Tuesday 26 August 2014

चरित्रहीन

 

चरित्रहीन

एम हनीफ मदार

 
श्री राम नाम सत्य है... सत्य बोलो गति है, श्री राम नाम सत्य है... सत्य बोले गति है...। अर्थी श्मशान पहुँच गयी। पीछे एक लम्बी भीड़ भी श्मशान स्थल पर इकट्ठी होती जा रही थी। ये भीड़ मैडम की अन्तयेष्टी में शामिल होने आयी थी मगर सब के सब जैसे किसी मजबूरीवश यहाँ चल कर आये हों। सब के चेहरों पर जल्दी दाह-संस्कार सिलटने की व्याकुलता भी स्पष्ट झलक रही थी जबकि वे सब अपना-अपना बिजनेस या सर्विस यहाँ खड़े रहकर भी कर रहे थे मोबाइल्स के साथ या एक दूसरे के साथ मीटिंग में शेयर मार्केट या जमीनों के रेट जान कर। हाँ! मैडम के किसी परिवारीजन या किसी निकट संबधी से सामना हो जाने पर उनके खिलते चेहरे एक दम लटक जाते जैसे किसी खास परिवारी की चिता जलने की तैयारी हो रही हो। एक पल में उनके चेहरे की रेखाऐं ही नहीं भाषा और शब्द भी बदल जाते ''मेरी मुलाकात तो अभी पिछले मन्डे को हुई थी तब तक एक दम ठीक थीं मैम के साथ चाय पी थी देर रात तक बातें करती रहीं थीं... एक दम ही सब कुछ हो गया, सुबह सुना तो मुझे एक बार तो विश्वास ही नहीं हुआ।" कहते-कहते शर्मा जी का तो गला भी भर आया था। ''बड़ी ही नेक और दिलखुश महिला थीं।" अंत में भरे गले से बस इतना ही बोले। यही शर्मा जी थे जब पिछले हफ्ते मैडम ने इनकी छुट्टी मंजूर नहीं की थी तो ऑफिस से बाहर आकर बड़े तैश में कह रहे थे ''साली बड़ी जिद्दी है जम की जात... लम्बे समय तक इस कुर्सी पर तू ही नहीं रहेगी...? एक न एक दिन तो जाएगी ही। परन्तु अब एक दम से उन्हें देवी लग रही थी मैडम।
''जब भी ऑफिस से निकलती थीं, पीठ थपथपाकर परिवार तक का हाल-चाल पूछती थीं... बड़ी हिम्मत बड़ जाती थी हमारी ऐसा लगता था, माँ का प्यार मिल रहा है।" गुप्ता जी मुँह लटकाए जैसे अपनी माँ की चर्चा कर रहे हों। जबकि गुप्ता जी जानते हैं कि कल तक वे मैडम को आफत की पुड़िया कहते थे ''परकटी, आफत की पुड़िया" गुप्ता जी के यह शब्द प्रचलित भी हो गये हैं। वर्मा जी तो फोन पर एन. टी. पी. सी. का रेट पूछते-पूछते एकदम से क्या कहने लगे ''यार मैं यहाँ यमुनाघाट पर हूँ... हाँ यार वो हमारी मैडम आज सुबह एक्सपायर कर गयीं... एकदम से... हार्ट अटैक... हाँ यार परसों ही पूछ रहीं थीं वर्मा जी आपकी बेटी काफी दिन से मिलने नहीं आई... मैंने कहा हाँ मैडम! वह आज-कल एग्जाम की तैयारी कर रही है, परसों साथ ले आऊँगा... बोलीं बड़ी अच्छी बच्ची है... लेकिन आज...?" वर्मा जी ने जेब से रुमाल निकालकर आँखों में आए आँसुओं को सुखा लिया। वर्मा जी ने आए आँसू भी तब पौंछे जब वे आश्वस्त हो गये कि मैडम के भाई ने उन्हें देख लिया है और वे लाल आँखों से चिता के पास तक भी गये। वर्मा जी इतना तो जानते ही हैं कि, आँसू तो आँसू होते हैं। खुशी में हों या गम में उनका रंग और रूप नहीं बदलता। आँसुओं को खुशी या गम का सर्टिफिकेट तो बाहर का वातावरण देता है...। खुशी के माहौल में आँसू आ जाऐं तो खुशी के आँसू और वातावरण गमगीन हो तो दुःख के आँसू। तो वर्मा जी दुःखी कैसे हो सकते हैं वे तो जैसे दुआ माँ गते रहते थे, मैडम के मरने की। परसों भी तो कह रहे थे ''जब तक यह बुड्ढी नहीं मरेगी मेरी बेटी शादी को राजी नहीं होगी। हरामखोर रांड ने न जाने क्या उल्टी सीधी पट्टी पढ़ा दी है उसे, खुद तो बुड्ढी हो गयी ब्याह नहीं किया, लड़कियों को और बिगाड़ रही है... ऊपर से कहती है बेटी को मिलवाना... न जाने कब मरेगी निकम्मी''।
और तो और यह मैडम का चपरासी है दिलीप जो यहाँ आने के बाद से तीन बार घड़ी देख चुका है वह इतनी तेज आवाज में बड़बड़ा रहा है कि आस-पास के लोगों के साथ दस कदम दूर खड़ी मैडम की छोटी बहन आसानी से सुन ले।" अब ऑफिस मुझे खाने को दौड़ेगा... मैडम को देखते ही एकजान सी आ जाती थी।" यही दिलीप जो पिछले महीने मैडम को एक हफ्ते तक बीमार रहने पर बड़ा खुश रहा था यह जानकर, कि आज भी मैडम नहीं आयेंगी बड़ा खुश होकर गुप्ता जी से कहता था। आज भी उस रांड का चेहरा देखने को नहीं मिलेगा समझ लो आज का दिन भी अच्छा गुजरेगा और जनेऊ को कान में लपेटता हुआ हाथ की कन्नी उँगली उठाकर आगे बड़ जाता फिर घंटों में वापस आता था।
          चिता की लपटें तेज होने लगीं एक दूसरे को आँखों से इशारा करते हुए बगलें झाँकते एक-एक कर लोग श्मशान स्थल के गेट से ऐसे बाहर निकलने लगे मानो खुद की चिता को धोखा देकर बाहर निकल आऐ हों। ''बढ़ती लपटों के साथ-साथ भीड़ कम होती गयी चिता से धुंए के रूप में उठती जलते शरीर की दुर्गन्ध हवा के साथ उस ब्रेन्च पर भी पहुँचने लगी जहाँ मैडम के गाँव से आए गनेशी और रामप्रकाश बैठे थे।
''सब ठाठ धरा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा, इन्सान भी पानी के बबूले की तरह है... न जाने कब फूट जाय।" गनेशी चिता को एकटक ताकता बड़बड़ाया था। उसे उम्मीद थी बगल में बैठे रामप्रकाश चाचा कुछ बोलेंगे किन्तु राम प्रकाश तो जैसे वहाँ बैठे रहकर भी वहाँ थे ही नहीं। गनेशी विचलित था हवा के रुख से जो जलती चिता से होकर उनकी ओर आ रही थी। उसने रामप्रकाश को झकझोरकर कहा ''चाचा! आओ उधर बैठेंगे, इधर ज्यादा दुर्गन्ध आ रही है।" वास्तव में रामप्रकाश जैसे गहरी नींद से जागे थे ''हाँ! तू चल" गनेशी को लगा चाचा ने इतना कहने में पूरी ताकत लगाई है। गनेशी को इतनी भीड़ में मैडम के परिवार से भी ज्यादा दुखी रामप्रकाश चाचा दिख रहे थे। लेकिन क्यों? यह सब उसकी समझ में नहीं आ रहा था। आता भी कैसे गनेशी मैडम को अभी कितना जान पाया था सिवाय इसके कि वे शान्ती शिक्षा निकेतन की प्रधानाचार्या हैं और वह खुद उसमें बाबू है। अभी छह महीने पहले ही तो उसकी नौकरी लगी थी। गनेशी तो शायद इतना भी नहीं जान पाता कि उसकी प्रिंसीपल उसके गाँव अमापुर की हैं अगर पिछले महीने स्व. रमेश काका का बड़ा बेटा दीपक स्कूल में न आया होता। उसी ने बताया था कि ''दीदी यहाँ की प्रिंसीपल हैं।"
गनेशी ने चौंककर पूछा था ''सरला मैडम आपकी बहन हैं।"
''हाँ"
''और तू...?''
''मैं तो यहाँ बाबू हूँ।"
दीपक गनेशी की पीठ थपथपाकर मैडम के कमरे में चला गया था। गनेशी के मन में भी आया था कि वह दीपक से पूछे कि मैडम को कभी गाँव में नहीं देखा मगर न जाने क्या सोचकर रह गया था। इसी धुनामुनी में गनेशी उठकर दूसरी तरफ घास पर जा बैठा उसने रामप्रकाश चाचा पर नजर डाली जो अभी भी उसी मुद्रा में कहीं खोये हुए थे। उन्हें देखकर उसका दिमाग फिर चलने लगा, कहीं रामप्रकाश चाचा और मैडम का कोई चक्कर तो नहीं है...? निश्चित ही कोई चक्कर है क्योंकि श्मशान स्थल पर बैठे-बैठे वह इतना तो समझ ही गया था कि, रामप्रकाश मैडम के परिवार में से तो कम अज कम नहीं हैं क्योंकि मैडम के भाई या बहन रामप्रकाश को बस इतना जानते हैं कि वे उनके गाँव के सरकारी स्कूल में मास्टर हैं। और गनेशी के पिता के दोस्त इसलिए, गनेशी उनसे चाचा कहता है। किन्तु इस सबसे भी उसके दिमाग की हलचल शान्त नहीं हो रही। दोनों के चक्कर वाली बात भी उसके गले नहीं उतर रही क्योंकि रामप्रकाश चाचा तो शहर रहते हैं, गाँव में तो बस पढ़ाने आते हैं कभी-कभार उसके घर आ जाते हैं मगर मैडम को तो उसने बचपन से अब तक, पच्चीस वर्ष की अपनी उम्र में, गाँव में या अपने शहर में देखा तक नहीं, ना ही कोई चर्चा ही सुनी। अतः वह थक गया। उसकी समझ में कुछ नहीं आ सका।
आप भी सोच रहें हैं कि मैं आखिर किसकी और कैसी कथा सुना रहा हूँ , तो असल बात यह है कि गनेशी की समझ में कुछ नहीं आने वाला। गनेशी का तो तब जन्म भी नहीं हुआ था जब रामप्रकाश शहर के बी.एस.ए. कॉलेज में बी.ए. अन्तिम वर्ष की पढ़ाई कर रहे थे। रिटायर कर्नल के बेटे रामप्रकाश को मौके बे मौके कॉलेज की कई लड़कियाँ प्यार भरी निगाहों से टकटकी लगा लेती थीं। कोई उनकी सम्पन्नता की मुरीद थीं, कोई उनकी वाकपटुता की गुलाम तो कोई उनकी शक्ल सूरत पर मरती थी। उन सबका रामप्रकाश को ताकने का नजरिया भले ही अलग-अलग था किन्तु पहले-पहल तो सबकी नजरों में उनके प्रति चाहत ही थी। रामप्रकाश उनकी चाहत से जानकर भी अनजान बने फिरते थे। इस लिए लड़कियाँ उन्हें पीठ पीछे गाली भी देतीं थीं जो उनकी खीझ होती उसे वे आपस में बातों के रूप में बांट भी लेंती ''यार लिली यह आदमी है या पत्थर...? पता नहीं क्या समझता है अपने आपको।" ''फौजी बाप का बेटा है ना कुछ तो गुण होंगे ही।" दूसरी का सपाट जबाव होता था ''लेकिन जाएगा कहाँ किसी न किसी पर तो मरेगा ही।" तीसरी लड़की हल्के से लिली के गाल को नौच लेती और अगर रामप्रकाश को उधर आते देख लेतीं तो निरी भारतीय स्त्री बनकर शरमा जातीं या शायद डरती भी थीं उनसे। रामप्रकाश की क्लास उन्हें जिद्दी और गुस्सैले कहती थी तो लड़कियाँ उसे अकड़ू।
आदमी चाहे जितना गुस्सैल, जिद्दी या अकड़ू हो उसके अन्दर कहीं न कहीं एक इन्सान भी बसता है एक कोमल इन्सान जो शायद प्रेम के बिना भी नहीं रह सकता। यह अलग बात है कि प्यार को पनपने के लिए किसी खास जमीन वातावरण या मिट्टी की आवश्यकता नहीं होती। यही एक ऐसा अंकुर है, जो बिना बोए कहीं भी, किसी के लिए फूट सकता है। ठीक इसी तरह रामप्रकाश के मन में भी बी.ए. प्रथम वर्ष की छात्रा सरला के लिए प्यार का अन्कुर फूटा था। वरना उन्हें क्या जरूरत थी सरला के विषय में यह सब जानकारी करने की कि सरला पास के गाँव अमापुर के रमेश ड्राइवर की बड़ी लड़की है। उन्होंने न जाने कहाँ से ये जानकारी भी कर ली थी कि सरला के घर वालों की आर्थिक स्थिति ज्यादा ठीक नहीं है। वह खुद सिलाई का काम करके अपनी पढ़ाई पूरी कर रही है। कॉलेज में रामप्रकाश अक्सर सरला के आगे-पीछे घूमते किन्तु सरला को जैसे पढ़ने के अलावा दूसरा कोई काम ही न था। ऐसा भी नहीं था कि सरला को बारिश की बूंदें अच्छी न लगती हों। फूलों और उनकी खुशबू से भी अन्जान नहीं थी। अठाहरवें बसन्त की मनोहरी छटा उसके चेहरे पर ही नहीं पूरे बदन में उतर आई थी। मंहगे लिबास में ढंकीं अन्य लड़कियों से ज्यादा आकर्षक वह मामूली सलवार कुर्ते में दिखती चंचल तितली सी। बात-बात पर उसकी उन्मुक्त हँसी। हँसते हुए साँवले चेहरे पर उसके सफेद दांत ऐसे दिखते जैसे अंधेरे आसमान में बिजली चमकी हो। उसके भीतर का युवा मन उसे भी विचलित करता था मौसम के बदलने पर। तब सरला दिल और दिमाग के रूप में दो हिस्सों में बँट जाती और दिल पर मस्तिष्क हावी हो जाता अपने भविष्य की महत्वाकाँक्षाओं और वर्तमान की समस्याओं को लेकर। वह अपने दिल के साथ हारती रहती। इसलिए वह रामप्रकाश को जानकर भी अनदेखा करती। एकदिन रामप्रकाश ने सामने से उसका रास्ता रोक लिया मगर उससे कुछ भी न कह सके सिवाय उसके चेहरे को देखने के ''क्या है...?" कहकर सरला खिलखिला कर हँसी। रामप्रकाश कुछ कह पाते कि वह रामप्रकाश के बगल से होकर निकल गई। अगले दिन लाइब्रेरी में रामप्रकाश ने उसका हाथ पकड़ लिया। सरला एकदम चौंक कर सकपका गई।
''क्या है .....?" सरला के मुँह से इतना ही निकला।
''मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ।" रामप्रकाश के इस अप्रत्याशित प्रस्ताव से सरला भौंचक सी रामप्रकाश का चेहरा ताकने लगी। उसने झटके से अपना हाथ पीछे खींचा और जोर से हँसी...। इस समय सरला की हँसी रामप्रकाश के लिए असहनीय हो रही थी। सरला एकदम से गम्भीर हुई
''मैं अभी शादी के मूड में नहीं हूँ।"
''लेकिन क्यों...?"
''क्योंकि मैं अभी पढ़ना चाहती हूँ।" कहती हुई सरला जाने को हुई।
''पहले मेरी बात सुन लो फिर चली जाना" कहते हुए रामप्रकाश ने उसे फिर रोक लिया ''देखो मुझे नौकरी भी मिल रही है... फिर तुम्हें ज्यादा पढ़ने की जरूरत भी क्या है, ... तुम्हें कौन सी नौकरी करनी है? कमाने को मैं ही काफी हूँ।''
''तुम्हारा मतलब है, मैं इतनी एजुकेशन के बाद भी, इतने बड़े खुले आसमान को छोड़कर किसी हाड़-माँस की गुड़िया की तरह लाल जोड़े में लिपट कर रसोई में समा जाऊँ? जहाँ मैं अपनी छोटी-छोटी खुशियों के लिए भी तुम्हारा मुँह ताकती रहूँ... मुझे शादी नहीं, आत्मनिर्भरता चाहिए... इसलिए आइ एम सॉरी...।" कहती हुई सरला वहाँ से तेजी से बाहर निकल गई। रामप्रकाश को लगा जैसे उनके गाल पर किसी ने तमाचा मार दिया हो वह देर तक खड़े दूर जाते हुए सरला को ऐसे ही देखते रहे थे जैसे श्मसान स्थल पर जलती चिता की ओर देख रहे थे। श्मशान स्थल पर चिता की ओर टकटकी लगाए रामप्रकाश चाचा ऐसे लग रहे थे जैसे अब पचास वर्ष की उम्र में तब से अब तक के बीते सत्ताईस सालों के बाद सरला से कुछ कहने आऐं हों। यमुना किनारे की शान्त शीतल हवा में श्मशानघाट की बेंच पर बैठकर चिता को ताकते-ताकते उनकी चुंधियांई सी आँखें मिच गईं। जैसे अपने आप में ही कहीं गहरे डूब गये हों। मन के ख्यालों में डूबते-उतराते वे एक ऐसे धरातल तक जा पहुँचे जहाँ सरला उनके सामने खड़ी धीमे से मुस्कुरा रही थी। यह सैरेटन होटल का लॉन था। पाँच वर्ष पहले प्रिंसीपल बनने के बाद सरला ने ही उन्हें पत्र डालकर मिलने को वहाँ बुलाया था तब उसके चेहरे पर वह उन्मुक्त हँसी नहीं थी। बसन्ती चेहरे पर जीवन के संघर्ष की रेखाऐं उभर आईं थीं। काली घटा से उमड़ते बालों में धूप सी सफेदी चमक रही थी। आँखों पर चश्मा चढ़ाए साड़ी में लिपटी सरला को रामप्रकाश बिना कुछ बोले अपलक देख रहे थे। अनायास सरला ''क्या है...?" कहकर हँस दी। तब रामप्रकाश कुछ सहज हो सके थे। ''मैं तुम्हारे गाँव में मास्टरी कर रहा हूँ।" रामप्रकाश ने बात का सिरा पकड़ना चाहा था। ''मुझे मालूम है" सरला का सपाट सा उत्तर था।
''लेकिन तुम..." रामप्रकाश ने बात आगे बढ़ानी चाही। सरला के होंठ हल्की सी मुस्कान में फैले ''रामप्रकाश तुम्हारी आदत रही है कुरेद-कुरेद कर मन की बातों को पूछने की, लेकिन आज मैं तुम्हें परेशान नहीं करूँगी, सब बताऊँगी।" सरला रामप्रकाश के बगल में बैठ गई थी उसने एक गहरी साँस भरी फिर बोली ''उस दिन कॉलेज में मेरा मूड अपसेट हो गया था इसलिए मैं वहाँ से निकलकर शालू के घर चली गयी थी। वहाँ से घर पहुँचते-पहुँचते मुझे शाम हो चुकी थी। मैं बहुत खुश थी क्योंकि उस दिन पापा घर आ रहे थे। मैं पापा से बहुत प्यार करती थी। उस दिन घर में घुसते ही मुझे कुछ अजीब सा लगा था। घर में छोटू ने तेज आवाज में टी.वी. नहीं बजा रखी थी जिसे मैं रोज घर पहुँचकर बन्द कराती थी। चूल्हे में आग और धुऐं के बिना भी माँ की आँखों में आँसू थे। पापा का सिर उनके दोनों हाथों में टिका था इन सबके बीच की रिक्तता में एक मौत का सा सन्नाटा पसरा था। इतना सब कुछ मुझे विचलित कर देने को कम नहीं था। मैं सहमी सी पापा के पास पहुँची थी ''पापा" मेरा इतना कहना था, कि पापा ने एक थप्पड़ मेरे मुँह पर मारा था। उन्होंने दूसरा हाथ उठाया ही था कि चूल्हे से उठकर मम्मी ने पापा का हाथ पकड़ लिया ''अब तुम इस पर हाथ उठाकर क्यों खुद को पाप का भागी बना रहे हो।" उस पल मैं बिल्कुल भी नहीं समझ पायी कि माँ ने मुझे पापा से बचाया था या मुझे गाली दी थी। मैं आँखे फाड़े कुछ समझने का प्रयास करती कि माँ मुझे बालों से पकड़कर लगभग घसीटती हुई अन्दर कमरे में ले गयीं थी। उन्होंने किसी कैदी की तरह मुझे कमरे में धकेल दिया था। छोटी के खड़े-खड़े पैर काँप रहे थे। ''तू यहाँ क्यों खड़ी है...? निकम्मी चल यहाँ से..." माँ की डाँट से डरकर छोटी बगल वाले कमरे में चली गयी जहाँ में कपड़े सिलती थी। मैं अभी भी कुछ समझ पाने का प्रयत्न कर रही थी कि ''बेहया कौन से जनम का बदला लिया है तूने, यही पढ़ती थी तू।" कहकर माँ रोने लगी थी। ''क्यों अब हमारे बुढ़ापे में खाक डलवा रही है?" अंततः मैं झल्ला पड़ी ''कोई बताएगा भी आखिर हुआ क्या है?"
''देखो तो... बोल कैसी रही है?" अम्मा की दाँती भिंच रही थी।
''इसकी जुबान काट दे।" पापा बाहर से ही चिल्लाए थे।
''वहाँ से चिल्लाकर ढोल क्यों पीट रहे हो?" अम्मा पापा पर खिसियाईं थीं मगर हाथ मुझ पर बरसे थे। अब तक पापा भी उठकर कमरे में आ गये थे। मैं रो पड़ी और अम्मा को झटके से दूर किया और लगभग चीख पड़ी ''क्या किया है मैंने... क्यों इस तरह मार रहें हैं आप मुझे?''
''नाक कटवा दी हमारी... कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा और कहती है क्या किया है मैंने, ले देख यह क्या है?" दबी जुबान से बड़बड़ाते हुए अम्मा ने एक कागज मेरी तरफ बढ़ा दिया था। विस्फरित नेत्रों से मैंने कागज खोलकर देखा था जिस पर लिखा था ड्राइवर साहब, आप मुझे हितैशी समझें या दुश्मन परन्तु बात सच है मुँह से नहीं कह पाया इसलिए लिख कर भेज रहा हूँ, और किसी को बताई भी नहीं है। बात दरअसल यह है कि सरला अब बड़ी हो गयी है अब उसके हाथ पीले कर दो... वैसे भी आप तो बाहर रहते हो इसलिए यह देख भी नहीं पाते कि लड़की क्या कर रही है। बात इशारे में ही समझने की है, नहीं तो ज्यादा दिन यह बात छुप नहीं पाएगी कि लड़की चरित्रहीन है और आप एक चरित्रहीन के बाप... मिलूँगा तो सब बातें खुलकर बता दूँगा... आगे आपकी मर्जी।''
पत्र पढ़ते-पढ़ते मुझे लगा मैं पत्थर हो गयी हूँ जैसे मेरे शरीर का खून जमता जा रहा है। ''और कुछ बताना वाकी है क्या?" अम्मा के इन शब्दों ने जैसे मुझे जीवित होने का एहसास करया था। ''नहीं!" कहते हुए मैंने कागज को फाड़ दिया था उस समय मुझे मम्मी-पापा की मासूमियत पर तरस आ रहा था, और उनकी बेवकूफी पर गुस्सा भी। क्योंकि मैं समझ गयी थी यह हरकत किसकी है। मैंने हैण्ड राइटिंग को भी पहचान लिया था। मैं अपना सिर पकड़ कर बैठ गयी थी जो बहुत तेज दर्द करने लगा था।
''बेटा मुझे तुझसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।" पापा की आँखों में आँसू आ गये थे उनकी आवाज भर्रान लगी थी।
''मैंने तो पिछली साल ही मना किया था कि अब मत पढ़ाओ इसे। शहर जायेगी... जमाने के हालात देखो... मगर मेरी एक नहीं चली... बस... अब हो गयी तसल्ली।" अम्मा की इन बातों से पापा जैसे जमीन में गढ़े जा रहे थे।
''पापा ऐसा कुछ नहीं है जैसा आप समझ रहे हैं।" मैं पापा को समझाना चाह रही थी ''यह किसी की बदतमीजी है बस और कुछ नहीं।''
''ये बदतमीजी है, तो तू आज इतनी देर तक कहाँ थी...? और दिन तो तीन बजे ही आ जाती थी!" अम्मा बीच में ही बोल पड़ी थी जो चूल्हे में आग जलाने का बे मन प्रयास कर रहीं थीं।
''मैं अपनी फ्रैन्ड के घर मिलने चली गयी थी।''
''बिना बताए और इतनी देर तक...।''
''हाँ तो...? छोटू बिना बताए इससे भी ज्यादा लेट आता है तब।" मेरे सवाल से पापा तिलमिलाए थे।
''वह तो लड़का है।" कहते हुए पापा ने बीड़ी सुलगाई थी।
''तू उसकी बराबरी करेगी?" अम्मा फिर बोलीं थीं। ''अब तेरा स्कूल कॉलेज सब बन्द अब तू घर बैठेगी।" अम्मा ने फैसला सुना दिया था। अम्मा के इस फैसले से मेरी सांसे रुकने लगीं थीं जैसे वे मेरे पंख उखाड़कर फैंक देना चाह रहीं हों मैंने बोलने को हिम्मत जुटाई थी।
''तुम कौन होते हो मेरी पढ़ाई बन्द करवाने वाले... मैं आधी-आधी रात तक मेहनत करके खुद पढ़ रही हूँ... और तुम, अपने बच्चे पर विश्वास न करके, किसी गैर की बातों पर भरोसा कर रहे हो जिसे तुम शायद जानते तक नहीं... लेकिन मैं अपना जीवन बर्वाद नहीं कर सकती।" न जाने मुझमें इतनी ताकत उस समय कहाँ से आ गयी थी जब मैंने भी अपना फैसला सुना दिया था।
''न हमें सिलाई करवानी न पढ़ाई, हमारा घर है जैसे हम चाहेंगे वैसे रहेगी तू... समझ ले।" कहते हुए पापा बाहर निकले थे। इस बार मैं रोई-गिड़गिड़ाई ''पापा यह सब झूठ है, शरारत है किसी की मुझे पढ़ने दो प्लीज पापा!" मगर पापा नहीं पिघले। पापा के निकलने पर मैं जैसे उनपर चिल्लाई थी।
''तो सुन लो आप भी... मैं अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ सकती... चाहे इसके लिए मैं आपका घर छोड़ दूँगी" उस दिन पहली बार मैं पापा से इतनी ऊँची आवाज में बोली थी। सुनकर पापा एकदम से मेरी ओर मुड़े थे।
''क्या... क्या कहा तूने...? कहाँ जाएगी तू...? अब तू ज्यादा पढ़ गयी, जा चली जाना।" पापा ने मेरा बचपना समझकर व्यंग्य किया था या शायद चुनौती। हाँ अम्मा जरूर पापा पर गुर्राई थीं
''क्या कहा तुमने?"
''हाँ, हाँ ठीक कहा है... घर से बाहर निकलकर सब भूल जाएगी... और हम समझ लेंगे हमारे लिए मर गयी। वैसे भी हमारे जीने को बचा ही क्या है।" पापा के यह शब्द घोर हताशा में डूबे थे। उन्होंने जेब से शराब की थैली निकालकर गिलास में उड़ेली थी। रामप्रकाश को यह सब बताते हुए सरला कहीं खुद में ही डूबी हुई थी। ''तुम्हें पता है रामप्रकाश उस दिन मेरे घर में किसी ने खाना नहीं खाया था" कहकर सरला शान्त हो गयी जैसे सपने से बाहर आ रही हो उसने रामप्रकाश की ओर देखा रामप्रकाश अभी भी नजरें झुकाए सरला के बोलने का इन्तजार कर रहे थे। रामप्रकाश मुझसे मेरा घर छूटा किन्तु कागज पर लिखा हुआ वह चरित्रहीन शब्द मेरी आत्मा से अलग नहीं हुआ कहकर सरला ने अपना चश्मा उतारा और गीली हो गयीं आँखों की कोरों को अपनी साड़ी के पल्लू से सुखाया था। चश्मे में दिखता रामप्रकाश का बिम्ब जैसे आँखों में उतर आया हो जिसे देखकर रामप्रकाश के होंठ फड़फड़ाए कि, सरला ने अपने होठों पर अँगुली रख कर उन्हें शान्त करा दिया। रामप्रकाश केवल गहरी साँस भर ही ले पाये। सरला बोलने लगी थी ''अभी मेरी कहानी खत्म नहीं हुई है मास्टर साहब पहले उसे पूरी सुन लीजिऐ।
मैं दूसरे दिन कॉलेज गयी थी... सुनते ही रामप्रकाश ऐसे चौंके मानो किसी ने सोते में उनको थप्पड़ मार दिया हो...। ''क्क क्या तुम...?" मुँह से इतना ही निकला हाँ उनकी कुँए जैसी गहरी हो चली आँखें सिकुड़ कर गोल हो गयीं। सरला पुनः एक कंटीली सी मुस्कान के साथ कहने लगी थी ''हाँ... मैं तुमसे मिलने गयी थी, घर तो मैं सुबह ही छोड़ आयी थी, कॉलेज में तुमसे कुछ कहने और बताने गयी थी। परन्तु तुम मुझे वहाँ नहीं मिले थे उस दिन तुम भी कॉलेज नहीं आए थे, कहते-कहते सरला शून्य में ताकने लगी थी जैसे कुछ पढ़ने की कोशिश कर रही हो या लिखावट पर जमी धुंध को छँटने का इन्तजार। एक क्षण बाद वह फिर बोलने लगी। घर छोड़ना मेरे लिए आसान नहीं था किन्तु जो हुआ था उस सबके साथ वहाँ रह पाना मेरे लिए कहीं ज्यादा मुश्किल था। मैं अम्मा-पापा को तिल-तिल मरते भी नहीं देख सकती थी। वे अनपढ़ और सामाजिक मान-मर्यादाओं में जकड़े हुए थे तब शायद मैं अकेली उनके समाज से नहीं लड़ सकती थी। मैं रात भर ऐसे ही सोचती रही थी। सुबह घर छोड़ कर मैं बहुत पछता रही थी किधर जाऊँ मैं स्वाभिमानी थी वापस भी नहीं जाना चाहती थी इसी उधेड़ बुन में मैं स्टेशन पहुँच गयी थी। स्टेशन की बैंच पर बैठकर मैं घंटों रोती रही थी। मैंने अपने आँसुओं को बाहर नहीं आने दिया अन्दर ही पीती रही थी क्योंकि मैं जानती थी, बाहर निकलने वाले आँसू इस दुनिया से मेरा दर्द नहीं बेबसी बयाँ करेंगे, और मौका देंगे, उन अनगिनत आँखों को जो चारों ओर से मुझे घूर रहीं थीं या कहूँ नौंच रहीं थीं मेरे जिश्म को जैसे मैं उनके लिए एक इन्सान नहीं स्वादिष्ट गोस्त हूँ केवल गरम देह। उन आँखों में एक वहशीपन था वे आँखें मुझे इन्सानों की नहीं शिकारी चीतों की सी दिख रहीं थीं। मुझे लग रहा था वे आँखें मेरे आँसुओं को देखकर गिरगिट की तरह हमदर्दी का बाना पहनकर मेरे करीब आ जाऐंगी फिर शायद मैं भी दूसरे दिन अखबार की एक छोटी खबर बन कर ही रह जाऊँगी। सरला ने एक पल रामप्रकाश के चेहरे पर नजर डाली, रामप्रकाश ऐसे पलकें झपक रहे थे मानो किसी रोमाँ चकारी शिकार का हाल सुन रहे हों रामप्रकाश तब घर से निकलकर मुझे चिन्ता भूख की नहीं बल्कि इन्सानों के बीच खुद को इन्सान समझकर सुरक्षित खड़े रहने की थी।
बावजूद इसके मैं हारना भी नहीं चाहती थी क्योंकि हारना मेरे लिए मौत के बराबर था। मैं खड़ी होना चाहती थी तुम्हारे समाज की मर्यादा में लिपटे चरित्रहीन शब्द के खिलाफ जो स्त्रियों के सपनों और आकाँक्षाओं को मार कर उन्हें आत्महत्या करने को विवश करता रहा है... किन्तु मैंने जहर नहीं खाया और ना ही रेलवे लाइन पर लेट कर अपनी जान दी बल्कि सीना ताने खड़ी हुई अपने इरादों के साथ कहते-कहते अचानक सरला किलकती सी रामप्रकाश की ओर मुड़ी ''जानते हो रामप्रकाश! उस समय अचानक मेरे दिमाग में इकबाल की दो लाइनें कौंधीं थीं जो मैंने बचपन में पढ़ी थीं - 'संसार में अपने पंखों को फैलाना सीखो, क्योंकि दूसरों के पंखों से उड़ना संभव नहीं।' मैं बचपन में इनका इनका अर्थ नहीं समझ सकी थी लेकिन उस दिन स्टेशन पर मैंने इन लाइनों को भली भांति समझा था तब खुद को साबित करने की दृढ़ प्रतिज्ञा के साथ मैं अपने शहर से दूर इस शहर में चली आई थी।''
इस तरह विदुषियों सी बोलती हुई सरला में, रामप्रकाश की आँखे कॉलेज में नजरें झुकाए चुपचाप सहमी सी घूमने वाली सरला को खोज रहीं थीं। इसकी गवाही उनकी आँखे सरला के चेहरे पर एवं सिकुड़ी हुई भौंहे दे रहीं थीं। उनका मुँह खुला का खुला रह गया था उनका अचम्भा सातवें आसमान पर था। सरला उठकर टहलने लगी थी वह अचानक रुकी और बोली ''रामप्रकाश तुम्हें यह किसी फिल्म की कहानी सी लग रही होगी।" वह रामप्रकाश की ओर ऐसे मुड़ी थी जैसे क्लास में बैठे बच्चों को हिदायत कर रही हो। ''ऐसा समझने के लिए पूरी तरह तुम ही दोषी नहीं हो क्योंकि तुम भी, उसी समाज का एक अंग हो जो सदियों से स्त्री को अबला समझने के भ्रम में जीता आ रहा है। क्या फर्क पड़ता है अगर लक्ष्मीबाई, चाँदबीबी, रजिया सुल्तान, बेगम हजरत महल, मीरा, सहजोबाई जैसी अनगिनत स्त्रियों की वीरता एवं संघर्ष के कारनामों से भारतीय इतिहास रंगा हुआ है" सरला का चेहरा गम्भीर होता जा रहा था वह किसी रौ में बोले जा रही थी ''इंदिरा गांधी, मदर टेरेसा कल्पना चावला, मैडम क्यूरी जैसी स्त्रियों के गाढ़े हुए परचम अभी भी हमारे बीच लहरा रहे हैं।" अब सरला की आवाज भी बुलंद होती जा रही थी रामप्रकाश को सरला कोयी महान क्रांतिकारी सी नजर आ रही थी। सरला निरंतर बोल रही थी। महाश्वेतादेवी, मैत्रेयीपुष्पा तसलीमा, अरुंधती, मेधापाटकर, बछेन्द्रीपाल, सानिया मिर्जा, मायावती जैसी हजारों स्त्रियाँ प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में मौजूद हैं" बोलते-बोलते सरला एकदम शान्त होकर गहरी-गहरी सांसे लेने लगी। उसकी साँसों की गति के साथ उठता गिरता उसका वक्ष स्थल उसके भीतर उठ खड़े हुए किसी ज्वार भाटे को दर्शा रहा था। लगभग क्रोध से विकृत होता सरला का चेहरा डरावना हो गया था। जिसे देखकर रामप्रकाश के चेहरे की हवाइयाँ उड़ रहीं थीं। उन्हें लग रहा था जैसे वे किसी अदालत में अपने फैसले का इन्तजार कर रहे हों। कुछ पल की क्रिया के बाद सरला खुद को स्थिर करते हुए बोली थी ''इतने असंख्य प्रमाणों के बाद भी तुम्हारी दकियानूसी मानसिकता स्त्री को खुद से कमतर और कमजोर आंकती रही।" सरला के ये शब्द जैसे बर्फ में डूबे थे। सरला पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदती हुई कहने लगी थी ''रामप्रकाश मैं तुम्हारी जिन्दगी में आना चाहती थी, मगर तुम पर बोझ बनकर नहीं, साथी बनकर इसलिए मैं पढ़ना चाहती थी; आत्मनिर्भरता के लिए। मगर तुमने मुझे तोड़कर जीतना चाहा था क्योंकि तुम समाज से मिले अपने अधिकार को भली भांति जानते थे... स्त्री के चरित्र गठन का अधिकार... जिसके मानक तुमने बनाए हैं। तुम ही उसके चरित्र का सर्टिफिकेट देने का अधिकार रखते हो। और वही तुमने किया था... मेरे चरित्रहीन होने का सर्टिफिकेट देकर" सरला की अँगुली सीधी रामप्रकाश की ओर थी। सरला के इन शब्दों से रामप्रकाश पर जैसे बम फटा था उनका चेहरा काला पड़ गया था। वे मुँह में आया थूक भी नहीं निगल पा रहे थे। रामप्रकाश को, सामने खड़ी सरला की मुस्कुराहट और परेशान कर रही थी। उन्हें सरला के चेहरे की मुस्कान सामान्य नहीं लग रही थी। सरला की मुस्कान से वातावरण जहरीला होने लगा था। जिसमें रामप्रकाश को साँस लेना मुश्किल हो रहा था उन्हें घुटन हो रही थी।
''सरला... म...मुझे...?" इन दो शब्दों को बोलने में रामप्रकाश ने शरीर की पूरी ताकत झौंक दी थी। इतना भर कह पाने में रामप्रकाश का शरीर लगभग कंपकंपा गया था। सरला जैसे उनकी स्थिति भांप गयी थी। उसने रामप्रकाश को हाथ के इशारे से चुप करा दिया और खुद बोली ''रामप्रकाश तुम्हारे क्षमा माँ गने या तुम्हें क्षमा कर देने से क्या बदल जाएगा... मेरी मम्मी का मुझ पर अटूट विश्वास, पापा का गर्व या मेरे जीवन के महत्वपूर्ण सत्ताईस साल... लेकिन, मुझे कोई अफसोस भी नहीं है...।" सरला ने रामप्रकाश को सहज करना चाहा जो अब तक सिमटे-सिकुड़े किसी कैदी की तरह बैठे थे। सरला अचानक चिहुँक पड़ी ''अरे हाँ... मैं तो तुम्हें अपनी कहानी सुना रही थी... तो इस शहर में आते हुए ट्रेन में ही मेरी मुलाकात शांती शिक्षा निकेतन की संस्थापिका डॉ. विमलेश जी से हुई थी। सन की तरह सफेद बालों वाली उस सत्तर वर्षीय महिला की आँखों की चमक को मैं अभी तक नहीं भूल पाई हूँ। मैं तो ट्रेन में सीट के कोने में चिपकी बैठी खुद में ही इतनी डूबी हुई थी कि मुझे तो पता ही नहीं चला कि वे मेरे सामने वाली सीट पर कब आकर बैठ गयीं थी। ''विचारों में इतना डूबना ठीक नहीं होता बेटा।" मुझे टटोलते हुए यह वाक्य उन्होंने दुबारा कहा था। तब मैं सचेत हुई थी। मैं जैसे कोमा से बाहर आयी थी। तब मैंने उन्हें सामने बैठे देखा था। मैंने उन्हें नमस्ते किया था। तब उन्होंने ही बताया था कि मैंने एक बार तो उनकी बातों को सुना ही नहीं था। मुझे लगा वे शायद मुझसे बातें भी नहीं करतीं यदि उस कम्पार्टमेंट में भीड़-भाड़ होती तो। दरअसल कम्पार्टमेंट में वह भी मेरी तरह तन्हा थीं। हँसमुख और वाचाल डॉ. विमलेश की मोटे चश्मे के पीछे छुपी अनुभवी आँखों ने जैसे मेरे भीतर की वेदना को पढ़ लिया था और बातों ही बातों में मैंने उन्हें वह सब बता दिया था जो मैंने तुम्हें बताया है न जाने क्यूँ डॉ. विमलेश को यह सब बताते हुए मैं अपने आँसुओं को बाहर निकलने से रोक नहीं पाई। डॉ. विमलेश मेरी बगल में बैठ गयी थीं। उन्होंने मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा था ''तुम जानती हो औरत की सबसे बड़ी कमजोरी क्या है...? उसके ये आँसू। इसलिए आँसू नहीं, खुद को साबित करो। मुझे देखो मैं... खैर छोड़ो...।" इतना कहकर उन्होंने अपनी बात अधूरी छोड़ दी थी।
डॉ. विमलेश के इस अधूरे वाक्य ने मेरे अन्दर एक अजीब सी उत्सुकता भरी बेचैनी पैदा कर दी थी। उनके विषय में जानने की मेरी बेकली भरे अनुरोध के बाद वे हल्की सी मुस्कुराती बोलीं थीं। ''मेरी शादी एक सम्पन्न परिवार में हुई थी पहले बच्चे के रूप में हुई लड़की बची नहीं या कहूँ बचाई नहीं गयी। दूसरे बच्चे को जन्म ही नहीं लेने दिया गया क्योंकि वह भी...। तब मैंने पहली बार अपने उस पति का विरोध किया था जो मुझे बहुत चाहता था। परन्तु मेरे विरोध के साथ ही जैसे मैं ही उसकी सबसे बड़ी दुश्मन बन गयी थी। असल में मैंने उसके इशारों पर नाचने की बजाय अपनी भी इच्छाऐं जाहिर करना शुरु कर दिया था। हम एक ही छत के नीचे एक दूसरे से जैसे पराये हो गये थे। वह मुझसे पीछा छुड़ाना चाहता था, परन्तु वह मुझे मार तो सकता नहीं था क्योंकि वह जानता था, बाद में शायद समाज और कानून के हाथों बच वह भी नहीं पाएगा, मेरे मुँह पर तेजाब भी नहीं फैंक सकता था क्योंकि तब भी वहीं फंसता" कहते-कहते डॉ. विमलेश रुक गयीं थीं। उनके चेहरे पर घृणा के भाव साफ नजर आ रहे थे। मैंने ही टोका था। ''मैडम बात पूरी करो प्लीज।" वे धीमे से मुस्कुरा पड़ीं। उनका चेहरा अब सामान्य हो चला था। अचानक उनके मुँह से शान्त गम्भीर शब्द फूटने लगे ''हाँ उसके पास एक हथियार था। एक ऐसा हथियार जो केवल औरत के लिए बना है जिसका प्रहार करने से कानून या समाज को भी कोई फर्क नहीं पड़ता परन्तु औरत अवश्य जीवित रहते हुए भी मर जाती है...। केवल एक शब्द चरित्रहीन और सब खत्म।" कहते हुए डॉ. विमलेश की एक विषैली हँसी का ठहाका ट्रेन के डिब्बे में गूंज गया था मगर यह क्या चश्मे के पीछे छिपी उनकी आँखें किसी झील सी भर गयीं थीं। कुछ देर वे शान्त रहीं चश्मे के भीतर भरी झींलों को उन्होंने अपने रुमाल में सोख लिया था। अब उनकी आवाज भारी हो गयी थी।" तब मुझे पहली बार लगा था कि वह आदमी मुझे प्यार नहीं करता बल्कि उस कठपुतली को चाहता था जो उसकी अँगुली के इशारे पर घूमती थी। मैंने भी वह शहर छोड़ दिया था दुनिया बहुत बड़ी है यह सोचकर।" उनकी बात सुनकर मेरे मन में एक बड़े सवाल ने फन उठाया था ''फिर आपने इतना बड़ा निकेतन कैसे शुरु किया?" मैं उनके मुँह को ताकने लगी थी। डॉ. विमलेश ने दो घूंट पानी पिया और अपनी आँखों से चश्मा उतारकर रुमाल से साफ करते हुए बताया था ''मैंने जीविका के लिए एक स्कूल में नौकरी की और अपने हिस्से की सम्पत्ति के लिए पूरे दस साल तक केस लड़ा। अंततः मैं जीत गयी तब मैंने ऐसे निकेतन का सपना देखा जिसकी सब टीचर तेरे जैसे मजबूत इरादों की हैं जिन्हें समाज ने सम्मान नहीं दिया तो वे एक ऐसा भविष्य गढ़ने में जुट गयीं हैं जो उन्हें गुरु ही नहीं आदर्श मानता है।" मैं जब डॉ. विमलेश के साथ गाड़ी से उतरी तो मैं खुद में अजीब सी ताकत क अनुभव कर रही थी जैसे मुझे मेरी मन्जिल मिल गयी थी। उसके बाद मैंने कभी मुड़कर नहीं देखा। वहीं रहकर पढ़ाई पूरी की और प्रिंसीपल बनी" सरला के शान्त होने पर रामप्रकाश ने गहरी निःश्वास छोड़ी।
''तुम्हें कभी गाँव की या अपने शहर की याद नहीं आयी।" रामप्रकाश ने सरला को एक बार फिर कुरेदना चाहा था। उन्हें आभास भी नहीं था कि इस बात से सरला का मुँह इतना कसैला हो जाएगा। सरला इतनी बेचैन हुई कि वातावरण में उसकी सिसकियाँ गूँजने लगी। जैसे रामप्रकाश ने यमुना के शान्त पानी में पत्थर फैंक दिया हो।
''नहीं भूली... अब तक नहीं भूल पाई, गाँव की गलियों के बचपन को, पानी भरे खेतों में अपने पैरों के निशानों को, छत के ऊपर आकाश में बादलों के बीच उभरती आकृतियों को, उन पेड़ों को जो मेरे गुनगुनाने के साथ झूमने लगते थे।" कहते-कहते सरला फफक पड़ी थी। वह जी भर रो लेना चाह रही थी। बीते सत्ताईस सालों से रुका आँसुओं का बाँध जैसे टूट गया था। वह देर तक रोती रही रामप्रकाश चाह कर भी सरला के आँसू नहीं पौंछ पा रहे थे। सरला की गिघियाई सी आवाज निकल रही थी ''तुम्हारे एक कागज के टुकड़े ने मुझे सबके लिए मार दिया रामप्रकाश।" सरला अब गम्भीर होकर कह रही थी। ''मैंने कितनी बार सोचा वहाँ घूम आने को। मैंने एक पत्र डाला था घर पर, बताया था, मैं सकुशल हूँ, कभी आऊँगी।" सरला के आँसू थमे नहीं थे ''जानते हो रामप्रकाश मेरे पास पत्र का जबाव आया था। पापा ने लिखा था, सरला अगर जरा भी शर्म बची हो तो इधर मत आना जैसे-तैसे यह समाज तुझे भूल पाया है, कम अज कम तेरे बहन भाइयों की शादी तो हो पायेगी। उसके बाद...। हाँ छोटी का फोन यदा-कदा आता रहता था। एकदिन छोटी ने बताया था मेरी शादी है पापा पैसों के लिए बहुत परेशान घूम रहे हैं, तब मैंने उसकी शादी के लिए रुपये भेजे थे... तो जानते हो, पापा ने सहज वे रुपये ले लिए थे। फिर दूसरे दिन, फोन पर छोटी ने ही बताया था कि, पापा ने छोटू से कहा था कभी चुपचाप घूम आना उसके पास...। माँ पिताजी के मरने के बाद आज सब यहाँ मौजूद हैं इस चरित्रहीन की अन्त्येष्टी में, शायद खुश होंगे, एक चरित्रहीन इस दुनिया से चली गयी और शायद तुम भी रामप्रकाश।" कहते हुए सरला के होंठ विषैली मुस्कान में डूब गये थे। ''देखो! दुःखी मैं भी नहीं हूँ क्योंकि मुझे खुशी है कि, मेरी पढ़ाई हुईं कितनी ही लड़कियाँ आज अपनी इच्छा से स्वतंत्र और सुखी जीवन जी रहीं हैं।" इतना कहकर सरला हँसती हुई रामप्रकाश से दूर जाने लगी। रामप्रकाश की लाख मिन्नतें भी उसे रोक नहीं पाईं।
रामप्रकाश हड़बड़ाए से उठे जैसे होश में आ गये हों वे होटल में नहीं श्मसान स्थल की बैंच पर अकेले बैठे थे सामने सरला मैडम की जलती चिता राख के ढेर में बदल चुकी थी रामप्रकाश चाचा ने अपनी जेब से एक कागज का टुकड़ा निकाला उसे एक बार पढ़ा ''तू चरित्रहीन नहीं है" और उसे मैडम की चिता में डाला था। साथ ही रामप्रकाश की आँखों से दो बूँद आँसू भी टपके थे।


एम हनीफ मदार

उदघाटन

उद्घाटन
एम हनीफ मदार
          आफिस से छुट्टी ले रखी है। पहलवान जी का आग्रह ही ऐसा था कि ठुकरा ही न सका। दो दिन पहले ही बता दिया था पहलवान ने, ''बड़े बाबू! परसों राजू की चाय की दुकान का उद्घाटन होना है, आप वहाँ रहोगे तो हम दोनों को ही खुशी होगी। अभी से इसलिए कह दिया है ताकि आप ऑफिस से छुट्टी ले लें... क्येांकि ग्यारह बजे का टायम है...।"
तब तक राजू ने चाय उठाकर मुझे दे दी थी। मैं चाय की चुश्की के साथ, छुट्टी लेने न लेने का फैसला कर पाता कि, पहलवान ने मुझे भाँपकर ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी। "सोचो नहीं बड़े बाबू! भई अब तक आप मेरे हाथ की बनी चाय पी रहे हो। अब मैं चाहता हूँ कि राजू की दुकान की पहली चाय आप ही पियें। क्यों रे राजू! सही है न।" इस पर राजू ने भी विनय मुस्कान के साथ सिर हिला दिया। उस समय राजू की आँखों के उस दयनीय भाव ने मुझे अन्दर तक ऐसा पिघला दिया था कि मुझे छुट्टी करने का फैसला लेना ही पड़ा, वैसे भी पहलवान की घुमावदार बातों के जाल से बच निकलना इतना आसान भी तो नहीं है। पूरा किस्से बाज है।
पहलवान के किस्सों की वजह से ही तो मेरा उसकी चाय की दुकान पर बैठना शुरू हुआ। प्राइवेट नौकरी, मालिक के दवाव और हजारों लमझड़ों से चैन पाने के लिए कोई तो ठिकाना चाहिए ही था। तो पहलवान की दुकान से अच्छा और क्या था, जहाँ बातों के साथ चाय की चुश्की की संगत भी मिल जाती थी। सच कहूँ तो वहाँ बैठना शुरू होने के बाद मेरी ऑफिस का समय लगभग एक घण्टा बढ़ गया है। या तो सुबह जल्दी जाना और पहलवान से एक घण्टा बतियाना या लौटते में एक घण्टा बतियाकर घर पहुँचना। और फिर जहाँ इन्सान किसी से अपनी अगली-पिछली, अच्छी-बुरी बातों के साथ उन बातों और घटनाओं को भी बाँट ले जिन्हें वह अपने अन्तर्मन पर किसी भारी बोझ की तरह रखने को विवश हो। वहाँ एक दूसरे पर कुछ अधिकार अपने आप पनप ही जाते हैं।
पहलवान को लोग अक्खड़ कहें, कूढ़ मगज कहें या बड़बोला, लेकिन मेरी नजरों में उसकी बहुत इज्जत है। कुछ भी हो लेकिन मन का बड़ा साफ है। एक दिन दुकान के सामने सहारा समय के आफिस की चाय की उधारी लिखने के लिए, चीटे जैसी खिंचती टांगों को देख में हँस पड़ा। पहलवान चौंककर मेरी ओर देखने लगा "क्या हुआ बड़े बाबू आज चीनी ज्यादा डल गई क्या...?" मैंने अपनी हँसी को जबरन दबाते हुए कहा "अरे पहलवान ऐसा तो हो ही नहीं सकता, मशीन गड़बड़ कर सकती है लेकिन पहलवान के हाथ चीनी डालने में गड़बड़ करें ऐसा कहाँ सम्भव है।" पहलवान को लगा मैं जरूर उस पर व्यंग्य कर रहा हूँ।" बड़े बाबू मजाक मत बनाओ बताओ भी।"
"मैं तो यह सोच रहा हूँ कि शरीर जितना पुख्ता और मजबूत बना रखा है उसके साथ अगर थोड़ी सी पढ़ाई और कर ली होती, तो कम से कम यह चींटे की सी टाँगे तो नहीं काढ़ते।" कहकर मैं तो हँसने लगा लेकिन पहलवान कुछ गम्भीर हुआ। उसकी शक्ल देखकर मैं किसी अपराध बोध का अनुभव करने लगा। मुँह की हल्की मीठी चाय कसैली सी लगने लगी। पहलवान ताड़ गया मेरी स्थिति को सो मुस्करा उठा।
"ऐसी बात नहीं है बड़े बाबू! पढ़ने तो हम भी गये थे और तीसरी चौथी तक अपनी कक्षा में सबसे होशियार भी रहे अरे वह क्या कहते हैं... मॉनीटर रहे। हाथ-पैर तो बचपन से ही मजबूत थे। होते क्यों नहीं, पैदा ही भैंसों के बीच हुए।"
सुनकर मैं चौकन्ना हुआ "क्या कहा... भैंसों के बीच?"
''हाँ तो और क्या? मेरी दादी बताती थीं कि जब मैं पैदा हुआ था तब मेरी अम्मा पानी पिलाकर भैंसों को बाँध रही थी, वहीं दर्द उठा था, और बताती थीं कि जब तक मैं कुछ कर पाती कि तू वहीं गोबर में ही पैदा हो गया था।" कहकर मेरे साथ पहलवान भी देर तक हँसा। ''घर में आठ-आठ - दस-दस दुधारू भैंसे रहती थीं। पिताजी दूध का काम करते थे। जहाँ आप रहते हो न बड़े बाबू, वहाँ तक हमारी ही भैंसों का दूध आता था। यह बात एक दिन पिताजी ने ही बताई थी जब वे और मैं एक शादी से लौटते समय लक्ष्मीनगर से गुजरे थे।" पहलवान ने चाय छानी गिलास में डाली और फिर शुरु...।
''तो बड़े बाबू! बुरा न मानना, कि आपने अभी तक उतना पानी भी नहीं पिया होगा जितना मैंने दूध पी रखा है, वह भी निपनिया। अब तो ससुरा खोजे से भी नहीं मिलता। उस दूध का ही कमाल था कि मैं उम्र से पहले बड़ा दिखने लगा था। कहें तो अपनी कक्षा में ऊँट सा दिखता था मैं। पिताजी ने इसका फायदा उठाकर, मास्टरों को कुछ दे दिवाकर, एक साल निकलवाकर, छटवीं में कालेज में दाखिला करा दिया। बड़े बाबू अब हम थे तो बच्चे ही, शरीर ही तो तगड़ा हो गया था, इसलिए कालेज जाते बड़ा डर लगता था। हम कालेज जाने से ही कतराने लगे। एक दिन पड़ौसी गाँव के जोगेन्द्र जी जो हमारे यहाँ से दूध लेकर शहर जाते थे उन्होंने हमें घर देखकर पूछा, ''क्यों रे! स्कूल नहीं गया?" हम कुछ बोलते कि पिताजी बोले "अभी नया-नया कालेज गया है, सो डरता है वहाँ बड़े-बड़े लड़कों को देखकर।"
"अरे तो डरने की क्या बात है वहाँ अपना गोलू भी तो पढ़ता है। मुलाकात करा देंगे उससे। वह तो वहाँ कई सालों से पढ़ रहा है।"
''दूसरे दिन हमारी दोस्ती गोलू से करा दी गई।" इतना कहकर पहलवान ने काम करते अपने हाथों से सामान ऐसे छोड़ दिया जैसे किसी जज ने फैसला लिखकर कलम तोड़ी हो। पहलवान लम्बी साँस भरकर बड़ा ठण्डा सा बोला ''बस, यहीं से सब गड़बड़ हो गया था बड़े बाबू।" मुझे लगा पहलवान अब चुप हो जायेगा जबकि मुझे उसकी बातों में आनन्द आ रहा था। वैसे भी उस दिन इतवार था और पत्नी अपनी माँ से मिलने कृष्णानगर चली गई थी। घर पर कोई था नहीं, सो मेरा टाइम भी अच्छा खासा पास हो रहा था। अब तक लगभग ठीक दोपहर हो चला था। ग्राहकों की आवाजाही भी लगभग न के बराबर रह गई थी। बाहर सड़कों पर धूप का भयंकर तांडव हो रहा था। गोया खुली आँखों से देखना भी दूभर था। दरवाजे पर चलते कूलर की वजह से दुकान में कुछ राहत थी। इसलिए इससे अच्छी जगह उस दिन के समय को काटने के लिए कोई दूसरी नहीं थी। चाय मेरी कमजोरी थी जो लगातार मिल ही रही थी। मैंने उसे फिर छेड़ दिया ''पहलवान आखिर हुआ क्या?" पहलवान ने दूसरी चाय चढ़ाई और मेरे सामने किसी पेड़ के तने सी जाँघें फैलाकर बैठ गया और वहीं से शुरू हो गया।
''बड़े बाबू! गोलू पढ़ता लिखता तो था नहीं। हाँ स्कूल में उसकी दादागीरी खूब चलती थी। इसीलिए दसवीं में कई साल से फेल हो रहा था। स्कूल उसे निकाल भी नहीं सकता था। स्कूल कस्बे के उस इलाके में था जहाँ गोलू के मामा जी रहते थे। वे किसी पार्टी के नेता थे। उन्हीं के दबदबे के कारण गोलू स्कूल में कम, आवारागर्दी और मारपीट करने में ज्यादा रहता था।
चाय खौलने लगी तो पहलवान, चाय उतारने को उठा। उस दिन न जाने क्यों मुझे पहली बार लगा जैसे वह पहलवान न होकर किसी सर्कस का हाथी हो जो स्टूल पर बैठकर अपने करतब दिखा रहा था। उस दिन मैंने अपने आपको बड़ा मरियल सा महसूस किया था।
पहलवान दो गिलासों में चाय ले आया। मैंने चाय पीनी शुरू की। पहलवान अपनी चाय ठण्डी करने को कूलर के सामने रखकर फिर शुरू हुआ।
''बड़े बाबू! गोलू के साथ रहकर हमें भी मजा आने लगा था। अब स्कूल कब खुल रहा है। कब बन्द हो रहा है। हमें पता ही नहीं चलता था। हम पहले साल में ही छटवीं में फेल हो गये। लेकिन, हमें तमगा मिल गया था, पहलवान जी का। असल में, गोलू की तो तुम्हारी तरह खाल में हड्डियाँ बंधी थी। लेकिन मजाल कि कोई उसे उँगली भी टच कर सके, और अगर भूल से किसी ने ऐसा किया भी, तो शाम तक तो उसके हाथ पैर टूटने तय थे। यह मामाजी का प्रताप था। उसके साथ छोटी-मोटी मारपीट मैं भी कर लेता था सो उसी ने सबसे पहले मुझे पहलवान कहना शुरू किया था, और तब से आज तक बस पहलवान ही बने हुए हैं।"
पहलवान ने चाय उठायी और एक साँस में पीकर गिलास खाली करके रख दिया "यह बचपन की दूध पीने की आदत है। अब सुसरा दूध इस मूत में बदल गया है।"
पहलवान की इस बात ने मेरे मुँह का जायका बिगाड़ दिया। मैं हँस भी न सका, तो खुद ही हँस दिया और बोला ''माइन्ड मत करना बड़े बाबू! अपनी तो यह आदत है जी।" उसकी बात भी सही थी। पहलवान अक्सर ऐसी ही ऊट-पटाँग बातें या अश्लील शब्द बातों ही बातों में ऐसे शामिल कर देता है, जैसे वे शब्द भी उन बातों के ही अंग हों। बड़े बाबू! अब हम नहीं पढ़े तो न सही, पर तुम्हारी कृपा से साले तीनों बच्चों को पढ़ा रहा हूँ चाहे मुझे आधी-आधी रात तक चाय बेचनी पड़े। कहकर नीम की शाखों जैसी काली भुजाओं पर ऐसे हाथ घुमाकर मालिश सी करने लगा, जैसे कुश्ती की त्यारी में हो।
वैसे तो पहलवान की सब बातें ठीक लगतीं लेकिन उसे मुसलमानों से बड़ा परहेज था। इस बात पर कभी-कभी मेरी उससे बहस भी हो जाती जब पहलवान कहता "बड़े बाबू ऐसा दिन कब आयेगा जब हिन्दुस्तान में एक भी मुसलमान न मिले।" मैं उस पर हँसता और कहता ''पहलवान ऐसा दिन कभी नहीं आयेगा क्योंकि भारत के संविधान में, भारत को धर्म निरपेक्ष देश कहा गया है, जहाँ हर धर्म जाति के लोगों को साथ रहने का अधिकार दिया गया। समझे...।"
पहलवान तड़फ उठता ''गलत कहते हो बड़े बाबू! पहले हम भी मामा जी से यही कहते थे कि हमारे गाँव में सलीम मिस्त्री रहता है। उससे किसी को कोई परेशानी नहीं है। इस बात पर वे पहले हमें डांटते फिर समझाते तब हमारी समझ में आ पाया था।''
''क्या समझाते थे...?"
''यही कि औरंगजेब ने कितने हिन्दुओं को मुसलमान बनाया था। ... और ये सब उसी के वंशज हैं। हमारे ही नेताओं ने गलती की, नहीं तो जब बंटबारा हुआ तब ही इनको ढूँढ-ढूँढ कर पाकिस्तान भेज दिया जाता।"
मैं उसे डपटता "पहलवान तुम वे सिर-पैर की बातें क्यों करते हो?"
''कुछ भी हो लेकिन अब हमारा मन इन पर विश्वास कर ही नहीं पाता।"
''विश्वास न करने की कोई वजह भी तो हो।''
''क्यों, हम तो साले अनपढ़ हैं लेकिन तुम तो पढ़े लिखे हो। सब पढ़ा होगा... क्या मामा जी झूठ बोलते थे...?"
''पढ़ा है पहलवान तभी तो...।''
''तो बताओ... जरा मैं भी तो सुनू।''
''पहलवान उस समय की परिस्थितियाँ अलग थीं हिन्दू समाज में ऊँच-नीच, छुआ-छूत बहुत ज्यादा थी। छोटी जात का आदमी, बड़ी जात वाले के साथ बराबर बैठ नहीं सकता था। वहीं इस्लाम में कहा जाता था कि जिसने कलमा पढ़ लिया, वह एक हो गया और एक थाली में खा सकता था। इसलिए उस समय अनेक छोटी मानी जाने वाली जातियाँ खुद व खुद मुसलमान होने लगी थीं।" मैं कुछ और ज्यादा न बोलूँ इसलिए पहलवान खुद कह देता, ''बड़े बाबू आपका ऑफिस का टाइम हो गया।''
हालाँकि पहलवान ऐसी बातें रोज नहीं करता पर न जाने क्यूँ कभी-कभी उस पर भूत सा सवार होता था इन बातों का। मेरी ऐसी बहसों के बाद धीरे-धीरे उसकी यह आदत खत्म होने लगी थी या जान बूझकर मुझसे ऐसी बातें कम करने लगा था। मुझे भी इससे तसल्ली थी कि चलो पहलवान की सोच बदल रही है।
एक दिन सुबह ऑफिस से लगभग घण्टा भर पहले मैं पहलवान की दुकान पर पहुँचा। मुझे लगा पहवान कुछ धुना-मुनी में है। वह चाय बनाते हुए रोज की तरह ज्यादा बात भी नहीं कर रहा था। हाँ, बार-बार, बड़े काशीफल सी अपनी खोपड़ी के नीचे लगीं, किसी ट्रक की हैड लाइट सी दिखती आँखों से सड़क की तरफ देख लेता। मैंने भी उधर देखा कुछ खास नहीं था। सब रोज जैसा ही लगा वही चीख-पुकार करती भागती कारें, मोटर साइकिलें, वही दुकानों की झाड़-पौंछ, जल के छींटे और धूप। एक दूसरी में खोई बतियातीं सी बेपरवाह कालेज जाती लड़कियाँ। लगातार उन्हें ललचाई और घूरती नजरों से देखती कई जोड़ी आँखें। आखिर मुझसे रहा न गया तो पूछा ''क्या बात है पहलवान? कुछ परेशान हो क्या देख रहे हो?" पहलवान चाय छानते बोला ''बड़े बाबू उस लड़के को देख रहे हो?"
मैंने दुबारा देखा, सड़क पर एक आठ-नौ साल का बच्चा खड़ा था। ''हाँ तो, क्या किया है इसने?"
''यह आज सुबह से ही यहाँ खड़ा है जैसे मुझसे कुछ कहना चाहता है।"
''हाँ तो बुला लो उसे पूछ लो।"
''यह बात तो ठीक है बड़े बाबू! लेकिन पता नहीं ससुरा कौन होगा...?"
''मतलब...?" मैं चौंका।
''मेरा मतलब है, किस जाति का है...?"
'कुत्ते की पूँछ टेढ़ी की टेढ़ी ही रही।' मैंने मन ही मन कहा। ''ठीक है मैं बुलाकर पूछता हूँ।''
मेरे इशारे से लड़का मेरे पास आ गया। हरे रंग का नेकर जो मैल के कारण स्लेटी लगता था। ढीली बड़ी सी कमीज, नंगे पैर की एक उँगली में, घाव पर मिट्टी की परत सी चढ़ी थी। खुश्की से चटकी परत से झाँकते खून पर मक्खियाँ बार-बार आ बैठतीं। वह दूसरे पैर से उन्हें बार-बार हटाता। होठों पर जमी पपड़ी को वह जीभ की नमी से दूर करने की असफल कोशिश करता। मेरे पास आने तक उसके मासूम चेहरे पर कुएँ सी दिखती आँखे, मेरे हाथ में लगी चाय तथा दूसरे हाथ में लगे फैन पर से नहीं हट पाईं थीं। "भूखा है। चाय पियेगा...?"
उसने हाँ में सिर हिलाया। जैसे बोल पाने की ताकत उसमें नहीं थी। वह मेरे पास देर तक खड़ा भी नहीं रह सका, आकर नीचे जमीन पर बैठ गया, जैसे वह गिर पड़ा हो।
''पहलवान एक चाय पिलाओ इसे और दो फैन।"
''लेकिन बड़े बाबू! इससे पूछो तो कि यह है कौन ... मेरा मतलव...।"
''पहलवान गिलास के पैसे में दे दूँगा... गिलास दुकान में मत रखना।" मैं उस दिन झल्ला पड़ा था। पहलवान चुप हो गया और किसी उपकरण की तरह चाय बनाकर मेरे हाथ पे सौंप दी। चाय और फैन पर वह लड़का ऐसे झपटा जैसे देर से टकटकी लगाये कुत्ते को फैंकी गई रोटी को, कुत्ता सीधा मुँह में लपकता है। चाय पीकर उसने इधर-उधर ऐसे देखा जैसे किसी अंधे को दिखाई देने लगा हो।
मैंने पूछा "क्या नाम है तेरा...?"
"राजू"
''कहाँ रहता है?"
''मन्टोला।''
''और कौन-कौन है घर में?''
''बस अम्मा।''
''पापा कहाँ है?"
''पता नहीं...।''
''यहाँ खड़ा रहकर क्या कर रहा था?''
''भूख लगी थी।" इस बात पर वह ऐसे सकुचाया था जैसे यह भूख लगने का अपराध उसी से हुआ हो।
''अम्मा क्या करती है?''
''काम पर जाती है... अब बुखार आ गया है।"
उसकी हाजिर जबाबी और निश्च्छल बातें मुझे गहरे रसातल में ले जाने लगी थीं। मुझे नहीं ध्यान रहा था कि मैं ऑफिस को लेट हो रहा हूँ। पहलवान जो अब तक हमारी बातें चुपचाप बड़े गौर से सुन रहा था। उसने मुझे याद दिलाया "बड़े बाबू आपका आफिस...।" मैं जैसे गहरे पानी से ऊपर आया था। ''हाँ... जाऊँगा...।" मैं आफिस जाने को उठता कि उस लड़के ने फिर से मुझे रोक लिया।
"मैं काम करूँगा...।"
''काम... क्या काम कर लेगा तू...?"
''गिलास धो दूँगा... चाय दे आऊँगा... झाडू-पौंछा सब।"
मैं सुनकर देर तक सोचता रहा। वह चुपचाप टुकुर-टुकुर मेरी तरफ ऐसे ताक रहा था जैसे मैं ही उसकी किस्मत का फैसला करने वाला हूँ। मैं उसकी दयनीय आँखों से डर सा गया और मुझे विवश होकर पहलवान से कहना ही पड़ा। "पहलवान! रख लो इसे दुकान पर। यार... तुम्हारा भी हाथ बंट जायेगा और इसका भी कुछ भला हो जायेगा। वैसे भी, पहलवान तुम्हें एक लड़के की जरूरत तो है।''
सुनकर पहलवान अचकचा गया... ''वह तो ठीक है बड़े बाबू लेकिन... इसका क्या भरोसा... कौन है, कहाँ का है न जात का पता न धर्म का।" कहकर पहलवान अपने काम में लग गया।
"पहलवान! काम जाति धर्म करेंगे या आदमी...। दुनियाँ कहाँ से कहाँ पहुँच गई और तुम अभी तक वहीं के वहीं जड़ की तरह खड़े हो आखिर कब तक...।" मैं पहलवान से इस बात पर फिर भिड़ गया।
पहलवान ने कुछ लचीला रवैया अपनाया, लेकिन, उसने लड़के को जारे देकर पूछा "क्यों रे तू हिन्दू है या मुसलमान बता तभी काम पर रखूँगा...।"
इस बात पर मैं बौखला गया ''पहलवान हद होती है, भला यह बच्चे से पूछने वाली बातें हैं?"
''अरे बड़े बाबू! आप नहीं जानते, ये सब जानते हैं...।"
''हाँ तो सिखाता कौन है...? नहीं तो...।" खैर, मुझे लग गया, पहलवान नहीं टूटेगा इसलिए मैनें ही नई युक्ति निकाली ''पहलवान यह सिर्फ भूख जानता हैं ...। और फिर नाम राजू है तो जाहिर है कि...।"
''बड़े बाबू आप बच्चों जैसी बातें कर रहे हैं। राजू नाम तो किसी का भी हो सकता है। सामने परचूनी वाले का सामान जो रिक्शे वाला लाता है, उसका नाम राजू है, और वह मुसलमान है।" पहलवान जिद पर अड़ा था कि वह लड़के को काम पर नहीं रखेगा, और मैं कसदन करके इस बात पर आमादा था कि उसे काम पर लगवाके रहूँगा।
"पहलवान! मेरी उम्र का अनुभव कहता है कि यह हिन्दू ही है... इसलिए इसे काम पर रख लो। और अगर कोई और निकले तो जो चाहो सजा मैं भुगतने को त्यार हूँ।" मैंने लगभग आखिरी हथियार चलाया था। लेकिन पहलवान ने पराकाष्ठा कर दी। मैं न जाने कैसे अपने बाल नोंचकर पागल होने से बचा। जब उसने कहा "अच्छा ठीक है बड़े बाबू फैसला अभी होता है... इसे नंगा करके देख लो।" कहकर पहलवान हँसता हुआ दुकान से बाहर आकर, उसे पकड़कर दुकान के पीछे खींच ले गया। मैं उसे रोकता चिल्लाता रह गया। पहलवान यह ठीक नहीं है। यह अपराध है। तुम्हें नरक में भी जगह नहीं मिलेगी। मैंने उसे अपनी दोस्ती का वास्ता दिया... लेकिन, तब तक तूफान गुजर गया था। पहलवान मुस्कराता आया बोला ''चलो बड़े बाबू आपकी बात मान ली रख लिया इसे काम पर...।"
राजू की आँखें शर्म से खुद में गढ़ी जा रही थी। चाहकर भी वह मेरी आँखों में नहीं झाँक पाया था। उसका विचलन जैसे किसी मौन विवशता में जकड़ा हो। आसमान में न जाने कहाँ से काले सफेद बादलों के झुंड आकर खड़े हो गये थे। लगा जैसे बहती हवा ने रुक कर बादलों को भी रोक लिया हैा। मैं पहलवान से कुछ कहे बिना निकला और लाश की तरह चलता हुआ ऑफिस पहुँचा। उसके बाद कई दिनों तक मेरा पहलवान के पास जाने को मन नहीं हुआ।
एक डेढ़ हफ्ते बाद पहलवान ने मुझे रोका... ''बड़े बाबू! बात तो सुनो मेरी।" मैं अनसुनी करके निकल गया। शाम को उसने मुझे फिर रोकना चाहा तो मैंने अनमने कहा ''कल छुट्टी है, कल आऊँगा।''
वैसे भी वक्त का मरहम बड़े से बड़े घाव भर देता है। लगभग पन्द्रह दिनों में, मैं भी उस दिन के अवसाद से कुछ मुक्त हो गया था इसलिए दूसरे दिन पहलवान की दुकान पर पहुँचा था।
"आओ बड़े बाबू!... जयराम जी की... चल रे राजू बड़े बाबू के लिए चाय बना।" पहलवान गल्ले से उठकर मेरे पास आ गया। ''साहब की नाराजी दूर हुई कि नहीं?" मैं चुपचाप अन्दर जाकर बैठ गया। असल में राजू को देखते ही मेरे मन में छुपा उस दिन का वही दृश्य दुबारा से चीत्कार कर उठा था। मैं उस चीत्कार से दहशत खाकर फिर वापस आ जाता अगर राजू के चेहरे पर इतनी खुशी न दिखती तो। राजू ने धुले हुए पैन्ट कमीज पहन रखे थे। इन पन्द्रह दिनों में ही उसका वास्तविक रूप रंग बाहर झाँकने लगा था। उसने हँसते हुए हाथ जोड़कर नमस्ते किया। मैनें उसकी पीठ थपथपाई "मजे में है... अब अम्मा कैसी है...।" ''ठीक है... काम पर जाने की कह रही थी। मैंने मना कर दिया... क्या करता फिर दुबारा बीमार पड़ जाती...।"
मैं उसकी मासूमियत पर मुस्कराया। तो पहलवान को भी साहस मिला बोलने का "बड़े बाबू साला किस्मत का बड़ा धनी है, जिस दिन से दुकान पर लगा है न जाने कहाँ से ग्राहक टूटने लगे हैं।"
"हाँ अब तुम भी साफ-सुथरे रहने लगे हो... चलो अच्छा है, तुम्हारा काला रंग भी कुछ निखार पा जायेगा।" मेरी इस बात पर पहलवान ठठाकर हँसा। राजू की बत्तीसी भी चमकी। "बड़े बाबू अब पूरा दिन ऑडरों पर चाय चलती ही रहती है।"
"पहलवान! राजू चाय दे आता है, तो ऑर्डर भी आते हैं। पहले अकेले थे। तुम कहीं जा नहीं पाते थे, तो काम भी कम चलता था।"
"यह बात नहीं है बड़े बाबू...।"
"तो...।"
"असल में राजू के आने के बाद भी तीन-चार दिनों तक काम में कोई अन्तर नहीं आया...। उस दिन मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं थी तो मैं नहा कर नहीं आया था। इसलिए मैंने कहा राजू पूजा तू कर ले... बस, इसने पूजा क्या की, कि बस...?" पहलवान ने अपना पूरा भाषण मेरे ऊपर मेरे वौस की तरह झाड़ा।
"पहलवान यह तुम्हारा भ्रम है। अरे तुमने दुकान पर एक लड़का रख लिया, यह लोगों को तीन-चार दिन में ही पता चल पाया होगा... और जब उन्हें पता लगा, तो वे तुमसे चाय भी मंगाने लगे।"
''आप कुछ भी समझें बड़े बाबू, लेकिन मैं रोज पूजा इसी से कराता हूँ। इसकी पूजा और ईमानदारी से भगवान भी इतना खुश है कि मेरा काम...। यही बात उस दिन मामा जी कह रहे थे जब वे यहाँ आये थे।
''क्यों रे राजू! क्या खिला दिया तूने पहलवान को, बड़ी तारीफें कर रहे हैं तेरी।" सुनकर राजू किसी नई दुल्हन की तरह मुस्कराता हुआ शर्माकर खुद में और सिमट सा गया। पहलवान की दुकान पर उन दिनों पहले से ज्यादा अच्छा लगने लगा था। राजू और पहलवान दोनों खुश थे। पहलवान राजू के किस्से सुनाता न थकता था।
उन दिनों दुकान में साफ-सफाई ज्यादा रहने लगी थी तो दो चार ग्राहक भी हर समय बैठे रहते थे। ऐसे समय में, मैं जाता नहीं था। उस दिन आफिस से जल्दी चला आया था। कन्डोलैन्स हो गया था। पहलवान की दुकान कुछ खाली दिखी तो मुड़ गया।
"अरे बड़े बाबू इस समय कैसे...?" शान्त अकेला बैठा पहलवान हरकत में आया।
''चेयर मैन की माँ मर गयी, हमें छुट्टी दे गई तो चला आया। राजू कहाँ गया मैने दुकान में कदम रखते ही पूछा।''
''घर गया है खाना लाने। अब घर जाता है तो, अपना खाना खा आता है मेरा ले आता है। बच्चों के साथ बैठता बतियाता है। बच्चा पूरा भरोसे का है, अरे आप लाख का सामान यहाँ छोड़ जाओ मजाल क्या है कि तनिक भी इसकी नीयत डोल जाय... अब यह सब...।"
"क्या...।" उसकी अधूरी बात सुनकर मैं आशंकित हुआ, कहीं आज इस पर वही भूत तो सवार नहीं।
और अगर ऐसा हुआ तो आज फिर फंस गया। मैं अभी सोच ही रहा था कि
"बात संसकारों की है बड़े बाबू। मामा जी कहते हैं हम तो समझदार हैं तो कोई बात नहीं, लेकिन, अपने बच्चों को इन लोगों से दूर रखकर ही हम अपने संसकार बचाये रख सकते हैं।"
मैं वहाँ से उठकर चला आता लेकिन पहलवान चाय बना चुका था छोड़कर आता तो उसे बुरा लगता फिर राजू का इन्तजार भी था। उससे मिले बिना जाने का मन भी नहीं था। बस इसी लिए कसमसाकर वहीं बैठा रहा। मैंने चाय पीना शुरु ही किया था कि। ''नमस्ते जी...।" राजू के मुस्कराते चेहरे को देखकर पहलवान की बातों से भारी हो चुका मेरा मगज कुछ हल्का हो गया। मैंने उसके सिर पर हाथ रखा।
''मजे में है।''
''हाँ जी...।" कहकर मुस्कराते हुए काम में जुट गया। दुकान के दरवाजे की ओर मेरी पीठ थी। पहलवान मेरे सामने आकर बैठ गया था। अचानक पहलवान चीख सा पड़ा ''राजू...।" पहलवान के चेहरे की रेखाऐं अजीब तरह विकृत सी दिखीं। मैं हड़बड़ा कर पीछे मुड़ा, देखा वहाँ कोई नहीं था सिवाय सहमे हुए राजू के। हाँ टोपी पहने अगली दुकान की ओर बढ़ते हुए एक आदमी की पीठ जरुर दिखी थी। शायद भिखारी रहा होगा लेकिन मैं कुछ समझ नहीं पाया। मैंने परेशान होकर पहलवान से पूछा ''क्या हुआ...?''
कुछ देर तक पहलवान नहीं बोला ''इन लोगों से इतनी हमदर्दी ठीक नहीं है...।" कहते हुए उसका मुँह ऐसा लगा जैसे उसने कोई कड़वी दवा पी ली हो। अब मेरी समझ में आ गया था कि आखिर माजरा क्या है। जरुर राजू ने उस बूढ़े को कुछ दे दिया होगा। उस दिन मुझे न जाने क्या हुआ कि मैने झटके से चाय का गिलास रखा और सीधे पहलवान से पूछा ''पहलवान तुम्हें मुसलमानों से इतनी नफरत क्यों हैं?" साथ ही मैं कनखियों से यह भी देखने की कोशिश में था कि राजू इन बातों को सुन तो नहीं रहा है। लेकिन आश्वस्त था कि राजू हमारी इन बातों से, बिल्कुल बेपरवाह बना गिलास धोने में जुटा था। और फिर पंखे की सरसराहट और कूलर की आवाज के कारण उसे हमारी बातें सुनाई नहीं दे रहीं थीं।
बात शुरू करने से पहले ही पहलवान का मुँह कसैला सा होने लगा... "नफरत... बड़े बाबू नफरत है और होनी चाहिए...। यह नफरत ही तो हमको ताकत देती है नहीं तो, ये लोग आज भी हम पर हावी हो जायेंगे...। देखते नहीं इनकी आबादी कितनी तेजी से बढ़ रही है...। जैसे इसी काम पर लगे रहते हैं हर साल एक बच्चा...।" मैं सोच रहा था कि हमेशा की तरफ पहलवान हँसने लगेगा। परन्तु वह गम्भीर था। वह तो और बोलता रहता मैनें ही टोक दिया, ''पहलवान! तुम नेताओं वाले भाषण देने लगे।"
"हाँ तो मैं हूँ नेता... अपने गाँव के सेवा दल का अध्यक्ष हूँ।" कहते हुए पहलवान तसल्ली से बैठ गया वैसे भी अब उसे ज्यादा फिकर नहीं थी दुकान की राजू सम्भाल लेता था। अब वह कुछ सहज भी दिख रहा था तो मेरा मन भी हो गया बैठकर सुनने का।
''बड़े बाबू जब हम पढ़ नहीं पाये तो नेतागिरी तो करनी ही थी... और भला हम नहीं करेंगे तो क्या आप जैसे पढ़े-लिखे करेंगे।" कहकर पहलवान हमेशा की तरह हँसने लगा... "बुरा न मानना बड़े बाबू...।" मैं उसकी इस फितरत से तो परिचित था ही सो मैं केवल मुस्कराता रहा वह बोलता जा रहा था। गोलू के मामाजी ने ही नेतागिरी करना सिखाई, और सिखाई क्या नेता बनाया।"
राजू चाय रख गया। पहलवान ने एक चाय उठाकर मुझे दी और एक बड़ी सी चुश्की भरी और ''बड़े बाबू! गोलू के मामा, बड़े ज्ञानी आदमी हैं। उनके भाषण सुन-सुनकर मैंने बहुत बातें सीखीं।" पहलवान ने किसी बच्चे द्वारा नाक सुड़कने की सी आवाज के साथ चाय की एक और चुस्की भरी।
''शुरू-शुरू में तो मामाजी की बातें सुनकर मेरा दिमाग खराब होता था। वे हमें बताते कि मुसलमानों ने हमारे देश को किस-किस तरह से लूटा, कितने बड़े बड़े विश्वासघात किये, हमारे मन्दिरों को ही नहीं तोड़ा बल्कि हमारे कितने ही हिन्दू परिवारों को अपनी ताकत के बल पर मुसलमान बनाया। औरंगजेब इसकी जीती जागती मिसाल है। खुद बाबर ने राम मन्दिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनवाई और आज हम उन्हीं मुसलमानों को अपने साथ बिठाकर, उन पर विश्वास कर रहे हैं। ये आज भी देश भर में आंतकी हमले कर हमारे साथ विश्वासघात कर रहे हैं। ऐसे में भी यदि हमारा खून नहीं खौलता तो हम भारत माँ के सपूत नहीं है। धिक्कार है हमें हमारे हिन्दू होने पर।''
''उनकी बातें सुन-सुनकर मैं परेशान होता। हमारा पड़ोसी था सलीम। मैं सोचता क्या वह हमारे साथ कोई धोखा तो नहीं कर देगा...।"
कोई ग्राहक किसी बात पर राजू से उलझ गया तब पहलवान अपनी बातों को बीच में रोककर राजू के पास उठ गया। मेरे अन्दर जैसे कहीं शीशा पिघलने लगा उसकी तपिश मेरे भीतर एक अजीब विचलन की स्थिति पैदा करने लगी। मैं परेशान था यह सोचकर कि किस तरह पहलवान जैसे सीधे-साधे लोगों को इस हद तक बरगला दिया जाता है।
पहलवान वापस आया तो मैंने पूछा ''गोलू के मामा कितने पढ़े लिखे हैं?"
''वे कितने पढ़े हैं यह तो नहीं पता हाँ लेकिन वे कहते हैं कि नेता को पढ़ा-लिखा होना क्या जरूरी है। और उनकी बात सही भी है। हमारे विधायक जी तो खुद अपना नाम नहीं लिख सकते तो क्या हुआ?" कहकर पहलवान हँसा, मैंने भी मुस्कुराकर साथ दिया।
''एक दिन गोलू ने कहा मामाजी पहलवान ने स्कूल छोड़ दिया है। कोई बात नहीं इसे नेता बना देते हैं। मैं इलाके में मामाजी की धाक से अचम्भित तो पहले ही था, मैंने कहा कैसे? वे बोले तुम्हारे गाँव में एक सेवादल का संगठन बनवा देते हैं। तुम उसके अध्यक्ष होगे और बड़े बाबू! तीसरे दिन तो मामाजी ने गाँव में मीटिंग करके, हम कई लड़कों का एक दल बना दिया। उन्होंने बस अपना एक भाषण दिया और सब मान गये। मुझे उसका अध्यक्ष बना दिया। मामा जी मीटिंग में बड़ी गहरी गहरी बातें सिखाते-समझाते जो हम गँवारों की समझ में नहीं आती थीं। तब अंत में उन्होने एक मत्र सिखाया कि मुसलमानों पर शक करना भी पुन्य का काम है इसे भी देश भक्ति कहा जाता है।"
"पहलवान फिर चाय की दुकान... तुम तो मामाजी की तरह नेता बन गये थे।"
"यह सब पिताजी की मेहरबानी है उन्हें मेरी बात कभी समझ ही नहीं आई।"
"कैसे... मैं समझा नहीं।''
सलीम का हमारे घर में ज्यादा आना जाना था। सेवादल के साथियों को यह सब बुरा लगता था एक दिन मैंने पिताजी से कहा "बापू सलीम का हमारे घर में आना जाना ठीक नहीं है?"
''क्यों रे ...? क्या बात है...? क्या हुआ है...?" पिताजी चौंक पड़े।
''इस पर भरोसा करना ठीक नहीं है।''
''आखिर हुआ क्या है, कुछ बताएगा भी या ऐसे ही?''
''क्योंकि यह मुसलमान है...। और हमारा इतिहास कहता है कि...।" मैं बस इतना ही कह पाया था कि पिताजी बमक पड़े -
''उल्लू के पठ्ठे, साले गँवार, खुद तो छटवीं में फेल हो गया और हमें इतिहास पढ़ायेगा...।" पिताजी ने सैकड़ों गालियाँ सुनाईं। बोले ''गाँव में दुकान खुलवाउँगा तेरे लिए तब तेरी नेतागीरी ढीली होगी।''
''बड़े-बाबू! हम कुछ दिन के लिए शान्त हो गये इस डर से कि, यदि, पिताजी ने दुकान के काम में फँसा दिया, तो हो गई भारत भूमि की सेवा। लेकिन मुझे सलीम या उसके घर वाले दिखते तो खलबली सी होती। अब मेरी पिताजी से कहने की हिम्मत नहीं थी। यह हालत केवल मेरी ही नहीं थी, हमारे सब साथियों की थी। मेरी तरह सबको घरों पर फटकार ही मिली थी।" पहलवान बहुत देर बाद हँसा था। एक पल शान्त रहकर फिर गम्भीर हुआ और मेरे और करीब आकर धीरे से बोला "गाँव भर में इस मुसल्ले का इतना सम्मान और हम साले इसके लिए फटकार खायें। मैंने सेवा दल की मीटिंग में यह बात कही तो एक योजना बनी" इतना कहकर पहलवान ने इधर-उधर देखा फिर मेरे कान के पास अपना मुँह लाकर फुसफुसाया ''उसी रात हमने उसके घर में आग लगा दी।"
''क्या...?" मैं लगभग उछल पड़ा। एक पल को पहलवान मुझे दरिन्दा लगने लगा जैसे वह मेरे सर पर फरसा ताने खड़ा हो। मैं तब और डर गया जब पहलवान मुझे इस हालत में देखकर हँसने लगा। "अरे बड़े-बाबू यह बात बहुत पुरानी हो गई, असली बात तो आपने सुनी नहीं। आप तो ऐसे बबक पड़े जैसे वह घर आपका ही हो। कहकर वह फिर हँसा। मैं सहज हुआ तो पहलवान बोला। "हम तो आग लगाकर भाग गये थे तब तो किसी को पता भी नहीं चला था कि यह सब हमने किया है। लेकिन न जाने कैसे, पिताजी भाँप गये थे। हम तो तीन दिन बाद, जब गाँव लौटे तब हमें पता चला था कि घर में कोई नहीं बचा।''
''फिर...?" मैं स्तब्ध... बहुत हिम्मत के बाद बस इतना ही कह सका।
''फिर क्या पिताजी ने घर में नहीं घुसने दिया। कह दिया मेरे लिए तू मर गया। भला हो मामा जी का कि उन्होंने यह दुकान दिलवाई। चाय की दुकान इसलिए खोल ली थी कि और कुछ तो हमें आता नहीं था।"
"तुम्हारे पिताजी...?" मैंने लम्बी साँस खींची थी जैसे देर से पानी में डुबकी लगाये था, जब दम घुटने लगा तो एक दम से बाहर निकला हूँ।
इतनी देर में पहली बार पहलवान के चेहरे पर किसी अवसाद की छाया सी दिखी थी। ''पिताजी उसके बाद बीमार पड़ गये थे। मैं कई दफा रात में उनसे मिलने गया। उन्हें शहर लाकर इलाज कराने की जिद भी की.... लेकिन उन्होंने मुझसे बात करना भी बन्द कर दिया था। बोले थे - 'तू मेरा बेटा नहीं हो सकता... और बोले... तू... तू मेरी चिता को आग मत देना, नहीं तो मैं ईश्वर को जबाब नहीं दे पाऊँगा।' हमारा एक नौकर ही उनकी और भैंसों की देखभाल करता रहा और एक दिन...।
एकदम से पहलवान की गर्दन ऐसे लटकी जैसे उसे गहरा सदमा लगा हो... वह मुँह लटकाये ही धीरे से बोला ''बड़े बाबू! फिर मैं वहाँ जाकर क्या करता....?" मुझे लगा जैसे उसकी आवाज भर्रा रही है लेकिन अगले ही पल उसने अपने सिर को अजीब तरह से झटका दिया, और छाती फुलाता बोला, जो भी हो, खुशी इस बात की है कि गाँव में एक भी...।"
मैं पहलवान की पूरी बात सुने बिना ही उठा बाहर राजू की नमस्ते का जबाब देता चला आया था पहलवान की कहानी का क्लाइमैक्स हो चुका था लेकिन मैं बौराया सा हो गया था।
उसके बाद एक बार फिर मेरा मन पहलवान की दुकान पर जाने का नहीं हुआ। मैं यह मानने को त्यार नहीं हो पाता था कि पहलवान ने वाकई ऐसा किया होगा? यदि हाँ तब तो वह आदमी पास बैठने या बिठाने लायक है ही नहीं। फिर सोचता नहीं... नहीं ऐसा जघन्य अपराध पहलवान नहीं कर सकता। बस यूँ ही शेखी बघारने के लिए कहता है।
इसी ऊहापोह में मैं महीनों उसके पास नहीं जा पाया। कोई फैसला कर ही नहीं पा रहा था मैं, कि एक दिन अखबार की खबरों ने मुझे परेशान कर दिया। मन्टोला में साम्प्रदायिक दंगा। कुछ लोगों ने एक स्कूल बस पर हमला बोल कर उसमें आग लगा दी। बस में कुछ बच्चे सवार थे। मन्टोला क्षेत्र में पुलिस, पी.ए.सी. तैनात कर दी गई है। बस में से जो बच्चे जान बचाकर किसी तरह भाग निकले थे उनमें से दो बच्चों का अभी तक पता नहीं। बस में सभी बच्चे हिन्दू परिवारों के थे।
समाचार की इस आखिरी लाइन ने मुझे बौखलाने को मजबूर कर दिया। "यह भूमिका है समाचार-पत्रों की समाज के प्रति। क्या आखिरी लाइन लिखना आवश्यक था..? अरे बच्चे सिर्फ बच्चे होते हैं, हिन्दू या मुस्लिम नहीं। इससे, आग और भड़के, इनकी सेहत पर क्या फर्क है। इनके लिए तो यही मसाला है।" मैं कमरे में अकेला ही बड़बड़ा उठा कि तभी मुझे राजू का ध्यान हो आया... राजू भी तो मन्टोला में ही रहता है। बस इतना सोचते ही मैं पहलवान की दुकान की तरफ लपका।
पहलवान की दुकान बन्द देखकर मेरी उखड़ी सांसे और भारी होने लगीं। न जाने कितनी शंका-आशंकाओं का बोझ मैं अपनी साँसों में महसूसने लगा। यहाँ बाजार रोज की तरह ही रोशन था लेकिन एक सहमापन सा सबके बीच घूम रहा था। चेहरों पर दहशत और दर्द की लकीरें एक साथ उभर रही थीं। "यह अच्छा है कि बाजार खुल रहा है।" मैं बुदबुदाया लेकिन मुझे तसल्ली नहीं हो पा रही थी।
मन शंकाओं से घिरा जा रहा था "मन्टोला मुस्लिम बाहुल्य इलाका है, तो क्या पहलवान, दुकान बन्द करके... न... नहीं ऐसा नहीं होगा... तो फिर पहलवान ने दुकान क्यों नहीं खोली। मैं खड़ा कुछ समझ पाता कि पड़ौसी दुकानदार ने मुझे आवाज दी। ''अरे शर्मा जी! क्या बात है...? कैसे परेशान हो, सब ठीक तो है?"
''मैं... हाँ... यह पहल... पहलवान ने दुकान क्यों बन्द कर रखी है...?"
"न मालूम क्यों नहीं खोली है। नेता जी हैं, मन्टोला तो नहीं चले गये।" ''हाँ...हाँ न... न...।?" मैंने लगभग बुदबुदाते से ही कहा और वहाँ से लौट लिया। अपनी मनःस्थिति को पड़ौसी के सामने कैसे बयान करता। मन्टोला जाना खतरे से खाली नहीं था। इसी कशमकश में कब मैं अपने कमरे में आ गया पता ही नहीं चला। आखिर समय चक्र तो चलना ही था। हारे मन से ऑफिस चला गया। ऑफिस में भी किसी काम का मन नहीं हुआ। पहलवान शाम को भी दिखाई नहीं दिया। ना ही उसका कोई फोन ही मिलकर दे रहा था।
तीन दिन बाद पहलवान की दुकान खुली। शहर के हालात लगभग सुधर रहे थे लेकिन, पहलवान उस दिन और दिनों की तरह, सामान्य और खुश नहीं दिख रहा था। बलिष्ठ और मजबूत शरीर के कंधों थके बैल की तरह झुके हुए थे। पलकें इस तरह बोझिल थीं मानो पिछले कई दिनों से सोया न हो। सूखे होठों पर पपड़ी जम रही थी। राजू दुकान पर नहीं दिख रहा था। पहलवान अभी भी उसी मुद्रा में पत्थर की मूर्ति बना बैठा था मानो वह वहाँ होकर भी वहाँ न हो।
मैंने पहलवान को टटोलना चाहा।
"क्या हुआ पहलवान...?" मैंने पहलवान के कंधे पर हाथ रखा। पहलवान ऐसे हड़बड़ाकर सचेत हुआ जैसे किसी डराबने सपने से बाहर आया हो। मुझे देखते ही वह बिना कुछ कहे बस रो पड़ा। मेरे मन में कहीं हथोड़े की सी चोटें पड़ने लगीं मामला कुछ ज्यादा ही गम्भीर हो गया लगता है।
"क्या हो गया... पहलवान?" मैं उसके सामने की बैंच पर बैठ गया। मुझे लगा वह कुछ बोल पाने की दशा में नहीं है। संकट के समय का एकान्त बहुत डरावना होता है, जो इन्सान को कितने ही बुरे ख्यालों से भरकर बहुत भारी कर देता है। अकेले में इन्सान लड़ता भी रहे लेकिन अपनों को करीव पाकर वह टूटकर बिखरने लगता है। तब वही बुरे ख्याल ऐसे ही बह निकलते हैं। यही पहलवान के साथ भी हो रहा था। कुछ देर के बाद पहलवान शान्त हुआ। वह मेरे लिए चाय बनाने उठा। "आज मैं चाय नहीं पियुंगा...?''
पहलवान ने लगभग सूज सी चुकीं आँखे, अपनी चौड़ी हथेलियों से सुखाईं। बाहर जाकर नाक में भर आये पानी को सिनक कर साफ किया। क्षण भर पहले का पहलवान अब बेहद हल्का लग रहा था। पहलवान वहीं मेरे सामने आ बैठा।
"बड़े बाबू! जिस बस को आग लगाई गई, उसमें मेरा बेटा था...। उसकी पूरी बात सुनने से पहले ही मुझे बिजली का सा झटका लगा था। ''क्या... तो क्या...?"
"नहीं, वह ठीक है बड़े बाबू...।" सुनकर मैंने लम्बी साँस भरी।
"ओह गॉड...।"
"वैसे हुआ क्या था....? कुछ पता चला, राजू भी तो वहीं रहता है...?"
"नहीं बड़े बाबू राजू को कुछ नहीं पता, मैं बताता हूँ।"
"क्या...? तुम्हें पता है...?"
"हाँ...। मुझे पता चल गया।"
"कैसे...?"
"बड़े बाबू! मैं उस दिन, दोपहर बाद, खाना खाकर यहीं इसी बैंच पर झप्पी ले रहा था, कि यहाँ कोई चिल्लाया था। मन्टोला चुंगी के पास, शिशु मन्दिर की बस में कुछ मुस्लिमों ने आग लगा दी...। मैं हड़बड़ाकर उठा। बाहर यह खबर हवा में तैर रही थी। सोनू... सोचते ही मैंने झटके से दुकान बन्द की।''
"क्यों, राजू नहीं था क्या, उस दिन...?" मैंने बीच में ही पूछ लिया।
"राजू उस दिन अपनी अम्मा को दवा दिलवाने और घर पर कुछ सामान रखने गया था। मैं सीधे मन्टोला चुंगी की तरफ दौड़ा। ... हा ... हाकार मचा था बस जल रही थी। पुलिस ने लगभग सब बच्चों को निकाल लिया था। सभी लगभग ठीक थे। दो बच्चे गायब थे, जिनमें एक मेरा सोनू था। बडे-बाबू! मैं गुस्से और घबड़ाहट से थर-थर काँपने लगा था। पुलिस भीड़ को इधर उधर दौड़ा रही थी। मुझे न जाने क्या सूझा और मैं यह सोचता मामाजी के घर की तरफ भागा कि मेरा सोनू न मिला तो मैं पूरे मन्टोला में आग लगा दूँगा...।''
कहते-कहते पहलवान का आवेग बढ़ता जा रहा था। क्षणिक विराम के लिए मैंने उठकर एक गिलास पानी यह सोचकर लिया कि, बातों में थोड़ा अवरोध आने से, पहलवान का आवेग कुछ कम हो जायेगा। मैंने पानी पिया और फिर - "बड़े बाबू! मामाजी टी.वी. के सामने थे। लोकल चैनल पर समाचार आ गया था। मुझे देखते ही मामाजी बोले - "अरे आ पहलवान बड़े दिनों में आया, और आया भी तो देर से, देख लड़कों ने, अपना काम कर दिया।"
पहलवान एक दम शान्त हो गया और पैरों के नीचे की जमीन को ताकने लगा, अचानक उसने एक बार मुझे देखा और "हाँ... बड़े-बाबू! मुझे लगता है, यह सब, मामाजी का ही किया धरा था।"
"लेकिन क्यों...?"
"क्योंकि, वे कह रहे थे... 'देखा पहलवान, इसे कहते हैं पौलिटिक्स। मीडिया और शहर भर की जुँवा पर मुस्लिम लड़कों का नाम है... अब सारे हिन्दू मत एक हो गये, अब कौन रोकेगा हमारी सीट...?''
"मैंने कहा... लेकिन... उस बस में मेरा सोनू था मामाजी...।'
''तब...?" मेरी धड़कने बढ़ रही थी पहलवान की बातों को सुनकर।
"बड़े-बाबू! वे हमेशा की तरह कुछ गम्भीर हुए और बोले, ''मात्रभूमि की सेवार्थ कुछ तो त्याग करने ही पड़ते हैं पहलवान।"
"मैं सुनकर चीख पड़ा... वह मेरा बेटा... मुझे नहीं करने कोई त्याग...। मेरा, थूकने का मन हुआ था बड़े-बाबू ,लेकिन अगर मेरा बेटा न मिला तो... कहता हुआ मैं वहाँ से पैर पटकता वापिस घर आ गया था।"
''पूरी रात मैंने खुली आँखों में टी.वी. से चिपक कर काटी। पत्नी गाय सी रंभाती और बस एक ही बात ''मामा जी को क्यों नहीं कहते कि वे कुछ करें...?" अब मैं उसे क्या बताता, सिवाय अपने पर कसमसाने के। कहीं तो कोई सहारा नहीं दिख रहा था। रातभर लगता रहा जैसे पिताजी चीख रहे हैं 'यह तेरे कर्मों का फल है।'
मैंने बात बीच में काटी... ''पहलवान...! फिर, सोनू?"
"सोनू दूसरे दिन घर आया था... पुलिस के साथ।"
"उसने कुछ बताया नहीं...?"
"दो दिन बाद बोल पाया मेरा सोनू। तब उसने बताया कि, उसे राजू और उसकी माँ ने बचा लिया था।"
"अपने इस राजू ने...? मैं खुद चिंहुक पड़ा था...।" मैं पहलवान से, राजू कहाँ है पूछता, कि सामने से टिफिन लिए राजू आता दिख गया। उसकी आँखें दहशत से अभी भी भरी दिख रहीं थीं। उसके नमस्ते का जवाब देते हुए मैने उसकी पीठ थपथपाई। ''क्यों रे राजू... सोनू कहाँ मिला था तुझे...?" मेरे इतना कहते ही उसकी आँखों की कोरें फूट पड़ी। पहलवान ने उसके सिर पर हाथ रखकर उसे चुप कराया। सुबकते हुए राजू ने बताया -
''एकदम से हल्ला मचा। मैं बाहर निकलकर चुंगी की ओर दौड़ा, कि सामने सोनू बदहवास दौड़ा आ रहा था। उसके पीछे कुछ लोग थे, या जाने वैसे ही भगदड़ की वजह से सब दौड़ रहे थे। मैंने सोनू को गोद में उठाकर घर ले गया। माँ बहुत घबरा गई थी। अम्मा ने, सोनू के कपड़े उतारकर नंगा किया और छाती से लगाकर अपना पल्लू डालकर बैठ गई। सोनू भी एकदम चिपक गया अम्मा से। बहुत देर तक काँपता रहा था। उसकी, रोने की आवाज भी नहीं निकल पा रही थी।" कहते हुए राजू की आँखें गोल होकर ऐसे चमकती जा रही थीं जैसे उसे कोई मारने आ रहा हो। उसकी सांसें तेज हो गयीं थीं। मेरीं नजरें भी उसके चेहरे पर टिकीं थीं।
''सरजी! रात भर गलियों में भगदड़ रही। पैरों की आवाज दिल को कंपा देती थी। अम्मा को डर था कि कहीं कोई इस बच्चे को छीन न ले जाये। या पूछ न ले कि यह किसका है। वे भी काँपती रात भर जागती रहीं। सुबह, गली में घूमती पुलिस को मैंने बताया कि यह मेरे मालिक का बेटा है, तब पुलिस उसे घर पर लाई।"
दुकान पर ग्राहकों का आना-जाना शुरू हो गया था। "पहलवान जो हुआ सो हुआ, वक्त और परिस्थितियाँ थीं... अब खुद को सम्भालो।" कहकर मैंने सिसकियों के सैलाव को तोड़ने की कोशिश की थी।
"पहलवान! तुम्हें राजू के घर जाना चाहिए था।"
"पहलवान रूआंसा हो आया, ''बड़े-बाबू! मैं राजू के घर गया था...।"
कहकर पहलवान रूक गया। उसकी नजरें कहीं नीचे गड़ गईं। वह जैसे फिर से पथराने लगा।
मैंने टोका "पहलवान बताया नहीं क्या हुआ...? "
पहलवान नजरें नीचे किये ही भर्रायी आवाज में कह रहा था।
"बड़े बाबू ... राजू... राजू...।" कहते हुए पहलवान ने राजू की तरफ देखा। राजू दुकान के बाहर कोने में वर्तन धोने में व्यस्त था।
''क्या हुआ राजू को...?" मेरे भीतर सनसनी सी दौड़ने लगी।
"पहलवान ने धीरे से बताया ''बड़े बाबू... राजू मुसलमान है...।" कहते हुए पहलवान ने राजू की ओर ऐसे देखा जैसे यह जानना चाह रहा हो कि कहीं उसने सुना तो नहीं है।
"क्या.....?" मैं पहलवान की बातों पर विश्वास नहीं कर पाया। मेरी आँखें सिकुड़कर गोल हों गईं।
''हाँ बड़े बाबू!" कहकर पहलवान रेत के ढेर सा ढहने लगा। मैं उससे क्या कहूँ तय नहीं कर पा रहा था।
कुछ पल ऐसे ही बैठे रहने के बाद "न जाने भगवान मुझे कैसे क्षमा करेगा।" कहकर पहलवान ने अपनी आँखें सुखाईं और ग्राहकों में लग गया था।
समय के मरहम ने घाव भरे तो एक दिन पहलवान बोला ''बड़े बाबू! राजू के लिए मन्टोला चुंगी के पार, तिराहे पर, एक चाय की दुकान खुलवानी है। मैं कुछ और तो नहीं कर सकता शायद इससे ही...।
''उसका गला भर गया था। आँखें डबडबा कर भर गईं थीं। मैं मौन रहा था।
आज उसका उद्घाटन है। दस बस चुके हैं अब मुझे निकलना चाहिए।
   एम् हनीफ मदार