Monday 6 October 2014

पुलकित फिलिप (कविता )

 पुलकित फिलिप

आँच


मुर्दों का उठ खड़ा होना कब्रों से
और
सुनाना अपनी दर्द भरी दास्तानें
पिये हुए लहू को उलटते हुए
दर्द देता है।

नीले रोषनदानों से भरी
इश्कियां ख्वाबगाहों-सी खूबसूरत
हसीं वादियों का जल उठना
दहकना लाल सुरंगों सा
दर्द देता है

इश्क के ज़र्रा-ज़र्रा पिघलने
नशीली मय में बदलने से पहले ही
टुकड़े टुकड़े हो जाना
और दफन हो जाना
चमगादड़ों से भरी अँधेरी गुफाओं में
दर्द देता है

अगरबत्ती की खुशबू वाले
हँसते से लगते
सपनों का कुचला जाना
अखाड़ों और कबीलों में
दर्द देता है

सफेद खरगोश से मासूम
इश्क के दरिया का
घूँघट-ओ-हिज़ाब में जकड़े जाना
दर्द देता है

उम्मीद की आखिरी सहर का
रेशा-रेशा उधड़ता जाना
जिन्दगी की सफेद इबारत का
स्याह पड़ते जाना
सपनों का एक चुप में खो जाना
दर्द देता है

दर्द देता है
कश्मीर
गोधरा
कराची का
धू-धू कर जलते जाना।

-पुलकित फिलिप

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