Wednesday 16 January 2019

लोकोदय साहित्य संवाद, मौजूदा साहित्यिक परिदृश्य में एक ऐतिहासिक हस्तक्षेप

विश्व साहित्य से रूबरू होने का सपना संजोये देश के कोने-कोने से दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में पहुँचे लेखक और पाठकों को अंततः निराशा ही हाथ लगी। मानो सर्दी की सिहरन से सिकुड़ते शरीर की तरह पुस्तक मेला भी संकुचित हो गया हो। देश दुनिया के अनेक प्रकाशनों को शायद जगह ही नहीं मिल सकी। दिल्ली अपनी जगह पर थी प्रगति मैदान भी वहीं था लेकिन अब जैसे उसे प्रगति मैदान कहना उसी के नाम से उसे चिढ़ाने जैसा था। दरसल ‘प्रगति’ से जुड़ा वह मैदान ख़ुद अपने पर्याय विकास की भेंट चढ़ा हुआ कंक्रीट का जंगल बनते जाते ख़ुद के स्वरूप पर जैसे आँसू बहा रहा था। लगभग एक चौथाई हिस्से में सिमटा विश्व पुस्तक मेला जैसे ख़ुद अपने इस अप्रत्याशित संकुचन पर शर्मिंदा हो। हाँ शायद शब्द, किताबें या प्रगति शब्द भले ही इस सब से शर्मिंदा हो किंतु कोई शर्मिंदगी नहीं है हमारी राज्य व्यवस्थाओं को।

तारीख़ों के लिहाज़ से हम लगभग मध्य के बाद दिल्ली पहुँचे थे । प्रगति मैदान के गेट पर लगी लम्बी क़तारों को देखकर एक पुर-सुकून एहसास की लहर शरीर में मचलने लगी, लगा कि बदलते कथित डिजिटल वक़्त में भी किताबों से अनुराग कम नहीं है। इतनी भीड़ कि गेट से हाल तक की गैलरी में पाँव रखने को जगह नहीं। किंतु यह भेद जल्दी ही टूट गया जब पाया की पूरा मेला बहुत कम में सिमटा है। वहाँ तक पहुँचने के अलावा सारे रास्ते बंद हैं इसलिए भीड़ कम बल्कि उसका एहसास ज़्यादा है । हाँ उन सरकारी पाबंदियों की हद के भीतर विशालकाय मशीनें कंक्रीट ढोती हुई ज़रूर नज़र आ रहीं थीं ।

यक़ीन मानें इस सब से मन बहुत खिन्न हुआ और हम लौट आना चाहते थे किंतु ‘लोकोदय प्रकाशन’ का अपने आयोजन लोकोदय साहित्य संवाद में हमको बुलाना हमें रोक रहा था। वहीं प्रगति मैदान में खड़े खड़े ही एक स्वाभाविक सवाल ने अपना सिर उठाया कि कहीं लोकोदय का यह आयोजन भी विश्व पुस्तक मेले की तरह॰॰॰॰॰॰? इसी ऊहा पोह में मित्र शक्ति प्रकाश के उपन्यास और एम एम चंद्रा के उपन्यास के विमोचन में शामिल रहकर उन्हें ख़ुशी और ख़ुद को सांत्वना दी। बहुत दिनों बाद मिले लेखक मित्रों से मेल-मिलाप और बात-चीतों ने हमारे भीतर की उस बेचैनी को कुछ तसल्ली दी विश्व साहित्य से मिलने के लिए हुए खर्चें और सर्दी की ठिठुरन ने पैदा की थी।

अब पुस्तक मेले का कोई आकर्षण हममें नहीं बचा था। सिवाय लोकोदय के आयोजन के जहाँ मेरे साथ कई अन्य कलमकारों की किताबों का विमोचन भी होना था। लगभग ग्यारह बजे ब्रजेश जी से बात हुई तो अपने आयोजन प्रति उनके भीतर की ऊर्जा और गर्माहट हमारे भीतर उतरी। उसी गरम जोशी में हम आयोजन स्थल ‘कड़कड़डूमा’ पहुँचे।

दिल्ली के प्रदूषण से आँखों में जलन और फेफड़ों को चीरती शीत लहर के बीच सौ से सवासौ लोगों की क्षमता वाले उस हाल में लेखकों और मित्रों का ख़ूब जमाबाड़ा लगा था जो मूक रूप में यह संदेश दे रहा था कि रचनाकार या साहित्य का पाठक अभिव्यक्ति पर दिखते प्रत्यक्ष और परोक्ष पाबंदियों के बाद भी तत्पर है वातावरण को लेकर गम्भीर चिंतन के लिए। पुस्तक मेले के समानांतर किंतु उससे लगभग १३ किलोमीटर दूर इस आयोजन में कर्णसिंह चौहान, राजकुमार राकेश, भाई संजीव, रतन सांभरिया जैसे अतिथियों की उपस्थिति इस बात की गवाही थी ।

लोकोदय का यह आयोजन तीन सत्र में विभाजित था। पहले सत्र में जहाँ ‘युवा लेखक ऐजाजुल हक़’ को उनके पहले कहानी संग्रह ‘अंधेरा कमरा’ के लिए ‘लोकोदय नवलेखन सम्मान’ से विभूषित करना था तो वहीं दूसरे सत्र में ऐतिहासिक रूप से १६ लेखकों की किताबों का लोकार्पण शामिल था और बाद में तीसरा सत्र ‘मौजूदा साहित्यिक परिदृश्य में घटती पाठकीयता’ पर गम्भीर चर्चा का होना शामिल था। पंकज तिवारी के बनाए कविता चित्रों से सज़्ज़ित हाल को उत्कृष्ट साहित्यिक  वातावरण में ढालने में अरुण कुमार, सिदार्थ वल्लभ और ब्रजेश जी की पूरी टीम की मेहनत स्पष्ट झलक रही थी।

“अगर समाज में सबकुछ ठीक हो, सबकुछ अनुकूल हो तो लेखक कुछ नहीं लिख पाएगा क्योंकि साहित्य की प्रासंगिकता विरोध में ही होती है।“ यह बात कार्यक्रम के तीसरे और अंतिम सत्र में अपने अध्यक्षीय उद्वोधन में वरिष्ठ और मशहूर आलोचक कर्ण सिंह चौहान ने कही । ‘लोकोदय प्रकाशन’ लखनऊ की ओर से “समकालीन साहित्यिक परिदृश्य और घटती पाठकीयता” विषय पर आयोजित संगोष्ठी में बोलते हुए श्री चौहान ने कहा कि समाज के जो मौजूदा हालात हैं, वह बागी और क्रांति की मानसिकता रखने वाले लेखकों के लिए अपनी लेखनी को समृद्ध बनाने का स्वर्णिम मौका प्रदान करते हैं।

वहीं विषय प्रवर्तन करते हुए युवा कवि सिद्धार्थ बल्लभ ने घटती पाठकीयता को लेकर कई सवाल उठाए थे। इन सवालों पर श्री चौहान ने कहा कि किताबों की बिक्री जरूर घटी है लेकिन पाठकीयता कम नहीं हुई है क्योंकि तकनीकी विकास के साथ पढ़ने के माध्यम बदले हैं। उन्होंने लेखकों-प्रकाशकों को सलाह दी कि वो केवल किताबों तक सीमित नहीं रहकर नए माध्यमों को भी अपनाएँ, तभी वह दुनिया भर के लाखों करोड़ों पाठकों तक पहुँच सकेंगे।

आलोचक संजीव कुमार का मानना था कि उम्दा साहित्य के पाठक हमेशा ही कम होते हैं क्योंकि वह आम पाठक के कॉमन सेंस पर चोट करता है। उनका मानना था कि इसलिए उम्दा साहित्य लोकप्रिय साहित्य से अलग हैं। रत्न कुमार संभारिया और दूसरे वक्ता इस बात से असहमत थे कि पाठकों की संख्या कम हो रही है। उनका कहना था कि अगर अच्छा लिखा जाएगा तो पाठक जरूर पढ़ेगा। लेखक का जोर संख्या पर नहीं बल्कि साहित्य की उत्कृष्टता पर होना चाहिए।

हालाँकि दिल्ली के कड़कड़डूमा में आयोजित इस कार्यक्रम का पहला सत्र युवा कथाकार ‘एजाजुल हक’ के हक़ में रहा जहाँ उन्हें उनके पहले कहानी संग्रह “अँधेरा कमरा” के लोकार्पण के साथ ‘लोकोदय नवलेखन सम्मान’ से नवाजा गया । यह महज़ एक साहित्यिक आयोजन ही नहीं अपितु हिंदी साहित्य में घटित होने वाला एक ऐसा ऐतिहासिक पल था जहाँ एक ही वक़्त में एक ही आयोजन में साहित्य की विभिन्न विधाओं पर लेखन कर रहे सोलह लेखकों कि महत्वपूर्ण किताबों का लोकार्पण किया गया। देश के विभिन्न प्रांतों से जुटे रचनाकारों ने मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक माहौल में एक साथ 16 पुस्तकों के  लोकार्पण से सार्थक और हस्तक्षेप के लिए इस वृहद और साहसिक समारोह के लिए ‘लोकोदय प्रकाशन’ के मुखिया बृजेश नीरज की खुले दिल से प्रसंशा की।

वरिष्ठ कवि विजेंद्र के कविता संग्रह ‘जो न कहा कविता में’ का लोकार्पण एक दिन पहले ही उनके आवास पर ही किया गया था। जबकि उक्त समारोह में सुशील कुमार की आलोचना की पुस्तक ‘आलोचना का विपक्ष’, गणेश गनी के कविता संग्रह ‘वह साँप-सीढ़ी नहीं खेलता’, सत्येंद्र प्रसाद श्रीवास्तव के कविता संग्रह ‘अँधेरे अपने अपने’, डॉ शिव कुशवाहा के संपादन में प्रकाशित पाँच कवियों की प्रतिनिधि कविताओं के संग्रह ‘शब्द-शब्द प्रतिरोध’, डॉ मोहन नागर के कविता संग्रह ‘अब पत्थर लिख रहा हूँ इन दिनों’, कुमार सुरेश के व्यंग्य उपन्यास ‘तंत्र कथा’, प्रद्युम्न कुमार सिंह के कविता संग्रह ‘कुछ भी नहीं होता अनन्त’, डॉ गायत्री प्रियदर्शिनी के कविता संग्रह ‘उठते हुए’, अनुपम वर्मा के कहानी संग्रह ‘मॉब लिचिंग, भरत प्रसाद के सृजन पर केंद्रित और बृजेश नीरज द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘शब्द शब्द प्रतिबद्ध’, अतुल अंशुमाली के उपन्यास ‘सदानन्द एक कहानी का अन्त’, शम्भु यादव के कविता संग्रह ‘साध रहा है जीवन निधि’ हनीफ मदार के कहानी संग्रह ‘रसीद नंबर ग्यारह’, का लोकार्पण हुआ।

हनीफ़ मदार की किताब ‘रसीद नम्बर ग्यारह’ के लिए अनीता चौधरी ने श्री मदार की रचनाशीलता और उनके व्यक्तित्व पर बोलते हुए कहा कि वर्तमान की बदलती वैश्विक पूंजीवादी सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था में नित नई चुनौतियों से  टकराने की जद्दोजहद के बीच, व्यवस्था में मानवीय संवेदनाओ का अभाव और अभिव्यक्ति पर परोक्ष कई दफ़ा प्रत्यक्ष रूप से अंकुश के वक़्त में निश्चय ही दम घुटने लगता है। जिसकी आर्थिक नीतियां सर्वहारा वर्ग के लिए दमनकारी हों तो और भी ज्यादा। बेरोजगार घूमता युवा, साम्प्रदायिकता, जातीयता के बहाने घरों से उठती आग की लपटें, किसानों की बदहाली, आधी आबादी के हक-हकूकों के सवाल या फिर अपनी बेसिक जरूरतों के अभाव में जीवन जीता मजदूर वर्ग, यही वो अकुलाहट भरी बैचेनी होती है जो, न सिर्फ़ चर्चाओं में रहती है बल्कि उन्हें कहानी लिखने के लिए मजबूर करती है ।

आज हमारे सामने जो सबसे बड़ा ख़तरा है वह समाज को विभाजित करने वाली शक्तियों के रूप में साम्प्रदायाकता का ख़तरा है | जहाँ अपने समय और समाज के ख़तरों को, यथार्थ के साथ प्रेमचंद, यशपाल जैसे हमारे अन्य बुजुर्गों ने तात्कालिक संदर्भों में, संघर्षीय चेतना के साथ हमारे सामने उद्घाटित किया उस मानवीय चेतना को वर्तमान संदर्भों के साथ रेखांकित करना मदार की कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता है । या कहें आपकी कहानियाँ जीवन के अनुभव की कहानियाँ हैं | इनमें शब्द-बिम्बों का चयन आपके बेहतर लेखकीय कौशल के रूप में नज़र आता है । यही उन्हें हिंदी साहित्य में एक प्रतिबद्ध साहित्यकार के रूप में स्थापित करता है |

प्रगति मैदान में पुस्तक मेला चल रहा था। पुस्तक मेला और एक दिन बचा हुआ था लेकिन बावजूद इसके वहाँ से करीब 13 किलोमीटर दूर कड़कड़डूमा में आयोजित इस समारोह में रचनाकारों और पाठकों की भीड़ देखते बनती थी। पूरा हॉल खचाखच भरा हुआ था। अलग-अलग राज्यों के रचनाकारों की मौजूदगी ने समारोह को और खास बना दिया। विश्व पुस्तक मेले में हमारे भीतर भारी निराशा को इस आयोजन ने कहीं न कहीं संतोष में बदल दिया था। युवा कवि आलोचक अरूण कुमार ने दोनों सत्रों का बेहतरीन संचालन किया। युवा चित्रकार पंकज तिवारी ने धन्यवाद ज्ञापन किया।