दे शब्दों से एक दूसरी की बेटियों को नंगी कर रही थीं। वे दोनों रोजे से नहीं हैं, मैं इसी भ्रम में रहता यदि उनमें से एक ने न कहा होता... ''मैं रोजे से हूँ, नहीं तो तुझे पैर पर पैर रखकर चीर देती... कुतिया, ... बदजात।" इसलिए तो बची है तू कि मैं रोजे से हूँ नहीं तो... मेरे हाथ-पैर भी टूटे नहीं हैं... छिनाल...।" दूसरे ने पलटवार किया था। मेरा भ्रम टूटा... उन्हें याद था कि वे रोजे से हैं फिर भी झगड़े की पराकाष्ठा चरम छू गई और उन्होंने ''तू ऐसे नहीं मानेगी" कहते हुए अपने-अपने दुपट्टे अपनी लड़कियों को थमाए और एक-दूसरी से दो सांड़ों की भांति भिड़ गईं...। मूकदर्शक बना मुझे लगा उन्होंने, अपना रोजा टूटने के डर से अपने सिर से उतार कर अपनी बेटियों को पकड़ा दिया, जो खड़ी तमाशा देख रही थीं और खुद भिड़ गईं ताकि एक-दूसरे के बाल नोंचने तथा खून बहाने पर भी रोजा न टूटे...। अजान का स्वर गूंजा... भीड़ दौड़ी मानो रेड अलर्ट हुआ हो दोनों ने भी अपना-अपना रोजा सिर पर ओढ़ा ''तुझे रोजा खोलकर देखूँगी" कहती हुई अपने घरों में समा गईं... सन्नाटा... मैं स्तब्ध खड़ा रह गया, मेरा सम्पूर्ण भय न जाने कहाँ काफूर हो गया, सामने अम्मा खड़ी थी, नजरें झुकी, मैंने सगर्व कहा ''इनसे मैं तो फिर भी अच्छा हूँ जो खुद को या खुदा को धोखा नहीं देता।

पदचाप (कहानी )

पदचाप
एम हनीफ मदार 
 
 


        
 
     हाथ मुँह धोकर लाखन चाचा, छप्पर के ऊपर से फिसलकर आँगन में फैली थके सूरज की अंतिम किरणों में ठण्ड से सिंकने के खयाल से आ बैठे... और बैठे क्या लगभग पसर गये। थकान के बाद वैसे भी आदमी बैठ कहाँ पाता है। उनका शरीर भी थकान से पस्त हो रहा था। सुबह से ही खेत में अकेले लगे रहे थे। वैसे तो महीने भर से उनके दोनों बच्चे भी स्कूल जाना छोड़कर साथ ही लगे रहे हैं। लाखन चाचा तब इतने नहीं थकते थे। अब लाखन चाचा दोनों बच्चों के छमाही इम्तिहान भी तो नहीं छुड़ाना चाहते जो आज से ही शुरू हुए हैं मगर आलू की बुबाई भी पिछाई न रह जाए इसी चिंता में आज अकेले ही लगे रहे।

गाँव में लाखन चाचा को बुआई के लिए ट्रेक्टर भी कहाँ मिल पाता है, ट्रैक्टरों वाले बड़े किसान अच्छी तरह जानते हैं कि लाखन चाचा पर ट्रैक्टर का भाड़ा भी फसल तक उधार करना पड़ेगा। आलू खुदाई के बाद भी लाखन चाचा जैसे छोटे किसान आलू को कोल्डस्टोर में रखकर अच्छी कीमत का इन्तजार करें... या उसे बेचकर खाद, बीज और पानी का पैसा चुकाऐं...? ट्रैक्टर का किराया चुकाने को लाखन चाचा पर इस समय पैसा आयेगा कहाँ से...?
बीड़ी को अँगुलियों तक राख बना कर झाड़ देने के बाद लाखन चाचा ने वहीं लेटे-लेटे बड़े लड़के धीरज को आवाज दी। धीरज पुरानी पैन्ट कमीज पहने बाहर आया। लाखन चाचा ने धीरज के लिए ये कपड़े सर्दी शुरू होते ही पैंठ से पुराने कपड़ों के ढेर से खरीदे थे। धीरज ने खुश होकर इन्हीं कपड़ों को पहनकर दो-तीन रिश्तेदारों की शादियां भी की हैं। इन्हीं को पहनकर वह स्कूल भी चला जाता है। स्कूल में और बच्चे तो पूरी बांह की ऊनी जरसी पहन कर भी ठण्ड से सिरसिराते हैं लेकिन लाखन चाचा या उनके बच्चों की हड्डियाँ तो जैसे पत्थर की बनी हैं इसलिए इन्हें तो सर्दी लगती ही नहीं है। लाखन चाचा भी तो खालिस अद्धा बाँधे ऊपर से पुराना कुर्ता ही पहने जमीन पर टाट बिछा कर लेटे हैं। इनके पैरों के तलवों को भी इनकी गरीबी और बेबसी ने इतना कठोर और मजबूत बना दिया है कि जूते-चप्पल की जरूरत ही नहीं है, काँटे भी इनके पैरों में चुभने से मुँह मोड़ लेते हैं।
लाखन चाचा के पाँच में से बुढ़ापे की संतान के रूप में सबसे पीछे के दो बच्चे ही बचे हैं। तीन बचे नहीं या कहें लाखन चाचा बचा नहीं पाए। उन्होंने तीनों को बीमारी से बचाने की कोशिश की तो खूब की मगर हर बार धनाभाव में बेबस हो गये। और तीनों बच्चे एक-एक कर चलते बने अब बड़ा धीरज और छोटा दीपक ही बचा है। धीरज लाखन चाचा के पास आ बैठा ''का ऐ चाचा?" लाखन चाचा ने एक और बीड़ी जला ली जैसे उनकी बूढ़ी हड्डियों को बीड़ी के धुँऐं से शाम की सर्दी में कुछ राहत मिल रही थी। ''तुमारे इंतियान कब खतम हुंगे?''
''अबई तौ आठ दिन लगिंगे चाचा। ''धीरज लाखन चाचा के शरीर से चिपककर गर्माहट महसूस करने लगा।
''लाला तीन-चार दिना कौ काम रह गयौ ऐ, खेत में... सब डौर बन जाते तौ पहलौ पानी लगि जातौ।" चाचा ने कश खींच कर नाक से धुआं बाहर उड़ेला।
''चाचा तुम ऊँ ट्रैक्टर ते चौं नाँय करवाय लेत, सब ट्रैक्टर ते करवाय रऐं।''
''बेटा हम छोटे किसानन कूँ ट्रैक्टर बारे कहाँ मिल्त ऐं!" लाखन चाचा के इस जबाव ने धीरज के मन में एक और सवाल खड़ा कर दिया। ''चाचा, भूदेव शास्त्री पै तौ हमतेऊ कम खेत ऐ फिर उनै तौ ट्रैक्टर मिल गयौ।" धीरज के उत्सुकता भरे मासूम सवाल से लाखन चाचा तनिक भी विचलित नहीं हुए। उन्होंने बड़ी आसानी से धीरज को बताया ''बेटा छोटे किसान जमीन ते नाँय जात ते होमें, छोटी जात तौ छोटौ आदमी और छोटौ किसान।" फीकी हँसी हँसते हुए लाखन चाचा ने इतना कहकर धीरज के छोटे दिमाग को तो परेशान होने से रोक लिया किन्तु खुद खेत में डौर बनाने के काम को तीन-चार दिन में ही पूरा करने की जुगत लड़ाते हुए सूरज को छिपते ही छप्पर के पीछे बने कमरे में आ गये। बाहर आँगन में रात उतर आयी।
दिन के ग्यारह बजे तक लाखन चाचा तीन-चार डौर ही बना पाए थे कि धीरज की अम्मा बदहवास सी दौड़ती खेत पर आयी। वह अपनी साँसों पर काबू पाते हुए अटकती सी बोली ''घर पै दो पुलिस बारे आए ऐं, और तुमें बुलाय रऐं।" पुलिस का नाम सुनते ही लाखन चाचा को धूप में भी कंपकंपी आ गयी। वे फावड़ा वहीं छोड़कर शंका-आशंकाओं से घिरे घबराते से घर पहुँचे। आँगन में बिछी चारपाई पर दो खाकी वर्दीधारी भूखे भेड़िये की तरह लाखन चाचा को ही ताक रहे थे। लाखन चाचा लगभग हाथ जोड़े सामने जा खड़े हुए। एक सिपाही गरजा ''तेरा ही नाम है लाखन?''
''हाँ साब" शब्द ही मुश्किल से फूट पाया लाखन चाचा के हलक से
''बाबूजी का बात है?"
''अभी पता लग जायेगा।" दूसरे सिपाही ने एक डायरी में लाखन चाचा का नाम लिखते हुए कहा। दूसरे सिपाही के शान्त होते ही पहला सिपाही बोल पड़ा ''तू खेत में बच्चों से काम करवाता है, तुझे पता नहीं सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में भी बाल श्रम पर प्रतिबंध लगा दिया है।''
लाखन चाचा पूरी बात तो नहीं समझ पाये, हाँ इतना जरूर समझ गये कि किसी सरकारी पचड़े में फंस गये हैं। मगर क्यों...? यह अभी तक उनकी समझ से परे था। वे इस पचड़े से बचने के लिए हकलाते से बोले ''नाँय साब मैं तो अकेलौई काम, बालक तौ पढ़वै जामें।"
दूसरा सिपाही सुनते ही भड़का ''झूठ बोलता है!" और उसने एक अखबार का पेज फैला दिया ''देख ये तेरा और तेरे बच्चों का ही फोटो है न जो खेत में काम कर रहें हैं, चल अब ज्यादा होशियारी मत दिखा, जल्दी से बच्चों के नाम बता।" लाखन चाचा को अखबार का पेज देखते ही याद आ गया। ये तो वही फोटो है जिसे तीन-चार दिन पहले मोटर साइकिल पर आए दो आदमी खेत पर से ही खींच कर ले गये थे। वे खुद को पत्रकार बता रहे थे। लाखन चाचा के भीतर की उथल-पुथल में वे सब बातें उभर कर ऊपर आ गयीं जो उन पत्रकारों से हुईं थीं। उनका दिमाग भी तेज दौड़ने लगा। ''बालक तब काम काँ कर रऐ वु तो मेरी रोटी लै कें खेत में गए और बैठे। उन आदमीन नेईं बच्चनकूं काम में लगाय कें फोटू खैंचौओ और जि कई के जातें तुमारो फायदा होगो। मैंनेऊँ जेई सोची के चलौ सरकार ते कछू बीज-फीजुई मिल जाइगौ।" बस यही सोचकर लाखन चाचा उनको वे सब बातें बताते रहे थे ''फसल के बखत पै हम इनकौ स्कूल छुड़वाय कें खेत में लगाय लैमे। एकाध महीना में काम खतम है जाय तौ फिर स्कूल भेजवे लगें। इन बालकन के स्कूल के मास्साबऊ तौ अपने खेत के काम कूँ पन्द्रह-पन्द्रह दिन की छुट्टी कर लेत ऐं।" किन्तु अब लाखन चाचा को अपने इस लालच पर बहुत गुस्सा आने लगा वे सिपाहियों के सामने गिड़गिड़ाने लगे ''साब ऐसी भूल नाँय होगी, अबके माफ कर देउ।''
''अब कुछ नहीं होगा जुर्माना तो भरना पड़ेगा।"
''पाँच सौ रुपये।" एक सिपाही ने फैसला सुना दिया।
पाँचसौ रुपये का नाम सुनकर लाखन चाचा के चेहरे पर सर्दी में भी पसीना चमकने लगा। ''पाँच सौ रुपया कांते लांगौ साब?''
''चल तेरे लिए सौ कम करे देते हैं।" पहले सिपाही ने हमदर्दी दिखाई। ''मगर आगे से ध्यान रहे ऐसी भूल ना हो।" इससे लाखन चाचा की गिड़गिड़हाट कम नहीं हुई ''बाबूजी मौपै तौ चारसौऊ नाँय!"
''तो जेल जाने को तैयार होजा।" दूसरे सिपाही ने कड़ककर कहा। जेल का नाम सुनते ही लाखन चाचा का दिमाग सुन्न होने लगा। उन्हें अपना उजाड़ होता खेत और भूखे बच्चों के चेहरे नजर आने लगे। धीरज की अम्मा ने उन्हें इशारे से अन्दर बुलाना चाहा जो छप्पर में घूंघट किये खड़ी थी। मगर लाखन चाचा को तो जैसे कुछ दिख ही नहीं रहा था। वे पूरे शरीर का साहस बटोरकर बोले ''साब एकाध दिन में दे दूँ तौ?" पहला सिपाही उठ खड़ा हुआ ''एकाध नहीं, हम कल आऐंगे, मगर कल यातो चार सौ... नहीं तो जेल, समझे।" दूसरे सिपाही ने सहमति में सिर हिलाया और दोनों चले गये।
लाखन चाचा को काटो तो खून नहीं, उनका माथा यह सोच-सोच फटने लगा कि ''सबेरे तक चार सौ आंगे कांते...? नाँय तो अब जा उमर में जेल जानौ पड़ेगौ, लोग न जाने कहा-कहा बातें करिंगे के लाखन ने न जाने का जुरम करौ ऐ।" ऐसी बातें उन्हें भीतर तक परेशान तो करने ही लगीं मगर इससे भी ज्यादा वे इस बात से बैचेन होने लगे कि सरकार कहती है कि बच्चों से काम मत करवाओ उन्हें पढ़ाओ, मगर गाँव के शास्त्री जी कहते हैं, ''लाखन इन्हें क्यूँ पढ़ा रहा है, नौकरी तौ कहीं है नहीं, इससे तो इन्हें मजदूरी करना सिखा... आखिर हमारे खेतों में काम कौन करेगा...? पढ़-लिख कर इनकी कमर नहीं लचेगी।" लाखन चाचा को तो समझ में ही नहीं आ रहा कि आखिर वे किसकी मानें। उन्होंने अपने दिमाग पर फिर से जोर डाला ''अगर शास्त्री जी की नाँय मानी तौ बीज बुआई कूँ पैसा नाँय मिलनौ... और अगर सरकार की नाँय मानी तौ जुरमानौ भुगतनौ पड़ैगौ।" दोनों ही तरफ से जान आफत में है। वे लगातार बीड़ी पर बीड़ी फूँकने लगे जैसे इसी से कोई समाधान निकलेगा।
जाति के हिसाब से उच्च वर्गीय इस किशनपुर गाँव के लिए एक तो लाखन चाचा का अकेला घर है निचली जाति का, ऊपर से अनपढ़ - जैसे कोढ़ में खाज।
सिपाही तो कब के चले गये मगर लाखन चाचा अपनी धुनामुनी में वहीं बैठे रह गये।
''अब मईं बैठे रहोगे या जा लंगकूँ आओगे?" लाखन की पत्नी ने आवाज दी जो पुलिस के जाते ही छप्पर में चूल्हे पर रोटियाँ पकाने में लगी थी।
''चौं तोय माँ को खाए जाय रौऐ?" लाखन चाचा ने वहीं बैठे-बैठे सारा गुस्सा पत्नी पर उड़ेल दिया।
''ठीक है मईं गढ़े रहौ।" पत्नी भी खीझ पड़ी।
अचानक लाखन चाचा उठे और सीधे शास्त्री जी के घर जा पहुँचे। शास्त्री जी भकाभक धोती-कुर्ता पहने हाथ में छड़ी लिए कहीं जाने को निकल ही रहे थे कि ''शास्त्री जी राधे-राधे !" सामने लाखन चाचा को देखकर एकदम ठिठक गये। उनकी दोनों भौंहें सिकुड़कर आपस में जुड़ गयीं। ''धत् तेरे की, सब शगुन का सत्यानाश कर दिया।" धीरे से उनके मुँह से निकला फिर भी लाखन चाचा ने सुन लिया सो थोड़ा सा झेंप गये अगले ही पल लाखन चाचा ने हिम्मत जुटाकर अपनी समस्या सुनाने को मुँह खोल ही दिया शास्त्री जी के सामने।
शास्त्री जी ने लाखन चाचा की परेशानी पूरे ध्यान से सुनी और गम्भीर हो कुर्सी पर बैठ गये ''हो तो सब जाएगा लाखन, तेरे घर पुलिस आऐगी भी नहीं... मगर तू हमारी माने तब ना।" उन्होंने लाखन चाचा को गौर से देखा और घूरते हुए बोले ''तुझसे कितनी बार कहा कि इस जमीन को हमें बेच दे और बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय मजदूरी में डाल।" शास्त्री जी शान्त हो गये फिर अपनी बड़ी और गोल-गोल अठन्नी सी आँखें फैलाकर बोले ''मैं तो कह रहा हूँ खेत बेचकर भी तीनों बाप-बेटे उसी में काम करते रहो अपना समझकर और मजदूरी भी मिलती रहेगी।"
लाखन चाचा फिर चकरा गये। ''शास्त्री जी पुलिस बारे तौ कै रऐें कै बच्चनते काम करायौ तौ जेल जाऔगे, और जुरमानौ अलग ते।''
''वो सब तू हम पर छोड़ दे और हमारी बात मान ले।" अब शास्त्री जी कुर्सी से उठकर लाखन चाचा के करीब आ गये - ''वैसे भी गाँव में पाँचवीं तक का ही सरकारी स्कूल है, उसमें भी मास्टर कितने दिन पढ़ाने आते हैं। उसके बाद यहाँ कौन से बड़े कॉलेज रखे हैं जिसमें तू बच्चों को पढ़ाएगा।''
शास्त्री जी लाखन की पीठ थपथपाते हुए बाहर ले आए ''तू सोच ले और शाम को बता देना, मैं लौटते में तुझसे पूछता आऊँगा।''
शास्त्री जी के घर से लौटते हुए लाखन चाचा के अन्दर रास्ते भर मथनी सी चलती रही। वे अपने घर से शास्त्री के घर कितनी जल्दी पहुँच गये थे, मगर वापसी में उनका अपना घर उन्हें कोसों दूर लग रहा था।
लाखन चाचा छप्पर में पत्नी के पास सिर पकड़ कर जा बैठे। दोनों बच्चे आँगन में टाट पर बैठकर किताब पढ़ने में मस्त थे।
''कां चले गये?" पत्नी के सवाल ने जैसे उन्हें नींद से जगा दिया हो।
''शास्त्री के जौरे गयौओ।''
''का कई उन्नै?''
''वोई जो हमेश कैत रऐं।" लाखन चाचा के शब्द निराशा में डूबे थे। ''तुमने का सोची ऐ?''
''मैरो तौ दिमाकुई काम नाँय कर रौ।" लाखन चाचा हथियार डालने की मुद्रा में आ गये।
''तूई बता का करैं?''
पत्नी जो तब से लगातार सोच रही थी अब उसे कहने का मौका मिला था - ''मैं तौ जे कहूँ कै कल जब पुलिस बारे आमें तो उन्ते जि पूछौ कै चौं साब हम किसानन कूँ सरकारी नौकरी या काऊ कम्पिनी बारेन की तरै बुढ़ापे में कोई पैन्सिल (पैन्शन) या हारी-बीमारी कूँ सरकार ते पइसा टका की कोई मदद तौ मिलै नाँय। हमारौ सहारौ तौ जि बालकई ऐं, अब खेत में काम जे नाँय करिंगे तौ कौ करैगौ। अब वु अपने खेत में काम कर रऐं तौ जुरमानौ कायेकौ?''
''बा... री... बा, मैं उन्ते जबान और चलाऊँ सो वे मोय पीटैं।" लाखन चाचा ने खीझकर खींसे निंपोरी।
''चौं पीटिंगे, का अपनी बात कैवौऊ कोई जुरमें...?" पत्नी तिलमिला उठी ''हमारी बात तौ उन्नै सुन्नी ई पड़ैगी।''
''तू जादा वकील भई ऐ, तौ तूई करि लियो बात।''
''हाँ-हाँ मैं करि लुंगी, तुम चूड़ी पैरि कैं भीतर बैठ जाऔ।''
लाखन की पत्नी लाखन चाचा के भीतर कुछ जगाना चाह रही थी, शाम भी हो चली थी, सूरज लाखन की पत्नी के चेहरे की तरह तमतमा कर लाल हो गया था फिर धीरे से सरक कर गाँव के उस पार कहीं छिप गया।
''लाखन ...!" आँगन में खड़े शास्त्री ने आवाज लगाई। लाखन चाचा हड़बड़ा गये। वे अब शास्त्री से क्या कहें। उनकी जुबान तो जैसे तालू में ही चिपक गई। पत्नी लाखन चाचा की स्थिति की भांप गयी और घूंघट निकाले छप्पर से बाहर निकली, सिर झुकाए बोली ''शास्त्री काका, हम अपनौं खेत नाँय बेच रऐे... और बालकऊ पढ़िंगें... जितनैऊ पढ़ि जाँय, कम ते कम अपनी बात कैवौ तौ सीखिई जांगे।" इतना कहकर लाखन की पत्नी ने शास्त्री के सामने हाथ जोड़ दिये। लाखन चाचा को लगा शास्त्री भड़क जाऐंगे मगर शास्त्री जी तो भौंचक थे।
''ठीक है भाई।" जाते हुए बस इतना ही कह पाए वे। आँगन में दोनों बच्चे कूदने लगे। लाखन चाचा रात भर अपनी निरीह कायरता पर खीझते रहे। सुबह पुलिस वालों के सामने लाखन चाचा झुककर हाथ जोड़े नहीं, हाथ में फावड़ा लिए तन कर खड़े थे।

दूसरा पड़ाव (कहानी )

      

                                            दूसरा पड़ाव 

                                       एम० हनीफ मदार 

          जब भी उसकी आँखों को देखता तो उनमें डूब जाने को वेकल होने लगता। और सिर्फ मेरे साथ ही ऐसा नहीं होता बल्कि उन आँखों को जो भी देखता होगा निश्चित ही उसका यही हाल होता होगा, यह बात मैं इतने आत्म-विश्वास से इसलिए कह सकता हूँ कि मुझे उसकी आँखें महज आँखें नहीं कोई झील लगती थीं। जिसकी अतल गहराईयों में उतर कर कोई भी इन्सान थाह लेने को वेकल हो ही जायेगा। उसकी आँखें उस खारे पानी से लवालव रहती थीं जिस खारेपन को दुनिया भर के दीवाने अपने होठों से सोखने की कल्पनायें दिन-रात करते रहे हैं या यूँ कहूँ कि उसकी आँखों का पानी सूखा नहीं था। उसकी आखों में मुझे न जाने क्यूँ एक प्रणय निवेदन सा दिखाई देता था। ऐसा मेरे सामने ही होता था या किसी के लिए भी यही दिखता हो इसे मैं पूरे विश्वास के साथ कह नहीं सकता हूँ। लड़कियों की आँखें बचपन से ही मेरी कमजोरी रही हैं। उस वक्त मेरी उम्र शायद दस या बारह वर्ष रही होगी तब भी पड़ोस की एक मैली, कुचैली, लड़की की आँखों में मुझे प्रणय निवेदन दिखता था। यह आदत मुझमें तब से आज तक बनी हुई है। किन्तु मुझे एक संतोष भी है कि मैं केवल आखों में ही झाँकता हूँ वरना...। मैं ऐसा इसलिए भी करता हूँ कि इन्सान का दिमाग प्रोग्राम बनाने का काम करता है तो उसकी आखें सम्पूर्ण स्क्रीन का। सच कहूँ तो इन्सानी शरीर में आँखें ही ऐसा ऊतक हैं जो कभी सच का दामन नहीं छोड़तीं। शब्दों से या क्रिया-कलापों से इन्सान अपनी अंतरंग स्थितियों को छुपाने का लाख प्रयत्न करे किन्तु ये आखें उस सच को दिखाने की ईमानदारी से दूर नहीं होती। सच इतना ताकतवर भी होता है कि आदमी आखों से डर भी जाता है क्योंकि भीतर का सच केवल आँखों में ही होता है। इसलिए मैं आँखों में झाकना नहीं छोड़ पाया। हाँ तो मैं कह रहा था उसकी आखों में प्रणय निवेदन दिखने की बात किन्तु समझ नहीं पाता था कि क्या यह वाकई मेरे प्रति ऐसा कुछ है...? या उसकी कोई मर्मान्तक पीड़ा जो आखों के रास्ते निकलना चाहती है। मैं सोचता एक हफ्ते पहले ही तो उसने हमारी कम्पनी को ज्वाइन किया है और वह मेरे सामने वाली टेबिल पर बैठती भर है। और इस हफ्ते भर में मेरी उससे सुबह-शाम हलो-हाय के अलावा कोई बातचीत भी नहीं हुई है फिर एक दम से मेरे प्रति ऐसा होना नितान्त असंभव है।
कितनी वार मन हुआ कि उससे बात की जाय... लेकिन साली यह नौकरी इसे पाने की स्थितियों को सोचकर ही कलेजा मुँह को आता है...। हाँ! कल तो हाफ डे है कल तो जरूर इससे बातचीत हो पायेगी। मैं यह सब सोच ही रहा था कि एक घुँघुँरूओं सा बजता मधुर स्वर मेरे कानों से टकराया ''राकेश सर आज रात तक काम करने का इरादा है क्या? जाना नहीं है...?" यह आवाज उसी की थी मिस शालिनी की जो मेरे सामने वाली टेबिल से उठकर अपना पर्स कंधे पर लटकाती बोल रही थी। मैने तुरन्त खुद को सहज करने की सफल-असफल सी कोशिश की ''हाँ... न... निकलुँगा।" जाने मुझे क्या हो गया था। वह हल्की सी ऐसे मुस्कराई जैसे उसने मेरी सम्पूर्ण मनः स्थिति को मेरी आँखों में देख लिया हो। वह मुड़कर चली गयी। मुझे एक और अजीब सी उलझन में फंसा कर। मैं उसे एक टक जाता देखता रहा। जब कि वह तो आँखों से कभी की ओझल हो गयी थी। अब मेरी आँखों के सामने मेरा ही मन मस्तिष्क उसकी अपनी-अपनी तस्वीर बना बिगाड़ रहे थे जैसे उनमें एक प्रतिस्पर्धा हो रही थी। मुझे उन तस्वीरों में से किसी एक को चुनना था। मैं अजीब संकट की स्थिति में खुद को कोस रहा था कि ले बेटा किसी की आँखों में झाकने की सजा यह है। मगर भला हो ऑफिस की उस घड़ी का जो छह बजते ही टन-टन करने लगी और मैं उस दिल और दिमाग के झगड़े से मुक्त होकर घर तो पहुँच गया।
लेकिन घर पहुँच कर भी मैं भारी तनाव महसूस कर रहा था। एक अजीब विचलन की स्थिति में था जिसे नौकरी लगने के बाद पिछले पाँच सालों में पहली बार देख रहा था। जबकि ऑफिस से निकलते ही मैं खुद को बहुत हल्का पाता था। घर आते ही सुन्दर पत्नी का चेहरा देखते ही आफिस की सारी थकान कपड़ों के साथ उतार कर हैंगर पर लटका देता था। लेकिन उस दिन ऐसा नहीं हो पाया था। जबकि पत्नी और दिनों से ज्यादा खुश दिख रही थी। मुझे प्राण वायु देने वाली उसकी मुस्कान मुझे छू भी नहीं पा रही थी। मैं जैसे शालिनी के मुँह से निकली मधुर आवाज के शब्द वाण से मूर्छित सा हो रहा था। अब मैं, शायद मैं नहीं रह गया था एक जंग का मैदान बन गया था जहाँ मेरा मन और मस्तिष्क बार-बार आपस में गुथ रहे थे। 'वह दो वर्षों में ही यहाँ तीसरी जगह नौकरी क्यों कर रही है...? और नौकरी भी अलग-अलग शहरों में...? अगर सब ठीक ठाक है तो उसकी आँखें...? अगर कोई समस्या है तो उसका इतना खुश रहना...?' मेरे मन में उठते ऐसे ही अनेक सवालों ने मेरा दिमाग भारी कर रखा था। ऑफिस में और भी लड़कियाँ काम करती हैं, या इस टेबिल पर इससे पहले भी दो लड़कियाँ काम करती रहीं, वे तो इससे सुन्दर भी थीं, बातचीत भी खूब होती थी। उनके लिए तो मैंने कभी कुछ नहीं सोचा फिर इसके लिए ही मैं क्यों सोच-सोच कर परेशान हो रहा हूँ। यह सोचकर मैने उन तमाम सवालों को जब भी झटकना चाहा उसके साँवले चेहरे पर चमकती वही काली आँखें खुद में डूब जाने का निमंत्रण देती सामने आ खड़ी होती। लगता जैसे वे काजल के काले घेरे को तोड़कर कभी भी बाहर निकल आँयेगी और मुझे खुद में समा लेंगी। और मैं फिर उलझ जाता। पत्नी को सिर दर्द का बहाना बनाकर मैं न जाने कब सो पाया।
दूसरे दिन ऑफिस में दस बजे तक उसकी कुर्सी खाली थी। वह ऑफिस क्यों नहीं आयी यह बात किसी से पूछते हुये मुझे डर लग रहा था कि कोई यह न कह दे कि उसकी छुट्टी हो गयी है। बड़े सर अभी नहीं आये हैं, सोचकर में उनके आफिस में घुस गया और बायोडाटा वाली फाइल से उसका पता लेकर मैं बाहर आ गया। अगर बड़े सर आकर मुझे ऐसा करते देख लेते तो मेरे पाँच साल के रिकार्ड की मिट्टी-पलीद तो होती ही नौकरी से भी हाथ धोना पड़ सकता था। यह जानते हुए भी यह सब मैं न जाने क्यों कर रहा था। 'बी. 175, चन्दनबन फेस-2' एक नजर में ही बिना लिखे मेरे दिमाग में कम्प्यूटर की मैमोरी की तरह फीड हो गया था।
उस दिन भी शालिनी छुटटी पर थी। मैंने भी छुट्टी ले रखी थी घर के किसी काम से और असल बात कहूँ तो मैंने उस दिन खास उससे मिलने को ही छुट्टी ली थी। लगभग चार बजे का समय था मैं सोच रहा था कि वह घर में अकेली होगी। जब उसने दरवाजा खोला तो वह चूड़ीदार पायजामी और कुर्ता पर कमर में कसकर बांधे हुए दुपट्टे के साथ दिखी चेहरे पर पसीने की बूँदे चमक रही थीं उसकी तेज चलती साँसों से लगता था जैसे कहीं से दौड़कर आ रही है। तब उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी। किन्तु वह मुझे देखकर कुछ ऐसे सकपकाई जैसे कुछ अप्रत्याशित घटित हुआ हो। और था भी, क्योंकि मेरे इस तरह उसके घर पहुँचने की शायद उसे उम्मीद नहीं थी। होती भी कैसे पिछले तीन महीनों में मेरी उससे बात-चीत भी कितनी हो पाई थी। मैं खुद ही उसकी आँखों में बस डूबता उतराता रहा हूँ। उसे तो मैंने इस बात की भनक भी नहीं होने दी थी। हाँ यदा-कदा ऑफिस में साथ चाय जरूर पी ली थी। लेकिन तब भी वे बाते कहाँ कर पाया था जो मैं चाह रहा था। अब ऑफिस में, मैं कोई अकेला तो था नहीं कि मैं, और वह बस एक दूसरे के आगे पीछे ही घूमते रहें। इतने पर भी तो ऑफिस के कई लोग चुटकियां लेने लगे थे। मुझे इन बातों से बड़ी नफरत है इसलिए भी मैं आफिस में उससे ज्यादा बात नहीं कर पाया था। मैंने सोच लिया था कि अब छुट्टी लेकर ही बात बनेगी।
''सर आप...?"
''हाँ... आज छुट्टी पर था... और इधर एक काम से आया था... अचानक याद आया कि आज आप भी छुट्टी पर हैं सोचा आपसे मिलता चलूँ... । वैसे भी आपके बिना ऑफिस में मन नहीं लगता।" मेरी इस बात पर उसके चेहरे पर एक सहज मुस्कराहट उभरी थी हाँ लेकिन... उसके चेहरे पर उगी पसीने की बूँदें गहरा गई थीं।
उसी दिन उसने बताया था कि ''मैं रिहर्सल करा रही थी आज छुट्टी है तो थोड़ा जल्दी करा रही हूँ नहीं तो ऑफिस से आने के बाद शाम को करा पाती हूँ।"
''रिहर्सल... किसकी...?''
''नाटक की।''
सुनकर मैंने उसे ऐसे ताका जैसे उसने ठहरे हुए पानी में पत्थर मार दिया हो। नाटक और इस शहर में... मुझे उसकी बात पर विश्वास नहीं हो रहा था। होता भी कैसे पिछले पाँच सालों से इस शहर में मैं रह रहा हूँ लेकिन कोई नाटक तो क्या इस तरह की कोई चर्चा भी नहीं सुनी थी मैंने। हाँ इससे पहले स्टूडैण्ट लाइफ में दिल्ली में जरूर सैकड़ों नाटक देखे और सच कहूँ तो वहीं से मुझे पढ़ने की आदत लगी और कभी-कभी अखवारों में चिट्ठी लिखने का शौक भी। लेकिन नौकरी के बाद इस शहर में और फिर शादी के बाद तो जैसे सब बीते जमाने की बातें हो गई। फिर वह शाम को आफिस के बाद देर रात कैसे यह सब कर पाती होगी? मुझे उसकी बात कुछ अटपटी लगी तो मैने उसे और कुरेदना चाहा।
''... और तुम्हारे पति ...?'' इस सवाल पर वह न जाने क्यों एक दम से चुप हो गई और अगले ही पल ''मैं आपके लिए चाय लेकर आती हूँ।" कह कर उठ गई। मुझे उसकी यह चुप्पी सामान्य नहीं लगी थी। शायद उसे यह बात बुरी लगी जैसे कोई किताब झटके से बन्द हुई हो।
मेरे साथ चाय पीते हुए शालिनी ने अपनी चाय बड़ी जल्दी में खत्म की जबकि मैं चाय के साथ ही उसके बारे में बहुत कुछ जान लेने की मंशा में था। मुझे लगा आज वह बात करने के मूड में नहीं है। मैं अपनी शंका जाहिर करने को कुछ पूछता कि मेरा चाय का कप खाली होते ही उसी ने कहा ''सर... क्षमा करना, आज मैं आपको ज्यादा समय नहीं दे पा रही हूँ। ...हालाँकि मैं भी आपके साथ बैठना चाह रही थी। कुछ बातें करनी थीं।" उसने यह बात जितनी सहजता से कही थी मैं उतना ही असहज हो गया था। मन में आया कि कह दूँ कि अरे छोड़े अपने काम को बैठे तो हैं बातें कर ही लेते हैं लेकिन शिष्टाचार का ख्याल आते ही ''हाँ... हाँ कोई बात नहीं मैं भी आज तनिक जल्दी में ही था।" मेरे झूठ बोलते समय भी मेरी आँखें मेरे मन की सच्चाई के साथ उसकी आँखें में झाँक रहीं थीं। शालिनी उन्हें पढ़पाई थी या नहीं यह तो नहीं मालूम लेकिन कल शाम को बैठते हैं... ऑफिस के बाद... यहीं घर पर... वह बोलती जा रहीं थी। मेरी नसों में बहता खून और तेज दौड़ने लगा था या शायद जमता जा रहा था पता नहीं किन्तु मेरी आवाज नहीं निकल पा रही थी बस हाँ में सिर हिला पा रहा था। ''सर यदि आप बुरा न मानें तो कल शाम को मैं आपकी बाइक पर आपके साथ ही आ जाती हूँ। आपको आना तो है ही मुझे यहाँ तक लिफ्ट मिल जायेगी।" यह बात कहते हुए वह इतनी अनौपचारिक लगी थी जैसे हम एक-दूसरे को वर्षों से जानते हैं। या कहूँ केवल जानते ही नहीं बल्कि करीब से जुड़े हैं। उसकी इन बातों और उसकी आँखों के निवेदन ने मेरे रक्तचाप को इतना बड़ा दिया गोया कुछ और पल वहाँ रूकता तो शायद मेरे दिमाग की नसें फट पड़ती। रात में कई बार पत्नी ने मुझे छुआ तो कहा ''आपको तो बुखार है...।''
सुबह आफिस जाते समय मैंने हैलमैट लिया तो पत्नी ने अचम्भा किया ''आज हैलमैट की जरूरत क्यों आ पड़ी... आप तो कभी पहनते ही नहीं हैं।" ''हाँ आजकल चैकिंग चल रही है... इसलिए साथ ले जा रहा हूँ।" असल में यह कहकर मैंने पत्नी को बस समझाया भर था। वैसे यहाँ इस शहर में हैलमैट को पूछता कौन है। हाँ कुछ लोग जो हैलमैट पहनकर चलते हैं उसमें भी दो तरह के लोग हैं, पहले जो अपने जीवन के प्रति जागरूक हैं। दूसरे वे जो हैलमैट में अपना सिर छुपाकर आश्वस्त हो जाते हैं कि उन्हें कोई देख या पहचान नहीं सकता और फिर मस्ती से किसी के साथ किसी भी गली में आते जाते हैं। सच पूछो तो मैंने भी हैलमैट इसीलिए साथ लिया था कि शाम को शालिनी के साथ बाइक पर जाते हुए कोई पहचान न सके।
ऑफिस में शाम तक किसी काम में मन नहीं लगा। आठ घंटे का ऑफिस टाइम जैसे आठ वर्ष का हो गया हो। मैं अपनी मनोदशा को जाहिर न होने देने की इच्छा के चलते न जाने कितनी बार बाहर गया सिगरेट पीने। ऑफिस में हमें सिगरेट पीने की अनुमति नहीं है ऐसा रूल है हाँ बड़े सर अपने केबिन में बैठकर चाहें तो डिब्बियाँ खाली करें तब वह रूल केवल रबड़ की तरह मुड़कर रह जाता है टूटता नहीं है। बाहर बैठे बाबा चाय वाले को न जाने क्या मजा है कि कौन क्या सोच रहा है क्या कर रहा है उसे सबमें उँगली करनी। मैं हर बार सिगरेट के साथ चाय पीता इसलिए कि मैं उसकी आदत से वाकिफ था तो कही यह न सोचे कि आखिर मैं बार-बार क्यों बाहर आ जाता हूँ। लेकिन उसने मुझे टोक ही दिया राकेश सर आज आप कुछ परेशान से हैं क्या...? यह आपकी आज आठवीं चाय है। मैं अन्दर से कुछ सकपका सा गया। किन्तु बाहर से मैंने बनाबटी गुस्सा दिखाया जैसे मेरी कोई चोरी पकड़ ली हो 'क्यों आठ हों या दस तुझे पैसे से मतलब या कुछ और।? मेरी झिड़की से बह सहम गया और मोके का फायदा उठाकर अन्दर चला आया।
ठीक पाँच बजे मैं शालिनी को अपनी बाइक पर बिठाकर उसके घर को निकला। न जाने क्यों बाइक चलाते हुए मुझे लगने लगा कि हम ऑफिस से नहीं बल्कि कॉलेज से आ रहे हों। मोटर साइकिल भी अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ तेज चल रही थी। चलते-चलते ब्रेक लगाने पर शालिनी मुझसे टकराती तो लगता शालिनी मेरे साथ शरारत कर रही हो। हैलमैट लगे होने के कारण हम दोनों कोई बात नहीं कर पा रहे थे। शालिनी भी एक दम शान्त बैठी थी। उसने अपना दाहिना हाथ मेरे कन्धे पर रख लिया था। ब्रेक लगाने पर उसके हाथ का दबाब मेरे कंधे पर बढ़ जाता जो मुझे एक अजीब से सुख से तर कर जाता। इसलिए मैं जानबूझ कर बाइक को ऐसे भीड़ भरे इलाके से निकाल रहा था जहाँ बार-बार ब्रेक लगाने पढ़ रहे थे। मैंने एक कॉफी हाउस पर बाइक रोकी भी 'क्या हुआ सर...?'
''मैं सोच रहा था... एक कॉफी हो जाय... ?" मेरी बैचेनी बढ़ रही थी मैं किसी फिल्मी हीरो की तरह कॉफी टेबिल के इर्द-गिर्द बैठकर कुछ आत्मीय बाते कर उसे परख लेना चाह रहा था कि जैसे मैं उसके लिए सोच रहा हूँ वह भी मेरे लिए सोचती है। या मेरा भ्रम ही है। ''नहीं... घर पर ही करेंगें जो भी करना है। यहाँ बैठ गये तो देर हो जायेगी।" भले ही उसने कॉफी पीने से इनकार किया था। लेकिन मुझे जैसे आश्वस्त कर दिया था कि मैं जो सोच रहा हूँ वह उससे दो कदम आगे है।
दुकानों में जल उठी लाइटों की रोशनी दुकानों से बाहर सड़क तक पसरने लगी जो बारी-बारी मेरे मन में उठते विचारों की तरह आ जा रही थी। यह आधुनिक स्त्रियाँ हैं... इनसे प्रेम की उम्मीद करना तो बेमानी है। इनके लिए नित नये पुरूष बदलना एक खेल जैसा होता है। इस्तेमाल करना ही जानती हैं ये यह अलग बात है कि कई दफा ये खुद भी इस्तेमाल होती है, जैसे आज... तभी तो आसानी से कह दिया इसने कि जो भी करेंगें घर पर ही करेंगें शायद इसीलिए अकेली भी रहती है। मैं ऐसे ही सोचता विचारता उसके घर से आगे निकल जाता यदि वह नहीं टोकती ''अरे कहाँ जा रहे हो सर घर पीछे छूट गया।" मैंने मुरझाये से चहरे से बाइक रोकी। दरअसल मेरे मन में बना उसका एक प्रतिमान न जाने कब बाजार से यहाँ तक आते-आते मेरे मन से ढह गया था।
शालिनी के घर की सीढ़ियाँ चड़ते हुए उससे अकेले में मिलने की कल्पना भर से मेरे भीतर एक और पुरूष उठ खड़ा हो रहा था। सीढ़ियों पर मेरे आगे-आगे चलती वह, मुझे किसी ब्लू फिल्म की एक्टर लग रही थी। रोमाँ च से शायद मेरा चेहरा सुर्ख हो गया था।
शालिनी के साथ कमरे में प्रवेश करते ही एक वारगी मेरी आँखें खुद पर विश्वास नहीं कर पाईं। मेरे चेहरे की रंगत एक साथ कई बार बदली। वे रंग भी कई बार गये और आये जिन्हें मैं शालिनी की आँखों में झाँकने के पहले दिन से आज तक शालिनी की तस्वीर में भरता रहा था। मेरा मन हुआ कि मैं यहाँ से वापस भाग खड़ा होऊँ। जिस कमरे में, मैं कल अकेला शालिनी के साथ बैठा था वहाँ एक साथ कई जवान लड़के-लड़कियों के साथ एक अधेड़ को बैठा देखकर मैं इतना असहज हो गया जैसे मेरा अपराध खुल गया हो। मुझे लगा मैं बलि का बकरा बन गया हूँ। शालिनी सबके सामने मुझे अपमानित करेगी... लेकिन ये लोग हैं कौन...? शालिनी ने तो कभी किसी के विषय में बताया ही नहीं। पल भर में कई सवालों ने एक साथ फन उठाया और जवाब के अभाव में दम तोड़ दिया। मैं भी तो बिना कुछ सोचे समझे शालिनी को लेकर जाने क्या-क्या उल-जुलूल गणनायें करता रहा। एक बारगी मुझे खुद पर तेज गुस्सा आने लगा मन हुआ चीखकर अपने बाल नौंचने लगूं। मेरा दिमाग सुन्न हो गया था। इसी लिए मेरी आँखें खुली की खुली रह गयीं थीं। पलक ही नहीं झपका। शालिनी शायद मेरी स्थिति को भाँप गयी है यह सोचकर मैं अपने में और गढ़ा जा रहा था। लेकिन गनीमत रही कि शालिनी ने बड़ी सहजता से कहा
''आइये सर बैठिए... यह सब हमारी यूनिट के लोग हैं।"
''यूनिट... ?" मैंने सहज होने की प्रक्रिया में बैठते हुए पूछा।
''जी सर! मैं अभी आपका परिचय कराती हूँ।" शालिनी ने उस अधेड़ व्यक्ति से शुरूआत की ''आप हैं श्री जगदीश चन्द्र माथुर जी बी.वी.एन.ए. महाविद्यालय के लाइब्रेरियन। और ये इनके कॉलेज के स्टूडैन्ट।" सबने अपना-अपना नाम बता दिया। शालिनी ने मेरा परिचय भी खुद ही कराया ''आप मेरे ऑफिस में बड़े बाबू है, आप एक अच्छे इन्सान है और कभी-कभी लिखते भी हैं।" मैं सबके साथ बारी-बारी हाथ मिला रहा था किन्तु मेरी उलझन बड़ती जा रही थी। मैं परेशान था यह सोचकर कि शालिनी को यह कैसे जानकारी हो गयी कि मैं कभी लिखता भी रहा हूँ जब कि यह बात तो अब बहुत पुरानी हो गई लगभग आठ वर्ष हो जब मैं दिल्ली के जामिया में एम-कॉम कर रहा था। उस समय कभी कभार अखवारों या पत्रिकाओं को पढ़ने पर दोस्तों के साथ सहमति असहमति पर वहस हो जाती तो हम अखवारों या पत्रिकाओं में चिटठी लिख लिया करते थे। वह तो ऐसा साहित्य भी नहीं था कि उसे पढ़कर मेरे नाम से इसने मुझे पहचान लिया हो। फिर... मैं अपनी याददाश्त को और झकझोरता कि एक लड़की चाय लेकर आ गई और मेरा ध्यान चाय की तरफ चला गया। चाय हाथ में आते ही शालिनी ने कमरे में स्थापित हुए मौन को तोड़ते हुए मेरी आँखों में अपनी आँखें डाली ''सर हम सब मिलकर यहाँ एक रंग मंचीय संस्था की स्थापना कर रहे हैं।... और हम चाहते हैं कि आप हमारे साथ खड़े हों तो हम सबको अच्छा लगेगा।''
शालिनी की बात सुनकर मुझे एक अजीब झटका सा लगा। जैसे मैं कहीं ऊँचे से गिरा होऊँ... मेरा मन हुआ मैं ठठाकर हँस पड़ूँ। इस शहर में रंगमंच बड़ी बचकानी सी बात लगी मुझे। मैं बारी-बारी सबके चेहरे ऐसे देखने लगा जैसे वे सब मूर्ख हों। अंत में मेरी नजरें शालिनी की झील सी आँखों के गहरे समुद्र में डूबकर फंस गईं। उसका वह निवेदन लगातार गहराता जा रहा था। मैं उसके इस प्रस्ताव को ठुकराना चाहता था लेकिन न जाने क्या था उन आँखों में कि मैं बोल ही न सका। मेरी मूक सहमति समझकर शालिनी ने मुझे उकसाया।
''सर आप पिछले कई वर्षों से इस शहर में रह रहे हैं। आपका सर्किल भी बड़ा होगा। अपने कुछ सुझाव तो रखिए।" उसकी आँखों से निकलते ही मैं जैसे जमीन पर आया था। ''शालिनी मेरा लिखा तुमने ऐसा क्या पढ़ लिया जो बताया कि मैं लिखता रहा हूँ।" ''आप एक दिन आफिस में फोन पर अपने किसी दोस्त से बात कर रहे थे तब मैंने सुना था।" मुझे याद आ गया था विजय से बात हुई थी जो आगरा में रहता है। जामिया में हम दोनों साथ थे।
''शालिनी मैं पिछले पाँच वर्षो से इस शहर में हूँ। रोजाना के अखवार या लोकल चैनल शहर भर के धार्मिक अनुष्ठानों या साम्प्रदायिक तनाव की खबरों से भरे रहते है। जहाँ अपने-अपने धार्मिक कर्मकाण्डों को ही सांस्कृतिक क्रिया कलापों के रूप में जाना जाता हो। हिन्दू मुस्लिम जहाँ इक्कीसवी सदी में पहुँचकर भी इन्सानों जैसा व्यवहार न कर पा रहे हों वहाँ तुम्हारी यह कोशिश किसी चट्टान पर पेड़ उगाने जैसी नहीं लगती?" मैंने एक विराम लेकर सबके चेहरों को प्रतिक्रिया स्वरूप पढ़ना चाहा सबके चेहरों पर जैसे वर्फ पड़ गई हो हाँ लेकिन शालिनी हल्के से मुस्करा रही थी। देखकर मुझे पहली बार शालिनी पर खीझ हुई थी।
''तुम्हें मेरी बातें मजाक लग रही है ... शालिनी...?''
''ऐसी बात नहीं है सर, बल्कि मैं कहूँ कि यह सब जानकारी मुझे पहले से है और इसीलिए मैंने इस शहर को चुना है।''
''तुम कहना क्या चाहती हो...?''
''यही कि आपको नहीं लगता कि इसी शहर को कहीं ज्यादा जरूरत है ऐसे संगठन की...?''
''मुझे तो पिछले पाँच वर्षों से लगता रहा है। लेकिन उससे क्या...? मैं अकेला कर भी क्या सकता था?''
''तो फिर किसी न किसी को तो शुरूआत करनी ही होगी।" ''और अब तो तुम अकेले नहीं हो हम सब हैं।" बीच में ही मेरे सामने बैठा लड़का बोल पड़ा था।
''बिल्कुल सही गांधी ने जब अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद की तब वे भी अकेले ही थे... हालाँकि मैं गांधी नहीं हूँ किन्तु सोचें सर एक व्यक्ति पूरे देश को अपने पीछे कर सकता है तो क्या हम सब मिलकर एक शहर के चन्द लोगों को अपने साथ लाने का प्रयास नहीं कर सकते।''
शालिनी की इस बात पर सबने तालियां बजा दी जैसे वे सब पहले से इन सब बिन्दुओं पर एक मत थे बस मैं ही बचा था। और यह जिम्मा शालिनी पर था।
मैं तो पहले से ही उसके प्रभाव में था रही कसर उसकी बातों ने पूरी कर दी थी। ''शालिनी इतने लोगों को इकटठा करके एक बड़ा काम तो कर ही चुकी है। मैं हाँ करुँ या ना करुँ इस पर क्या फर्क पड़ेगा। फिर इस बहाने शालिनी का साथ तो बना ही रहेगा यह सोचकर मैं, न नहीं कर सका।''
हमारे बीच देर तक बहस होती रही। मेरी हर कोशिश शालिनी के इरादों के सामने पानी के बबूलों की तरह फूटती रही। ''सबसे पहले हमें करना क्या होगा?" मेरे इतना पूछते ही सब एक साथ जीत की मुद्रा में एक दूसरे के हाथ में हाथ देते हुए लगभग चीखे। मैं परेशान आखिर क्या हो गया।
''राकेश सर! आपने 'हम' शब्द का इस्तेमाल करके सब में एक नई ताकत भर दी है।" माथुरजी के स्पष्टीकरण से मेरे भीतर भी खुशी का एक ऐसा पटाखा फूटा लगा जैसे पाँच वर्षों से परिवार से अलग इस शहर में रहते-रहते मैं खुद को भी भूल चला था। तब अचानक, एक बड़े परिवार ने मुझे मनाकर गले लगा लिया हो। मेरी आँखों की कोरें शायद फूट पड़ती यदि मैंने अपनी पूरी ताकत से पानी के घूँटों की तरह खुद अपने अन्दर ही न सोख लिया होता। शायद मेरी आँखें मेरे भीतर के सच को छुपा नहीं पाई थीं। मेरे न चाहते हुए भी वे पानी में तैर गयीं थी शालिनी ने पूछ ही लिया ''क्या हुआ सर...?''
''मुझे अचम्भा हो रहा है कि इस शहर में इतनी आत्मीयता और प्रेम भी मौजूद है...।''
''हर शहर में होता है सर, शायद आपने कभी खोजा ही नहीं।" इस जवाब ने शालिनी को मेरी नजरों में बहुत बड़ा बना दिया था। मेरे भीतर अब तक की बनी उसकी तस्वीर की किरचें मेरे भीतर चुभ रहीं थीं जैसे मुझे सजा मिल रही हो।
हम शहर भर में नुक्कड़ नाटक करेंगें 'जागो रे' अन्त तक यह बात तय होते-होते शहर पूरी तरह रात के अंधेरे की गिरफ्त में आ चुका था। नाटक की रिहर्सल का समय तय होते ही सब जैसे पूर्ण तृप्त होकर घर से निकल रहे थे। लेकिन मेरे भीतर शालिनी को लेकर एक नया बीज अंकुरित हो गया था। इन बात-चीतों में मैंने कई दफा शालिनी के पैरों को देखा कोई निशानी नहीं थीं उसके शादी-शुदा होने की... तो क्या... मैं उसे...। मन में उठते विचार को मैंने हल्के से झटक दिया और चला आया था। मगर मैने देखा वह विचार झटका नहीं था बल्कि मेरे साथ ही चिपका रहा था।
रोजाना शाम को शालिनी के साथ उसके घर तक जाने के लालच में मैं रिहर्सल में शामिल होने लगा। इस बीच कभी ऑफिस से जल्दी निकल आते तो रास्ते में पड़ने वाले कॉफी हाउस पर चाय या कॉफी पीकर जरूर जाते। यह आग्रह मेरा ही होता था। इस बहाने हम नाटक के अलावा अन्य बातें भी करते। तभी मैं यह जान पाया था कि वह इलाहाबाद की रहने वाली है। वहीं उसने बताया था। 'इलाहाबाद में हमारे घर के पड़ोस में एक मैडम रहती थीं जहाँ मैं टयूशन पढ़ने जाती थी। उनके पास सहित्यिक किताबों का अम्बार रहता था। हँस, नया ज्ञानोदय, शेष, वर्तमान साहित्य जैसी अनेक पत्रिकायें मासिक रूप से उनके घर आती थीं। न जाने कब वहीं मुझे पढ़ने का शोक लगा। एक दिन, अखवार में उनका फोटो छपा देखकर मैं चौंकी थी और मैंने पूछा था। तब उन्होंने बताया कि मैं थियेटर भी करती हूँ। और लगातार कई दिन तक उसके विषय में बताती रहीं। मुझे उनकी बातें सुनकर अच्छा लगता था। उसके बाद मेरे कहने पर उन्होंने ही मुझे अपनी नाट्य संस्था से जुड़वाया था।' इन बातों के बीच में मैं कई दफा उसकी आँखों में झाँकता न जाने क्यों मैं जब भी उसको कुरेदने को कोई सवाल करता वह मुझे गोल-मोल घुमा देती कहती ''अब सब कुछ आज ही जान लोगे रिहर्सल का समय हो रहा है सब लोग इन्तजार करेंगे... शेष बातें फिर कभी।" मैं कहता ''शालिनी रिहर्सल की कभी छुट्टी भी कर दिया करो ...।" वह हँसते हुए कहती ''सर यह काम जले हुए कंडे की आग की तरह है जिसे लगातार हवा न दी गई तो उपर राख की परत जम जायेगी और न जाने कब ठंडी पड़ जाय... इस लिए जल्दी चलो।" फिर मेरे पास कोई जवाव नहीं रहता था।
रिहर्सल के बीच आपसी नौंक-झौंक, हँसी-मजाक, छेड़-छाड़ और शरारतों में मुझे भी आनन्द आने लगा था। नौकरी के बाद का मेरा ज्यादातर समय, शालिनी के साथ पढ़ने, बहस करने और नाटकों की तैयारियों में ही बीतने लगा था। जैसे मेरे लिए किसी हसीन राजमहल का दरवाजा खुल गया था और मैं उस राजकुमारी के सपनों का राजकुमार बन गया था। रिहर्सल के बाद या पहले मैं उसे छूता-छेड़ता और बाँहों में भर लेता रिर्हसल में फौजी कमाण्डर सी दिखती शालिनी ऐसे सिमट जाती जैसे उसका पूरा वजूद मेरी मुट्ठी में भर गया हो।
उस दिन रिहर्सल के बाद नाटक के पहले शो की तैयारियों में हम सब जुटे थे। मेरे साथ सब लोगों के लिए यह पहला अनुभव था। सब के भीतर उत्साहपूर्ण उथल-पुथल थी। क्या होगा...? कैसा होगा...? कब अंधेरा हो गया किसी को भी भान नहीं हुआ। अंधेरा होते ही लड़के-लड़कियों के घर से फोन आने शुरू हो गये थे। उस दिन वहाँ से जाने का किसी मन ही नहीं हो रहा था। वैसे तो सब ड्रैस, प्रॉपर्टी, मेकअप के सामान के साथ सबकी जिम्मेदारियाँ तय हो चुकी थीं। इस लिए शालिनी ने कह दिया था ''ठीक है तुम लोग निकल जाओ केवल कल के कार्यक्रम को लिस्ट-आउट करना है सो मैं और राकेश जी कर देगें।" काम कुछ ही देर में पूरा हो गया था उस दिन शालिनी खुशी और उत्तेजना से बेहद चहक रही थी। मैं जाने लगा तो वह कुछ उदास हुई। मैंने पूछा तो बोली ''खाना बनाती हूँ खाना खाकर चले जाना।''
''देर हो जायेगी...।''
''तो आज यहीं रूक जाना...।''
शायद मेरा मन भी यही था। मैंने घर फोन कर दिया आज ऑफिस में ऑडिट हो रहा है रात को आ न सकूँगा। बिनी किसी जबाब की प्रतीक्षा के मैंने फोन काटा था। उस रात बातें करते-करते शालिनी कितनी बार मोतियों की तरह विखरी थी और मैं हर बार उसे समेटकर अपने बजूद में समाता रहा था। सुबह तक शालिनी के विस्तर में कितनी ही सलबटें आ गई थीं। मैं अपराध बोध से ग्रसित था जबकि शालिनी और ज्यादा निर्मल और मुक्त दिख रही थी पुन्य-पाप के घेरे से एकदम मुक्त। उसी ने तो कहा था राकेश सर जो कुछ भी हुआ उसके लिए हम नहीं यह देह जिम्मेदार हैं और देह किसी भी पाप-पुन्य के घेरे में नहीं रह सकती। बल्कि उसको घेरे में कैद करने की मानसिकता में हम अपराध कर बैठते हैं। वह खिलखिला कर हँसी और लैटस गो ऑन शो कह कर काम में जुट गयी।
हालनगंज चौराहे पर हम सब इकटठे हो गये थे। दर्शक के रुप में चार-छै लोग ही हमें देखकर रुके थे। हालाँकि शालिनी ने सबको खूब हिम्मत दी थी लेकिन सभी शर्म और संकोच से कहीं गढ़े जा रहे थे। अचानक शालिनी का उत्तेजक स्वर गूँजने लगा ''दोस्तो हमारी आजादी को वासठ वर्ष हो गये। सरकारों के रूप में केवल मुखौटे बदलते रहे। वोटों के लिए, हमें कभी मंदिर बनवाने तो कभी मस्जिद की सुरक्षा के नाम पर वरगलाया, भड़काया अैर लड़ाया जाता रहा ताकि हमारा ध्यान हमारी ही रोजमर्रा की समस्याओं की तरफ न जा सके और वे असानी से अपने फायदे के लिए चाहे जैसे कानून बनाते अैर पास करते रहें। इसलिए दोस्तो अब वक्त आ गया हे जागने का अपने हक माँ गने का अैर जरुरत पर जवाब देने का। तो आईये हमारे साथ एक होकर जागने और जगाने के लिए...।" न जाने शालिनी के इन भाषणों ने क्या जादू किया कि हमारे इर्द-गिर्द पब्लिक का एक हुजूम उमड़ आया। उसके बाद उस भीड़ ने कौतूहल जगाया और लोग जुटते गये। भीड़ देखकर हम में भी न जाने कहाँ से ताकत आई और सब शर्म ओैर संकोच दूर छिटक गया। शहर के लोगों ने हमारे नाटक को अजूबे की तरह देखा और खूब सराहा। वर्षों बाद अखवार की सुर्खियां बदली नजर आई 'सलिल रंग मंच ने जनसमस्याओं की ओर ध्यान खींचा प्रशासन का। नुक्कड की बड़ी सफलता यह रही कि सरकारी महकमे को शहर भर की टूटी सड़कों की मरम्मत का कार्य शुरू करवाना पड़ा।
हम सब उस दिन जश्न के रूप में चाय पार्टी कर रहे थे शालिनी इतनी खुश थी मानो जिन्दगी की सबसे बड़ी उपलब्धि उसके हाथ लगी हो। यकायक वह खड़ी हुई और सबको हाथ उठाकर शान्त किया जैसे कोई भाषण देने जा रही हो। लेकिन वह विषेशतः मुझे कुछ कहना चाह रही थी।
''क्यों राकेश सर अब तो देख ली अपनी ताकत... जनसमस्याओं के साथ-साथ अब हमें ऐसी प्रस्तुतियाँ तैयार करनी होंगी जो आम जन के बीच हिन्दू-मुस्लम का भेद मिटाकर एक सूत्र में बाँधने की बात कर सकें। अचम्भे की बात है कि परोक्ष रुप से बहुत बड़ी राजनैतिक शक्तियाँ इस गैर जरुरी भेद को बढ़ाने में जुटी हैं।" शालिनी ने एक बार सबके ऊपर नजर डाली फिर बोली ''हमारा असल मकसद तभी पूरा होगा जब हम राजनैतिक इच्छाओं के लिए साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने की दिशा में बढ़े।''
जाने क्यों मुझे लग रहा था जैसे इन सब बातों को कहते हुए वह अन्दर ही अन्दर कहीं क्रोध से कँपकपा रही थी। उसकी आँखें कुछ अजीब सी रोशनी से चमक उठी थीं।
''अगले नाटक की तैयारी के लिए हम रोजाना दो घंटे के लिए माथुर साहब के घर बैठेंगें।" शालिनी ने हँसी-ठहाकों के बीच अचानक प्रस्ताव फैंका और माथुर ने सहर्ष स्वीकार भी लिया। अभी हम बातें कर ही रहे थे कि गाँव से फोन आया पिताजी की तवियत ज्यादा खराब हो गई है। सुनकर सब परेशान होंगे इसलिए मैं बिना किसी को कुछ बताए दूसरे ही दिन गाँव चला आया था। हाँ लेकिन शालिनी को फोन कर दिया था।
मैं हफ्ते भर बाद गाँव से लोटा था। इस पूरे हफ्ते भर शालिनी मेरे साथ न होकर भी जैसे मेरे साथ थी। मुझे छेड़ती और गुदगुदाती रही कभी-कभी फ्लौसफर की तरह व्याख्यान भी देती रही। मैं उसे मिलने को इतना बेचैन हो रहा था कि अपने घर जाने से पहले मैं शालिनी के घर पहुँचा। मैं सीढ़ियाँ चढ़ ही रहा था कि किसी ने नीचे से पुकारा अरे अब वह यहाँ नहीं रहती... आखिर खुल गया न उसका भेद इस लिए रात में ही निकल गई... आप खूब बच गये...।
उस अधेड़ की बातें मेरे भीतर नस्तर की तरह चुभती रहीं। मेरा सिर झन्ना गया, हाथ पैर जैसे लकबे का शिकार हो गये हों। मुझे धराशाई करने को तो उसके चले जाने की खबर ही काफी थी फिर यह उसका भेद कौन सा खुल गया था।
मैने जान बूझकर उस अधेड़ से कुछ भी नहीं कहा न पूछा बस किसी लाश की तरह लगभग लुड़कते हुए से मैंने माथुरजी को फोन लगाया शायद उन्हें कुछ पता हो।
हाँ राकेश जी वे चलीं गईं। हाँ... आपके लिए एक चिट्ठी छोड़ी है। माथुरजी जितनी आसानी से सब बातें कह गये थे मैं सुनने तक में व्यथित था। चिट्ठी की बात सुनते ही मेरी वेकली इतनी बड़ी कि मैं कंधे पर बैग लटकाये ही माथुरजी के घर जा पहुँचा, उनसे वह चिट्ठी लेने। हालाँकि माथुरजी के चेहरे पर चिन्ता की कुछ वेतरतीव सी लकीरें उभर रही थीं किन्तु मेरी बदहवासी को देखकर वे ज्यादा परेशान हो उठे थे। मुझे पीठ थपथपाकर बिठाया और एक सफेद बन्द लिफाफा मुझे सौंप दिया।
सर! मेरा इस तरह आना आप सब को अच्छा नहीं लगा होगा। खाशकर आपको, इसके लिए मैं आपकी अपराधिनी हूँ। मैं भागी नहीं वल्कि जा रही हूँ। यहाँ मेरे साथ जो हुआ उसका मुझे पहले ही भान था। वैसे भी मुझे जाना तो था लेकिन ऐसे नहीं हाँ आपको वह सब बताकर जो आप जानना चाहते थे कुछ और भी जो आपने नहीं जानना चाहा। आपने कई बार पूछा कि मैं शादी शुदा हूँ कि नही तो सर मैं शादी-शुदा हूँ। तीन वर्ष पहले मेरी शादी रवि से हुई थी। हुई भी क्या मैंने ही कर ली थी। रवि एक व्यवसायी होने के साथ राजनैतिक रसूख वाला आदमी था लेकिन इलाहाबाद में हमारी नाट्य संस्था को खड़ा करने में उसकी बड़ी भूमिका थी। हमारे हर शो को आर्थिक मदद, रिहर्सल व शो के लिये जगह की व्यवस्था करना उसी की जिम्मेदारी रहती। रहती भी क्या वह खुद लेता था। बैठे-बैठाये सब व्यवस्थायें उसके फोन से ही हो जाया करतीं थीं। हम उसे किसी भी समस्या के लिए परेशान होते नहीं देखते थे। किसी भी समस्या पर जब वह सलीके से अपनी बात रखता तो वह मुझे किसी महापुरुष से कम न लगता। उसके सकारात्मक तर्क किसी को भी अपने साथ बाँध पाने में सक्षम दिखते। मुझे उसकी बातें बड़ी मजेदार लगतीं थीं। कभी-कभी मैं कहती क्या-क्या पढ़ते हैं आप? तो मुस्कुरा कर कहता ''कुछ शेष नहीं बचा है सबको पढ़ लिया है।" उसके सामने मुझे अपनी समझ बड़ी तुच्छ प्रतीत होती थी। सच कहूँ तो मैं उसके आकर्षण में थी लेकिन यह सोचकर नहीं कि उससे शादी करनी है क्योंकि मैं शादी तो करना ही नहीं चाहती थी। अपने साथ की शादी-शुदा लड़कियों की हालत देखकर मुझे शादी के नाम से ही नफरत थी। वे लड़कियाँ जो मेरे साथ हँसती, खेलती, गाती, पढ़ रहीं थीं लगता था गोया तितलियाँ हमसे जीने की कला सीखती हैं। अचानक उनकी शादी के बाद न जाने क्या हुआ कि वे सब सहमी-सिकुड़ी उस गाय की तरह लगने लगीं जिसे उसकी बिना इच्छा के कहीं भी बाँधा, खोला या ले जाया जा सकता हो। जैसे वे सब जीवित इन्सान न होकर गोश्त की पोटली हैं। मैं पूछती तो वे कहती ''शालिनी यही हमारी मान मर्यादा है... शादी के बाद तू भी ऐसे ही हो जायेगी।" ऐसी बातें सुन-सुन कर मैंने शादी न करने की ठान रखी थी। तब मेरी समझ में आया था कि शायद मेरी ट्यूशन वाली मैम ने भी इसीलिये शादी नहीं की होगी।
पापा मुझे बहुत चाहते थे लेकिन मेरे नाटक करने के खिलाफ थे। मैं ही नहीं मानी थी। हमेशा एक ही बात कहती ''नाटक करती हूँ... तो इसमें बुरा क्या है... और फिर इससे आपकी कौन सी इज्जत जा रही है।" पापा बस कसमसा कर रह जाते, उनके किसी दोस्त ने उन्हें यह तरीका सुझा दिया कि शादी कर दो सब अपने-आप भूल जायेगी। बस पापा जबरन से मेरी शादी करने पर तुल गये थे। फिर शुरु हुआ मेरी नुमाइश का दौर, नये-नये लोग, अजीब-अजीब सवाल... कितने बजे सो कर जागती हो? पूजा करती हो या नहीं? इतनी जोर से हॅसती हो? क्या-क्या पका लेती हो...? मैं झका जाती और बात नहीं बन पाती थी। पापा मुझे दुश्मनों की तरह कोसते। माँ तिलमिला कर कभी पापा को धैर्य बँधाती तो कभी मुझे सपोर्ट करती। मैं खुद कभी हथियार डालती फिर अचानक आसमान को देखती, दूर... जहाँ तक भी मेरी नजरें जा पातीं। मैं देखती, आसमान उससे और आगे तक है। दूर, बहुत दूर तक। बिना सीमाओं के उड़ती हुई चिड़ियों को देखती और फिर अपने फैसले पर अड़ जाती। इसी मानसिक विचलन के कारण मेरी रिहर्सल भी छूट रहीं थीं।
मैडम का फोन आया था ''शालिनी शो नहीं करना है क्या...? चार दिन से गायब हो।" उस दिन रिहर्सल पर मैंने अपनी मनःस्थिति खुली किताब की तरह सबके सामने खोलकर रखी थी। खासकर मैं सबके बहाने रवि को ही अपनी परेशानी बता रही थी यह सोचकर कि वह सही सलाह देगा। उस दिन रवि ने कहा था ''देखो शालिनी! अभी तुम खुद अस्थिर हो... पहले तुम खुद फैसला करो कि शादी करनी है या नहीं? क्योंकि, लड़कियों की शादी का अर्थ तो केवल इतना ही समझा जाता है कि इस बोझ को अपने सिर से उतार कर दूसरे के सिर पर रखना। और यदि तुम इसके लिये तैयार नहीं हो तो तुम किसी पर बोझ न बनकर खुद आत्म निर्भर बन जाओ फिर तुम तो पढ़ी-लिखी हो, आसानी से कहीं भी नौकरी कर सकती हो। यदि शादी करना चाहती हो तो... मुझ में भी कोई बुराई नहीं है। परेशानी से भी मुक्ति और नाटक भी होता रहे यानी आम के आम और गुठलियों के भी दाम।" कहकर रवि ठठाकर हँस पड़ा था। उसने मजाक किया था या गम्भीर, मैं नहीं जानती... हाँ लेकिन, मैं जरुर गम्भीर थी। मैने मैडम से बात की अगर रवि मजाक नहीं कर रहा हो तो मैं तैयार हूँ। दूसरे दिन मैडम ने हम दोंनो के साथ बातें की और तीसरे दिन हमने कार्ट में शादी कर ली।
मैंने पापा की व उनके परिवार की मर्यादा तोड़ी थी इसलिये पापा से रिश्ता तो टूटना तय ही था। माँ भी कुछ न कर सकी इस बार पापा किसी की मानने को तैयार नहीं थे। ज्यादा कहने पर माँ को भी घर से निकालने की धमकी मिली। और मम्मी कटे कबूतर सी छटपटा कर रह गईं। मुझे उस दिन समझ आई कि पापा मुझसे नहीं बल्कि मेरे साथ जुड़ी अपनी मर्यादा को प्यार करते थे जिसे मैने तोड़ दिया था। मैं फोन कर लेती माँ चुपचाप बातें कर लेती। माँ ने यह सोचकर सन्तोष कर लिया था कि मैं खुश हूँ। मैं थी भी बेहद खुश मुझे लगता ही नहीं था कि मैंने शादी कर ली है। वही रिहर्सल, वही नाटक, वही अल्हड़ता में हँसना-खिलखिलाना, बहसें, नोंक-झोंक सब कुछ तो वैसा ही था बस शहर बदल गया था। रवि का परिवार तो गाँव में ही था। दो पैटेल पंप लखनऊ में थे रवि उन्हें देखता था। लखनऊ मेरे लिए नया शहर जरुर था लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। मैं अपनी टीम के साथ कई बार वहाँ नाटक करने जा चुकी थी।
शाम को तो रिहर्सल होती लेकिन दिन भर, मैं अकेली, घर में बोर होती। आखिर किताबें भी कितनी पढ़ती। मैंने एक फाइनेन्स कम्पनी में नौकरी कर ली। मैंने रवि को चहकते हुए यह खबर सुनाई थी ''रवि मुझे बारह हजार रुपये महीने की नौकरी मिल गई है।" रवि ने मेरे चेहरे को कुछ अजीब तरह से देखा उसका मुस्कुराता चेहरा धीरे-धीरे सपाट होता गया ''सिर्फ बारह हजार के लिये तुम इतना खुश हो रही हो... इससे कहीं ज्यादा खर्चा मेरे जल-पान का होता है।" रवि की यह बात सुनकर मुझे अचम्भा हो रहा था। मैं एकदम से यह तय कर पाने की स्थिति में भी नहीं थी कि रवि मजाक कर रहा है या गम्भीर होकर मुझे मेरी औकात बता रहा है। फिर भी मैंने गम्भीरता से अपने मन की बात कही ''रवि मैं यह नौकरी तुम्हारे लिये नहीं कर रही यह तो मैं आत्मनिर्भर होने को कर रही हूँ। आप ही तो कहते थे किसी पर बोझ न बनने की बात... और मेरा मन भी लगा रहता है।"
''अब उसकी कोई जरुरत नहीं है और वैसे भी मम्मी-पापा को यह शादी रास नहीं आई है।''
''क्यों...?''
''वही बड़े-बूड़ों की सोच, खानदान में चाचा मंत्री रहे हैं और बेटे की शादी ऐसे सामान्य तरीके से... लेकिन तुम उसकी फिक्र मत करो मैं मैनेज कर लूंगा बस तुम... यह नौकरी-वौंकरी...? खैर, कुछ दिन मन बहलाने को कर लो... वैसे भी अब तुम्हें आत्मनिर्भर होने की जरुरत नहीं है क्योंकि तुम अब शादी-शुदा हो और रवि प्रकाश की पत्नी... समझ गई।''
अब मैं समझ गई थी कि रवि मजाक नहीं कर रहा था। लेकिन उसमें अचानक आये इस बदलाव को मैं समझ नहीं पा रही थी। 'रवि जरूर किसी उलझन में होगा उससे उसका मूड अपसैट है तभी इस तरह की बातें कर गया है।' यही सब सोचकर मैंने रवि की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था। शाम तक नौकरी फिर रिहर्सल या बहसें गप्प गोष्ठियां कालेज का समय जैसे वापस आ गया था। कालेज, ट्यूशन फिर रिहर्सल। दोस्तों के साथ हँसना-ठठाना ताने-उलाहने, कभी घर जल्दी पहुँचना कभी थोड़ी देर हो जाना, रवि अभ्यस्त था इन सब चीजों के लिए इसलिये मैं भी बे-फिक्र थी। रवि भी लगभग रोज सा ही हमारे साथ रिहर्सल पर आ ही जाता था। मैं भी खुश थी समय जैसे वे परों के उड़ने लगा था।
कुछ ही दिनों के बाद से एक अजीब बात होने लगी थी और न चाहते हुए भी मेरा ध्यान उस तरफ जा रहा था। पिछले एक महीने से रवि हमारे नाट्य ग्रुप के साथ आकर नहीं बैठ रहा था। शाम को मैं अक्सर उसे घर पर दो-चार लोगों के साथ मीटिंग करते हुए पाती। उनके बातों, लहजों और पहनावे से वे राजनैतिक लोग थे इतना मैं समझती थी। शुरु-शुरु में यह बात मुझे ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं लगी क्योंकि यह बात मैं पहले से ही जानती थी कि उसके राजनैतिक रसूख भी हैं। लेकिन अब कुछ अघटित सा घटने लगा था। ठीक वैसे ही जैसे दुनिया में बहुत कुछ घटित होते सुकून नहीं देता और नघटित हो ऐसी संभावना के लिए छटपटाते हैं। मेरी स्थिति लगभग ऐसी ही थी।
उस दिन इतवार था। हमारे ग्रुप के डायरेक्टर ने अगले नाटक के चयन के लिये तीन बजे मीटिंग में हम सब के साथ रवि को भी बुला रखा था। तीन बजे का समय भी रवि के कारण ही रखा गया था क्योंकि रवि दो से पाँच घर पर ही होता था लेकिन रवि नहीं आया। सबने बहुत देर तक रवि का इन्तजार भी किया। अन्ततः मीटिंग शुरु हुई और नाटक का चुनाव कर लिया गया। न जाने क्यॅू मुझे उस दिन रवि का वहाँ न पहुँचना अच्छा नहीं लगा। उस दिन मैं यह सोचकर घर पहुँची कि आज रवि से बात जरूर करुँगी और इस बदलाव का कारण भी जानकर रहूँगी।
उस दिन भी कुछ लोग रवि को घेरे बैठे थे। वे सब शराब पी रहे थे। एक गिलास रवि के हाथ में भी था। मैने उसे इस रूप में पहली बार देखा था। देखते ही मुझे बिजली का सा झटका लगा। मैं शायद रवि पर बिफर पड़ती, लेकिन मैंने अपनी पूरी ताकत लगाकर खुद को संयत किया और इस तरह अन्दर गई जैसे मैंने उन लोगों को देखा तक न हो। हालाँकि घर आने से पहले मुझे बहुत तेज भूख लगी थी लेकिन घर पहुँचते ही मेरी चाय पीने तक की इच्छा नहीं रही थी। मैं बस उन लोगों के जाने का इन्तजार कर रही थी। मुझे यह इन्तजार लगभग दो घंटे करना पड़ा।
रवि आज नशे में है इसलिये तेज आवाज या क्रोध से बात बिगड़ सकती है इस खयाल से मैंने रवि से बड़ी सहजता से पूछा ''रवि आज आप आये क्यों नहीं...? पता है आज बड़ा मजा आया पूरा यूनिट इकट्ठा था तुम्हारा बहुत वेट भी किया।" ''आज ऐसे काम में फँसा रहा जिसकी उम्मीद भी नहीं थी कोशिश भी की लेकिन निकल नहीं पाया और फिर, तुम तो थी ही वहाँ आखिर तुम केवल शालिनी नहीं हमारी पत्नी भी हो।"
रवि की सहजता से लगा कि बात आगे बढ़ाई जा सकती है ''आज तुम शराब पी रहे थे... और... ये कौन लोग हैं? जिन्हें मैं अक्सर यहाँ बैठा देखती हूँ।" रवि की आँखों की गोलाई देख मैंने बात हल्की करनी चाही ''तुम्हारी पत्नी हूँ इसलिये पूछ रही हूँ।"
मैं सहम गई थी लेकिन मुस्कान की मुद्रा में फैलते रवि के होठों को देख मुझमें साहस सा आ गया था ''शालिनी ये पार्टी के लोग हैं चुनाव करीब हैं... इसलिये कुछ तैयारियों पर चर्चा करने आ जाते हैं। और रही बात शराब की तो वह मैं नहीं, वे लोग पी रहे थे। मैं तो बस गिलास हाथ में लिये उनको साथ देने का बहाना भर कर रहा था, सब करना पड़ता है। तुम खुद देख लो मैं, तुम्हें नशे मैं दिख रहा हूँ क्या?" अपने क्रिया-कलाप और हँसी-मजाक से रवि ने मुझे निरुत्तर कर दिया था। मैं उसे उस दिन मीटिंग में चुने गये नाटक के विषय में बताना चाह रही थी कि रवि यकायक गम्भीर हो गया ''शालिनी एक बात कहूँ...?
''जी...।"
''तुम यह नौकरी छोड़ दो... दरअसल, मेरे जानने वाले जो बातें करते हैं, मुझे अच्छी नहीं लगती।" कहकर रवि ने ऐसे मुँह बनाया जैसे कोई कड़वी दवा चाट ली हो। मैं एक पल में समझ गई थी रवि जो कहना चाहता था फिर भी चीखी या चिल्लाई नहीं क्योंकि ऐसी समस्याओं से जूझने और निकलने की कला मैने ग्रुप में रहकर मैडम से सीखी थी। वे भी बड़ी से बड़ी समस्या पर धैर्य नहीं खोती थीं।
''रवि! लोग कहते हैं इससे मुझे फर्क नहीं पड़ता... लेकिन तुम क्या कहते हो?''
''शालिनी मैं तुम्हें गलत नहीं समझता... लेकिन बाजार तो है ही, और काम है तो लोगों से हाथ भी मिलाना होता है उनसे हँसना-मुस्कुराना, फोन करना, बातें करना यह सब तो होता ही है।''
''तो इससे... और कितनी औरतें आज काम कर रही हैं अगर ऐसे ही सोचें तो काम कैसे चलेगा?''
''सबकी बात अलग है शालिनी...। कुछ तो देह तक बेचती हैं... । लेकिन तुम तो ऐसा नहीं कर सकतीं। तुम्हारे लिए मेरे मन में ऐसा कुछ नहीं है। शालिनी... ! मैंने कहा न, करना पड़ता है सब... इसीलिये कहता हूँ कि तुम नौकरी छोड़ दो और तुम छोड़ भी सकती हो...।''
रवि की बात सुनकर एकवारगी मैं काँप गई। उसकी बातों ने मुझ में एक बौखलाहट पैदा कर दी थी। यहीं मेरे धैर्य की पराकाष्ठा थी वाबजूद इसके मैं कोई गुंजाइश नहीं छोड़ना चाहती थी। मेरे शब्द काँप रहे थे ''रवि तुम तो ऐसे नहीं थे... कितने समझदार थे लेकिन तुम इस तरह की बातें...?''
''समझदार हूँ तभी तो कह रहा हूँ नौकरी छोड़ दो इससे पहले कि... फिर नहीं छोड़ पाओगी।" व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ अपनी बात अधूरी छोड़कर रवि उठा और अन्दर जाकर बैड पर पड़कर सो गया।
बहुत देर तक तो मेरा दिमाग कुछ कहने या करने की स्थिति में ही नहीं रहा था। अजीब-अजीब सी आवाजों के साथ लगता जैसे कमरे की दीवारें आपस में टकरा रही हों उनके बीच में दबकर जैसे मैं पिस रही हूँ। मेरा शरीर मृत हो गया है। बाई घर जाने की पूछ रही थी, उसने मुझे झकझोर कर एहसास दिलाया कि मैं जिन्दा हूँ। मन बहुत कसैला हो रहा था, फिर भी मैं यह सोचती बैड पर जा पड़ी कि रवि आज शराब के नशे में है इसलिये यह अनाप-शनाप बक गया है, सुबह तक होश में आ जायेगा तो उसे याद भी नहीं रहेगा कि उसने रात क्या कहा था।
ऐसा नहीं है कि मैं रवि की बातों के निहितार्थ नहीं समझती थी इसीलिये मैं उस रात बिल्कुल भी सो नहीं सकी थी। घड़ी की मामूली टिक-टिक मेरे मस्तिष्क पर किसी हथोड़े की सी चोटें मारती रही। मन का दीपक बुझा तो अंधेरा मेरे मन के साथ जुड़ गया फिर मैं अंधेरे से बातें करती रही। शंका-आशंकाओं के झूले से लटकती कूदती रही, बिखरते सपनों पर पैबन्द लगा कर जोड़ने की कोशिश करती रही। सुबह के उजास से मन का अंधेरा हटा तो आँख लग गई।
रवि ने तैयार होकर ऑफिस जाने से पहले मुझे जगाया सामने घड़ी की सुईयां ग्यारह बजने का इशारा कर रहीं थीं। खिड़की से छनकर आती धूप के घेरे में बेतहासा भाग-दौड़ करते धूल के कण जैसे मेरे अन्दर की कहानी को बयाँ कर रहे थे। मैं यह सोचकर हड़बड़ा कर उठी कि आज ऑफिस को बहुत लेट हो गई। ''क्या हो गया...?" रवि ने पूछा तो ''रवि मैं ऑफिस के लिए...." मैं अपनी बात भी पूरी नहीं कर पाई कि रवि ठठाकर हँसने लगा ''अब उसकी जरुरत नहीं है। मैंने चावला जी को फोन कर दिया तुम्हारी जगह वे किसी और को अपॉइन्ट कर लेंगे।" उसने मुस्कुराते हुए कहा और मेरे गाल पर हल्की सी चपत लगाकर चला गया। उस दिन मुझे लगा कि मैं तो हिल भी नहीं पा रही हूँ। मुझे जंजीरों में जकड़ दिया है। उसकी जकड़न मेरी हड्डियों को तोड़ रही है। जिन्दगी मेरे सामने अचानक एक बोझ की तरह आ खड़ी हुई थी। जिसे ढोना शायद मेरे वश में नहीं था। मेरे पास कोई दूसरा चारा नहीं बचा था सिवाय यह सोच लेने के कि न सही नौकरी, नाटक तो है। नाटक में कितनी जिन्दगियाँ हैं मैं उनमें डूबकर अपनी जिंदगी तलाशुँगी। सिसकती ही सही मेरी जिन्दगी वहीं है। सब कुछ तो छीन लिया मुझसे। क्या कुछ मैने नहीं छोड़ा...? अपना घर, माँ -बाप का प्यार, अपना शहर, अपने लोग, अपने रिश्ते-नाते इन सब पर भारी था मेरा जुनून, नाटक के लिए। मैं इसे नहीं छोड़ सकती यही सब सोचकर मैंने अपना नाट्य दल बना लिया था, बिल्कुल अपने इसी सलिल रंग मंच की तरह। पैसे की मेरे लिये न कमी थी न अहमियत, मैंने रिहर्सल के लिये एक हॉल किराये पर ले लिया था। जहाँ मेरा ज्यादा समय व्यतीत होने लगा था। करती भी क्या...? घर बचा ही कहाँ था मकान रह गया था बड़ा सा मकान।
मैं भीष्म साहनी का 'मुआवजे' की तैयारियों में जुटी थी। एक दिन रवि रिहर्सल में आ गया और बड़े अच्छे मूड में था। वह सब लोगों के लिए समोसे लेकर आया था। उस दिन मैं उसे देखकर खुश थी। मुझे लगा रवि आज नहीं तो कल वापस आ जयेगा। और फिर सुबह का भूला शाम को घर वापस आये तो उसे भूला नहीं कहते। हम सब रिहर्सल में जुट गये। रिहर्सल खत्म होते ही रवि कुछ जल्दी में घर चला गया मैने सोचा था चुनाव करीव है तो कोई काम याद आ गया होगा। मुझे तो इस बात का इल्म भी नहीं था कि वह मुझे घर पर इस मूड में मिलेगा। रवि कमरे में मेरा इन्तजार कर रहा था।
''शालिनी एक बात पूँछू ....?''
''हाँ... हाँ मैं चहक उठी थी।''
''यदि, मैं कहूँ, तुम नाटक छोड़ दो या कहूँ कि तुम्हें नाटक या मुझमें से किसी एक को चुनना हो तो तुम किसे चुनोगी?''
मैं उसके चेहरे को गौर से देखने लगी उसकी आँखें स्थिर थीं मुझे अंदाजा हो गया था कि रवि मजाक नहीं कर रहा है। अगले ही पल मुझे लगा उसने सवाल नहीं थप्पड़ मारा है। मैं चाह कर भी सहज नहीं रह पा रही थी लेकिन अंधेरे में भी कोई किरण खोजने की कोशिश में मैने खुद को सम्भाला ''रवि तुम क्या कह रहे हो, तुम्हें लगता है नाटक तुम्हारी जगह ले सकता है और यह भी संभव नहीं कि तुम मेरे नाटक की भरपाई कर सको। सच कहूँ तो तुम मेरी जिन्दगी हो और नाटक मेरी आस्था।" मुझे लगा रवि खुश हो जायेगा लेकिन उसका चेहरा कुछ अजीब विकृति से भर उठा।
''शालिनी! वैसे तुम्हें अब यह नाटक-वांटक छोड़ देना चाहिए क्या मिलना है इससे।''
''वही जो तुम्हें इलाहाबाद में नाटक करने से मिलता था सुकून, आनन्द।" अचानक रवि ठठाकर हँसने लगा ''हाँ आनन्द तो था... लेकिन नाटक से नहीं, तुम जैसी कटीले नाक-नक्श की चटपटी बालाओं का साथ पाकर और तुम्हें तो उड़ा ही लाया न ... ।''
मैं अवाक रह गयी एक दम सन्न। रवि इतना गिर भी सकता है। मैं सोच भी नहीं सकती थी। मैने फिर भी सोचा शायद मजाक कर रहा हो ... ''रवि मजाक नहीं साफ कहो क्या कह रहे हो?''
''शालिनी मैं मजाक नहीं कर रहा, सच कह रहा हूँ। मैं नाटक केवल मजा लेने के लिए ही करता था। सस्ता टायम पास किसी फिल्मी हीरो की तरह, तुम्हारे गले में बाँहें डालकर नाचने के लिए। मैं तब भी कहता था क्या हो जाना है इन नाटकों से? क्या बदल जाना है? यह अनपढ़ समाज जो केवल धर्म के लिए जीता है वल्कि कहूँ तो धार्मिक पाखण्डों के लिए। गरीबी दूर हो जायेगी उस गरीब की जो केवल धनवानों को कोसने में अपना पूरा वक्त लगा देता है या उस मजदूर की काया पलट हो जायेगी जो मजदूरी करना ही नहीं चाहता। फिर भी तुम्हें लगता है कि, नाटक से क्रान्ति हो जायेगी। यह पागलपन नहीं तो और क्या है ... ? शालिनी! दुनिया बाजार से चलती है और बाजार पूंजी से, ताकत पूंजी में है। यह पाँच-पाँच सौ के लिए चन्दा करते घूमना मुझे अच्छा नहीं लगता।''
मैंने देखा रवि गम्भीर हो गया था। न जाने क्यों मुझे लगा उसके दो बड़े-बड़े दांत बाहर उग आये हैं। सिर पर सींग निकल आये हैं। उसके मुँह से खून टपक रहा है। नहीं यह रवि नहीं हो सकता वह रवि जो हमारी यूनिट का एक समझदार इन्सान था। जिसके पीछे मैं अपना हँसता-खिलखिलाता अतीत छोड़ आई हूँ। जिससे मैंने शादी की ... और अगर यह वही रवि है तो यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी जो अब असल रुप में मेरे सामने है।
मैं निहत्थी थी फिर भी मैं न जाने कैसे खड़ी हो गयी। मेरे अन्दर एक आग सी जल उठी थी। मैं जैसे फट पड़ना चाहती थी। मैं अपना अगा पीछा सेाचना ही भूल गई थी। ''रवि मुझे तरस आता है तुम्हारी सोच पर ... मैं नहीं समझती कि अब तुम्हें यह बताना भी सही होगा कि नाटक महज टायम पास नहीं है नाटक केवल कला ही नहीं आत्म सम्मान है। संस्कृति है। हमारी ताकत है। नाटक जरिया है उन लोगों को जगाने का जिन्हें सदियों से सुलाए रखने को धर्म की थपकी दी जाती रही है। किसी ने जागने की कोशिश भी की तो उसे पाप-पुन्य और संस्कारों की बेड़ियो में जकड़ने की साजिशें रची जाती रहीं, ईंट-पत्थरों से हमले किये जाते रहे। तुम भी कुछ अलग तो नहीं कर रहे हो। वही कर रहे हो जो सदियों से होता आ रहा है। फिर गरीब मजदूर का दर्द तुम जान भी कैसे सकते हो?''
''शालिनी पागल मत बनो, भावनाओं में बहने से कुछ हासिल नहीं है। जो सदियों से चला आ रहा है उसे कोई नहीं बदल सकता न मैं, और तुम भी नहीं। ''
''तो मुझे क्यों फोर्श कर रहे हो बदलने को...?''
''क्योंकि तुम पर मेरा अधिकार है।''
''और मेरा ...?''
''सब तुम्हारा ही तो है...।''
''इस सबके बदले में आखिर मुझसे चाहते क्या हो ...?''
''यही कि तुम इस नाटक को मत करो... नाटक और भी तो हैं करने को...।''
सुनकर मुझे हँसी आ गई थी, दरअसल वह घवराया हुआ था। इतनी देर बहस के बाद वह असल मुद्दे पर आ गया था।
''यह समय इस नाटक के लायक नहीं है।''
''कैसा समय है...? यही तो समय है इस नाटक के लिए।''
''शालिनी! समझने की कोशिश करो, तुम मेरी पत्नि हो और तुम यह नाटक करोगी, तो क्या संदेश जायेगा पब्लिक में।''
''लेकिन रवि यह कैसे मुमकिन है। अब जब लगभग नाटक तैयार है तब कह दूं कि यह नाटक नहीं कर रहे। क्या सोचेंगे सब लोग कैसे चलेगा यह संगठन सब छोड़ बैठैंगे। अब यह कोई तुम्हारी राजनैतिक पार्टी तो है नहीं कि जो हाई कमान ने कहा वही सबको मानना पड़ेगा।" कहते हुए मैं उसके चेहरे पर उभरती कुछ अजीब सी लकीरें देख रही थी जैसे मेरा हर शब्द उसे गेाली सा लग रहा था। ''यह मैं नहीं कर सकती।" आखिर मैंने फैसला सुना दिया था।
वह कुछ देर चुप रहा फिर बोला ''शालिनी मैं चाहता हूँ कि तुम राजी-वाजी से ही बात मान जाओ नहीं तो ...?''
''नही तो क्या ...?"
''यही कि यदि तुम नाटक के लिए अपना घर छोड़ सकती हो तो मैं भी ...।''
अब वह मेरे सामने पूरी तरह नंगा हो गया था। ''मैने सोचा था अन्य औरतों की तरह तुम भी ऐशो-आराम, चमक-दमक पाकर सब कुछ खुद व खुद भूल जाओगी लेकिन तुम मूर्खता से बाहर नहीं आ सकीं ... अब तुम्हें, ... नाटक या मुझमें से किसी एक को चुनना पड़ेगा, तय तुम कर लो। एक दिन भूखी रहोगी तो सब नाटक भूल जाओगी...।''
उसने जितनी सहजता से कह दिया था मैं उतनी ही असहज हो गई थी। वह क्षण मेरे लिए पूरा जीवन चुनने का था। मुझे एक ओर होना था। एक तरफ सदियों से लीक पर चलता, मान मर्यादा के आभूषणों से सजा-धजा स्थूल सा जीवन। सिमटी-सिकुड़ी छोटे से आसमान को टुकुर-टुकुर झाँकती जिन्दगी थी तो दूसरी ओर गाती, बजाती, नाचती, इठलाती, भूखी, प्यासी, भागती, दौड़ती, अलमस्त परिंदों सी खुले आसमान में पंख पसारे उड़ती, संघर्ष, निस्वार्थ, प्यार, मुहब्ब्त में खेलती, रोती, सिसकती, हँसती, ठिठोली करती, सर्दी से काँपते हाथों चाय सुड़कती तो कभी चिलचिलाती धूप में सरपट दौड़ती, वारिश में भीगती बसंती रंगों से सजी, नाटक, रिहर्सल, नौक-झौंक, चूँ-चपड़ करती जिन्दगी।
मुझे एक को चुनना था। मैं जीना चाहती थी। जिन्दगी को खेलना चाहती थी। मैंने ठुकुरा दिया था स्थूल जिन्दगी को। सुनकर रवि बौखला गया था।
''शालिनी आज मुझे यकीन हो गया कि तुम वास्तव में बहुत बड़ी मूर्ख हो... तुम्हें क्या लगता है तुम इस शहर में नाटक कर पाओगी।''
''यह शहर दुनिया नहीं है। दुनिया कितनी बड़ी है यह तुम नहीं जान सकते। पूजा या नमाज के लिए किसी मंदिर या मस्जिद का होना जरुरी नहीं है उसे करने के लिए इच्छाओं का होना जरुरी है...।" न जाने कैसे मैं यह सब कह गई थी। और एक बार फिर मैने अपना घर छोड़ा था।
राकेश सर! बिना किसी इरादे के मैं इस शहर में चली आई थी। एक सस्ते गैस्ट हाउस में मैंने ठिकाना बनाया था। नौकरी पाना मेरे लिए मुश्किल काम नहीं था। मैं नौकरियां करती और छोड़ती रही। बिना किसी मंजिल के बस चलने जैसा था। मेरी आँखें जैसे कुछ खोजती रहती थीं। मन की बेचैनी और यही खोज मुझे एक दिन माथुर जी की लाइब्रेरी ले पहुँची थी यह सोचकर कि शायद वहाँ मेरे जैसा कोई मूर्ख मिल जाय। माथुर जी इस शहर में ऐसा ही कुछ करना चाहते थे लेकिन उनकी बीमारी उन्हें कुछ करने नहीं दे रही थी। उन्होने ही मुझे यहाँ कमरा दिलाया और अपने छात्रों को साथ लेकर संगठन बना और ....। यही है मेरी जिन्दगी की कहानी जिसे आप जानना चाहते थे ...।
राकेश सर आपको याद है, जब आप अपने दोस्त से फोन पर एक दिन कह रहे थे 'कहाँ यार इस शहर में आकर नाटक साहित्य सब सपने की सी बातें हो गईं। तू दिल्ली में मजे में है। यहाँ तो अखवारों में भी कभी कोई ऐसी खबर भी नहीं पढ़ी।' बस तभी से मेरी नजरें आप पर थीं। और आप मिले भी... लेकिन ... ।
इस सब के साथ मैं यह भी जानती थी कि रवि आसानी से मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा। उसकी राजनैतिक ताकत कभी भी मुझ तक पहुँच जायेगी। उसने ठीक वही किया जिसकी मुझे उम्मीद थी। उसका हमला मुझ पर नहीं संगठन की ताकत पर था उन लोगों ने मुझ से कुछ नहीं कहा था। वे दो तीन लोग थे जो घिसे पिटे फिल्मी से संवाद बोलकर पूरे चंदनवन के लोगों को उकसा रहे थे ''यहाँ आप लोगों के बीच रंडीखाना आबाद है, जवान लड़के-लड़कियाँ रोज शाम होते ही जुटने लगते हैं। क्या कभी सोचा है क्या होता है यहाँ। क्या संस्कार जायेंगे हमारी बहन-बेटियों में...? लोगों में भी फिल्मी तर्ज पर ही पागलपन सवार हुआ था। राकेश सर! आप सोच रहे होंगे कि मैने लोगों को जवाब क्यों नहीं दिया... दरअसल जवाब के लिए मेरे पास था क्या? उस भीड़ में, सभी में ही मेरे पिता थे जो मुहल्ले भर की मर्यादा को टूटने नहीं देना चाहते थे। मेरे पड़ोसी चाचा जो अपनी ताकत से खड़े नहीं हो सकते उनमें भी कितनी ताकत भर गई थी। उन जवान और अधेड़ों के शरीर गुस्से से काँप रहे थे जिनकी नजरें हमेशा मुझे गिद्धों की तरह नौचती रही थी। किसी भी बहाने वे मेरी करीबी की आकांक्षा पाले जी रहे थे। मौका था तो उनकी भड़ास भी निकल रही थी। ऐसे में मैने उनका सामना करना उचित नहीं समझा था। मुझे यह बिल्कुल भी डर नहीं था कि वे लोग मेरे साथ क्या करेंगे बल्कि मैं ऐसा कुछ भी होने देना नहीं चाहती थी जैसा रवि चाहता था। लोग मेरे साथ बदतमीजी करें हंगमा हो पुलिस आये। दूसरे दिन दो लोगों से पूछ कर मीडिया खबर बनाए और संगठन के नये लड़के-लड़कियाँ घवराकर दूर छिटक जाँय, रवि यही तो चाहता था।
यहाँ से जाने से पहले में रातभर सोचती रही कि क्या मेरा रहना यहाँ ठीक है...? अंतः मुझे लगा कि अब आप और माथुर जी मेरे बिना भी नाटक करते रहेगो। मैने आपके साथ मिलकर युवा पीड़ी में वह बीज बो दिया है जिसे कोई रवि नहीं उखाड़ सकता।
राकेश सर! क्या मेरा यह फैसला गलत था? मैं नहीं जानती आप इसे गलत कहेंगे या सही लेकिन आप, माथुर जी और पूरा संगठन जानता है कि ''आंधी हो तूफान बबंडर नाटक नहीं रुकेगा" आपका अगला नाटक ही, रवि और मर्यादा के रक्षकों को जवाब होगा।
रही बात मेरे जाने की तो मुझे तो वैसे भी जाना था एक नये शहर में एक और संगठन का बीज बोने। मुझे फिर एक राकेश और माथुर जी को तलाशना है। इसलिए मैं दूसरे पड़ाव पर जा रही हूँ। अलविदा दोस्तो
आपकी दोस्त - शालिनी।
पूरी चिट्ठी पढ़ने के बाद मैं देर तक पत्थर का बुत बना बैठा रह गया था जैसे मेरे हाथ-पैरों को काठ मार गया था इस चिट्ठी में शालिनी की वही आँखें अब भी मैं देखता हूँ और माथुर जी के घर पहुँच जाता हूँ जहाँ पूरा यूनिट मेरा इन्तजार कर रहा होता है।