कहानी नहीं, गाँठ....
मैं एक पत्रकार या कहानीकार हूँ, यह कहते हुए मुझे अब शर्म आने लगी है | पिछले एक साल से मैंने एक भी कहानी नहीं लिखी |कभी-कभी बेचैन होकर शीशे के सामने बैठता हूँ खुद से यह पूछने,कि आखिर मैं क्यों नहीं लिख पा रहा हूँ ? तो शीशे में मुझे अपनी शक्ल दिखाई देने की बजाय अत्यंत डरा हुआ सा विकृत चेहरा दिखाई देने लगता है | शीशे में दिखाई देने वाले उस चेहरे की आँखें मारे डर के ऐसे फैली दिखाई देतीं हैं मानो उसके चमकते चेहरे पर कोई कालिख पोत देने को आगे बढ़ रहा हो | बौखला कर चारों तरफ देखते हुए उसका शरीर ऐसे कंपकंपाने लगता है जैसे असंख्य लोगों की भीड़ उसे क़त्ल कर देने को घेर रही हो | और अचानक वह दयनीय मुद्रा में आँखें फाड़े इधर-उधर देखता है तो लगता है जैसे वह अपने चारों तरफ बढ़ती भीड़ को पहचानता है | वे सब उसके अपने हैं | वे सब जिनके हाथों में खेलते हुए वह पला-बड़ा है | वे,जिनके बचपन की शरारतों में उसका नाम भी साथ जुड़ा है | वे,जिनके साथ उसने स्कूल में लंच खाया है, चाचा, अंकल, ताऊ,भैया हैं जो उसके साथ अचानक अपना रिश्ता भूल कर, एक साथ घिर आये हैं | आखिर वह चीखने लगता है और धीरे-धीरे उसकी चीख दूर होती जाती है, लगता है जैसे उसे कोई खींचकर दूर लिए जा रहा है और वह आँखें फाड़े मुझे सहायता के लिए पुकार रहा है...........|
तब मेरा दिमाग बिल्कुल सुन्न पड़ जाता है | उसके बाद कहानी लिखना तो दूर मैं तो उससे नजरें भी नहीं मिला पाता औरएक झटके से शीशे के सामने से हट जाता हूँ | मेरी पत्नी या बच्चों को यह मेरा वहम या किसी मनोरोग के लक्षण लगते हैं | वे मुझे किसी मनोचिकित्सक के पास ले जाने की जिद भी कई बार कर चुके हैं | तब मुझे लगता है यह क्रिया बच्चों की मासूमियत और अनपढ़ पत्नी का भोलापन है | फिर मैंने भी तो कभी उन्हें, यह नहीं बताया है कि, यह न तो कोई वहम है और न किसी रोग का लक्षण, बल्कि एक डर है... एक दम सच्चा और नंगा | कैसे बताऊँ उन्हें....? इस नंगे सच को बताते हुए एक और डर मुझे सालता है, पत्नी के न समझने या बहुत घबरा जाने का और बच्चों की मासूमियत छिन जाने का | लेकिन आप तो समझदार हैं, तो....सही आंकलन भी कर पायेंगे कि क्या वास्तव में मेरे साथ ऐसा होना मेरा वहम या किसी रोग का लक्षण है....? बस यही सोचकर अपने भीतर बनी गाँठ को आपके सामने खोल रहा हूँ .......
बात इस तिराहे से ही शुरु करता हूं। मैं इस तिराहे को तब से जानता हूं जब शायद यह खुद अपना नाम नहीं जानता था । कलकी सी बात लगती है जब ख़ास जरूरत की छोटी-मोटी इक्का-दुक्का दुकानें थीं जो सांझ के अँधेरे का आभास होते ही बंद हो जाती थीं और शाम के गले में बाँहें डाले सन्नाटा यहाँ आ खड़ा होता था | वैसे भी पन्द्रह साल का समय कोई युग तो होता नहींलेकिन इस तिराहे के बाज़ार ने खुद को एक सदी के बराबर बदल लिया है । वाकई यह समय के साथ नहीं, उससे भी तेज दौड़ रहा है। अब तो यहां कूल्हे से कूल्हा जोड़े पक्की दुकानें जगमगा रही हैं । देशी-विदेशी बाजार का अड्डा जान पड़ता है । देर रात तक दुकानोंसे बाहर छलकती रोशनी में इतराते इस तिराहे पर बेरोजगारी की इबारत बयान करते लकड़ी के खोखों पर भी चहल-पहल बनी रहती है। सुई से लेकर गाड़ी तक ख़रीदने को आपको शहर जाने की जरुरत नहीं है।
जब मैं, एक अखबार में नौकरी के लिए यहां आकर बसा था तब यह तिराहा एक बिन्दु मात्र था जहां से निकली हुई तीन सड़कें तीन शहरों या कस्बों को जोड़ती भर थीं । तिराहे के आस-पास ही इन सड़कों को खुद में समेटने का प्रयास करतीं, शहर से बाहर यह कालोनियाँ तब एक दम नई विकसित हो रही थीं । यहां-वहां छितराए से छोटे-बड़े, उंचे-नीचे कई घर बन चुके थे, कुछ बनने केइंतज़ार में थे। अब दिखने बाली गलियां, तब दिखती नहीं थीं बल्कि एक फुट चौड़ी टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें बाहर सड़क तक आती थीं जो अपने-अपने घर जल्दी पहुंचने के लिए अपनी सुविधानुसार किसी भी खाली प्लाट में होकर, गड्ढों और नालियों को बचाते हुए चलते-चलते बन गईं थीं | और ऐसे दिखती थीं जैसे भारत के नक्शे में दिखाई देने वाली नदियां हों जो अपने-अपने दोआब से निकल कर सागर में आ मिली हों। इन्हीं में से एक लकीर रफीक के एककमरे के घर भी जाती थी | गांव के लोग अपना खेत-खलिहान बेच कर इस बसंतनगर में बसकर इसे शहर बना रहे थे या खुद शहरी होने की होड़ में यहां लगातार बस रहे थे। इस आबादी की छोटी-छोटी जरुरतों की पूर्ति के लिए पहले से यहां बसे लोगों ने इक्का-दुक्का दुकान खोल रखी थी। उस समय, शाम होते ही यहां सन्नाटा पसर जाता था। तब रात के अंधेरे को अपनी हैड लाइट की रोशनी से चीरती एक-आध गाड़ी की आवाज जंगल में दहाड़ते शेर सी जान पड़ती थी।
यह जो रोड़ के उस पार बड़ी सी मार्केट जगमगा रही है न यह पहला मार्केट था जो तब बन कर तैयार हुआ था। तब खुराना जी पर लोग हंसते थे ‘‘पैसा है इस लिए फूंक रहे हैं। बताओ ! यहां मार्केट कहां से चल जायेगा ?’’ लेकिन जब धीरे-धीरे इस मार्केट में एक-आध दुकान आबाद होने लगी तो खुराना जी, जो इसे बनाकर पछताने लगे थे, गर्व से कहने लगे ‘‘मुझे पता है यहां एक दिन ढूंड़े दुकान नहीं मिलेगी। आज वही हो भी गया है। एक दूसरे को मुंह चिढ़ातीं आज कई मार्केट यहां आबाद हैं ।
खैर..... हां तो ! मैं बात रफीक की कर रहा था | तो जी, इसी मार्केट में दूसरी दुकान थी उसकी । मार्केट के बाहर ‘आर के टेलर’ उसका पहला साइन बोर्ड था जो इस इलाक़े में सबसे अलग दिखता था | लगता था जैसे शहर के किसी बड़े शोरूम या कम्पनी का बोर्ड हो। उससे मेरी पहली मुलाक़ात भी उसी बोर्ड के कारण हुई थी। मुझे अखबार के इन्टरव्यू के लिए एक जोड़ी कपड़े सिलवाने थे। मैं, यह सोचकर उसकी दुकान पर चला गया था कि बोर्ड इतने करीने से बनबाया है तो काम भी अच्छा करता ही होगा ।
मार्केट की दूसरी दुकान दो हिस्सों में बंटी हुई थी । एक हिस्से में तीन मशीनें चल रहीं थीं | सामने ही एक छोटा काउण्टर रखा था। दो-एक किताबें, काउंटर पर पड़े कपड़ों के नीचे दबी हुई झाँकरहीं थीं | इसी काउंटर के पीछे करीब अटठारह-उन्नीस साल का गोरा-चिट्टा सा लड़का हाथ में पकड़ी हुई किताब में पूरी तरह तल्लीन था । किताब पर चढ़े हुए अखबार के कवर की किनारियां जगह-जगह से चटक चुकी थीं । उस अखबार के काग़ज़ की उम्र जैसे पूरी हो चुकी थी। किताब के कागज़ों की किनारी भी इस तरह फूल सी रही थी जैसे किताब को किसी गहरी गर्द से निकाला है। मुझे लगा नया लड़का है सो मस्तराम के साहित्य में मशगूल है। यह बात मेरे दिमाग में इसलिए भी आई कि, एक तो किताब की जर्जर हालत, लगता था जैसे कहीं छुपा कर रखने के कारण हुई है। दूसरे वह दर्जी ही तो था ऊपर से मुसलमान, मसलन करेला वह भी नीम चढ़ा । ऐसी आम धारणा बचपन से सुनता आया हूं। तो...... उस समय एक बारगी मेरे अन्दर का होने वाला पत्रकार जागा भी कि क्यों न इससे दो-चार सवाल कर लज्जित किया जाय | अपनी हमेशा के लिए धाक भी जम जाएगी। वैसे भी मुझे नौकरी मिलने के बाद यही सब करने को तो मजबूर किया जाएगा । लेकिन...... अकेले इसे अपमानित करने या किताब छीनने मात्र से क्या पूरी युवा पीढी को इस विकृति से दूर किया जा सकता है...? और फिर किसी के निजी आन्नद में दखल देने का मुझे हक़ भी क्या है। मेरेलेखक मन में अचानक उठे इस ख़याल के कारण मैंने उसको महज़एक ग्राहक की तरह कपड़े दिए। मैं सोच रहा था यह मुझे जल्दी फ्री करके वापस करेगा क्योंकि मैंने इसके आन्नद में ख़लल डाल दिया है। ऐसे आन्नद में जिसमें डूबते-उतराते इंसान को, क्षण भर को दुनिया की कोई दूसरी शय दिखाई ही नहीं देती। परंतु मेरी सोच यहां पहली बार औंधे मुंह गिरी | नाप दिलबाकर मैं जैसे ही चला उसने बड़े आत्मीयता से कहा ‘‘पहली बार आए हो मेरे यहां...।’’ हालांकि इस सवाल में ऐसा कुछ नहीं था फिर भी न जाने क्यों, मैं कुछ अचकचा गया ‘‘हां आया तो पहली बार ही हूं...।’’ मैने जवाब कुछ इस तरह दिया जैसे मैंने अपनी बात कुछ अधूरी छोड़ दी हो।
‘‘बैठिए ........ क्या करते हैं आप ......?’’ जैसे वह बात-चीत केलिए कोई सिरा पकड़ना चाहता था । मैं भी उस दिन पूरी तरह खाली था सो बैठ गया ।
‘‘अभी तो मैं कुछ नहीं करता..... कहानियां लिख लेता हूँ, छपतीरहतीं हैं लेकिन कुछ मिलता नहीं | जीने के लिए कुछ पैसा भी तो चाहिए.... तो बस..... परसों अखबार के लिए मेरा इन्टरव्यू है उसी के लिए यह कपड़े सिला रहा हूं।’’
मेरी बात सुन कर उसके चेहरे की रेखाऐं इतनी देर में पहली बार कुछ इस अंदाज़ में बदलीं जैसे उसने जोर से हंसना चाहा हो लेकिनअगले ही पल चेहरा पहले की तरह सपाट होने क्रिया में लग गया। मुझे लगा उसने अपनी हंसी को रोक लिया था किन्तु उसके भीतर कहीं हंसी के ठहाके गूंज रहे थे जो उसके चेहरे पर अब भी छिटके दिख रहे थे। पहली मुलाक़ात में ही मुझे उसका यह व्यवहार ठीक नहीं लगा था। मुझसे रहा नहीं गया तो ‘‘क्यों....?! तुम्हें कुछ अजीब लगा या पत्रकार होना बुरी बात है......?’’
‘‘जी नहीं...... ऐसी बात नहीं है ।’’
‘‘तो कैसी बात है...... तुम्हारे चेहरे पर मेरे बारे में जानकर कुछ अनौखे भाव आने का और क्या अर्थ है.......?’’ उससे बात करते हुए एक बारगी मुझे लगा कि परसों वाला इन्टरव्यू आज ही हो रहा है |मुझे मज़ा आने लगा था। उसने चाय को आवाज़ लगाई कहा चलिए चाय पीते हैं।
‘‘तुमने जवाब नहीं दिया ......।’’ मुझे सनक सवार हो रही थी।
‘‘दरअसल आप ग़लत समझ गये हैं ......... पत्रकार होना न तो बुरी बात है और न ही पत्रकारों से मेुझे कोई नफरत है | और मुझे ही क्या, किसी को भी नहीं हो सकती, होगी भी क्यों, प्रेस हमारे लोकतंत्र का एक ऐसा स्तम्भ है जो हमारी आवाज़ बुलन्द करता है.......।’’
‘‘फिर तुम्हारा यह रवैया ..........?’’ मैं बीच में ही बोल पड़ा ।
‘‘आप लेखक हैं और.....इन्टरव्यू भी देने जा रहे हो.... आप ज्यादा जानते होगे...... लेकिन, मुझे लगता है कि आज प्रेस का स्वरुप वह नहीं रह गया है जिसकी हम लोग अपेक्षा करते हैं.....। असल में,मेरे कई ग्राहक पत्रकार हैं और आपकी तरह मित्र भी, जिन्हें मैं पत्रकार होने के पहले से ही जानता हूं लेकिन ...... पत्रकार होने के बाद उनमें एक अजीब तब्दीली देखी है मैंने........।’’
‘‘क्या बदल गया है उनमें.......?’’ मेरी जिज्ञासा बढ रही थी । चाय आ गई थी हम चाय पीने लगे थे।
‘‘और सब चीजों को छोड़िए..... उनकी बात-चीतों के अंदाज़ से ऐसा लगता है जैसे कोई बड़ा ताकतवर आदमी बोल रहा हो जो कुछ भी कर सकता है...... लगता ही नहीं कि ये हमारी आवाज़ हैं या उन धनपतियों की जो हमेशा से ताकतवर रहें हैं।’’
‘‘हर आदमी एक जैसा होता है यह तुमने कैसे मान लिया......?’’ मैंने उसे फिर बुलवाना चाहा।
‘‘बिल्कुल सही है......! तो मैं आपसे यह उम्मीद करुं कि आप इस पेशे में जाकर हमारी आवाज़ बनने का काम करेंगे।’’
“कुछ चीज़ें वक़्त पर छोड़ देनी चाहिए... इसलिए अभी से कोई वायदा या दावा करना राजनैतिक सा हो जाएगा |” कहकर मैं हंस दिया था | लेकिन, मैं, उसकी बातों को सुनकर दंग था कि आखिर इतना समझदार और पढ़ा लिखा आदमी... और सिलाई की दुकान...........मेरे भीतर अचानक बनी यह गाँठ मुझे परेशान कररही थी | हम लोग चाय खत्म कर चुके थे। मुझसे पूछे बिना रहा न गया ‘‘तुम कितने पढ़े हो .....?’’
‘‘जी मुझे तो अनपढ़ ही मानिए ।’’
‘‘तुम अनपढ़ कैसे हो सकते हो.... तुम्हारी समझ और बातों से तो नहीं लगता कि .....।’’
उसने बीच में ही लपक लिया “ज़नाब ! समझ का सम्बन्ध कभीस्कूली शिक्षा या उन किताबों से, जिनसे डिग्रियां मिलती हैं, शायद उतना नहीं है जितना ज़िन्दगी के संघर्ष सिखा या पढ़ा देते हैं |”
“कुछ गौड गिफ्टेड भी होता है.... यह तो मानते होगे....?” मुझेयक़ीन नहीं हो पा रहा था |
“ऐसे किसी गिफ्ट में मेरा कोई यक़ीन नहीं है | भाग्य में नहीं है याभाग्य के भरोसे मानकर मैं हाथ पर हाथ रखे नहीं बैठ सकता | तोबस, रोज़ी-रोटी के जुगाड़ और इन किताबों ने जितना पढ़ा दिया......|” उसकी ऐसी बातें मुझे वहां से उठने नहीं दे रही थीं । मैं उसी दिन उसके बारे में सब कुछ जान लेना चाहता था। अब तक मैं काउंटर पर रखी किताब को बातों-बातों में पलटकर देख चुका था ‘सुबह दोपहर शाम’ वह कमलेश्वर का उपन्यास था। जिसे मेरे आने से पहले वह पढ़ रहा था | कपड़े इधर-उधर रखते हुए मैंने देख लिया था मंटो और खुशवंत सिंह कपड़ों के ढेर के नीचे दबे थे |
‘‘खैर .... उठते हुए उसने गर्मजोशी से हाथ बढ़ाया ‘‘ऑल दा बैस्ट, मुलाक़ात होती रहेगी।’’
‘‘अब तो मुलाक़ात अवश्य ही होगी ....।’’ कहकर मैं चला तो आया था किन्तु उसे, मैं अपने से अलग नहीं कर पा रहा था । मेरी उन तमाम धारणाओं में दरारें पड़ने लगी थीं जो बचपन से मेरे मन में मुस्लिमों के लिए बनी थीं । उसके बाद... मार्केट के बाहर वाली इस सड़क से गुज़रते हुए मैं अक्सर उसकी दुकान पर जाने लगा था। ऐसी ही भागमभाग और शोर-गुल के बाद भी एक दम शान्त निरीह सी दिखती यह सड़क मेरी ज़िन्दगी में शामिल हो गई थी । मेरी पदचापों को पहचानने लगी थी । मैं आंखें बन्द करके चलता हुआ उसकी दुकान तक पहुंच सकता था। हालांकि यह सड़क मुझेही नहीं हर उस आदमी को पहचानती है जो इस पर एक बार भी गुजरा हो । फिर यह सड़क हमारी तो ज़िन्दगी की राज़दार है। मैंने और उसने वे बातें जो हमने अपने मां-बाप तक से छुपाईं, कि किस लड़की या औरत को हमने क्या-क्या उपमाऐं दीं, अखबार में छपने वाली बलात्कार की घटना पर चर्चा करते हुए, बलात्कार के कारणेां पर खुली बहस के साथ अपनी रति-क्रियाओं पर चर्चा, या राजनैतिक घोटालों पर पार्टियों, मंत्रियों और नेताओं को कौन-कौन सी गाली दी। यह हमारी हर चीज़ को जानती है । इसने हमारी हर बहस को बड़ी एकाग्रता से सुना है । इसने यहां क्या कुछ घटते नहीं देखा लेकिन कभी कुछ बोली नहीं इसलिए आज तक इससे सब खुश हैं और इसे छोड़ा नहीं है ।
तो ज़नाब ! कितनी ही व्यस्तताओं के बाद भी मैं रोजाना उसके पास जरुर जाकर बैठता था । उसकी दुकान ही अब मेरी पक्की बैठक बन गई थी । उसकी दुकान पर बैठ कर सिगरेटफूंकते हुए कभी-कभी मैं इस सड़क से घंटों बातें करता रहता, तब वह अक्सर कहता ‘‘पत्रकार बाबू सड़क को देखते-देखते, तुम तो पागल हो जाते हो बच्चों की तरह, भाभी तो माथा पीटती होंगी ।’’
मैं यह कहते हुए उसकी तरफ मुड़ता ‘‘कोई नई बात नहीं है यह....... मेरे जैसे ज्यादातर लोगों की बीवियां अपने पतियों को पागल समझ कर परेशान ही रही हैं।’’ यह भी उसके भीतर की एक कला थी कि एक दो मुलाक़ातों में ही उसने हमारे बीच की सारी औपचारिकताऐं तोड़ दीं थीं । हम पूरी तरह अनौपचारिक होकर बात करते थे।
रफीक केवल आठवीं तक ही पढ़ा था | ठेकेदार जी ने उसे पढ़ाने की कोशिश तो खूब की थी लेकिन....... रफीक का मन उन चंद किताबों को रटने में लगा ही नहीं जो स्कूल में पढ़ाई जातीं, जैसे वह पूरी दुनिया को पढ़ने की इच्छा में हो | शायद इसीलिए बाद में उसने इतना पढ़ा कि उसकी एजूकेशन का अनुमान लगाना मेरी तरह किसी को भी मुश्किल था | प्रेमचन्द, मोहन राकेश, भीष्मसाहनी, इस्मत, जैसे लेखकों को उसने तब पढ़ लिया था जब उसमेंइनको समझने की समझ भी नहीं थी | ठेकेदार... ? ओह, रफीक के पिता | ठेकेदार थे, किन्तु ठेकेदारी की शर्तों के विपरीत, ईमानदार | एक दिन बातों ही बातों में मैंने पूछा “पापा किसकी ठेकेदारी करते हैं ?” उसने बड़े हंसोड़ अंदाज़ में बताया “हैं नहीं, थे......, घर-मकान बनाने के छोटे-मोटे ठेके ले लिया करते...थे तो लोग ठेकेदार कहनेलगे | बुढ़ापे में काम छूट भी गया, तब भी वे ठेकेदार ही रहे और ठेकेदारी में ही दुनिया से चले गए, लेकिन अपना घर बनाने का ठेका ही नहीं ले पाए |” कहकर रफीक दबी सी हंसी हंसा था | उसहंसी में कुंठा थी या संतोष मैं समझ नहीं पाया |
सिलाई की दुकान छोटी-मोटी पुस्तकालय बनी रहती | हमआपस में किताबों का आदान-प्रदान भी कर लेते | लगभग रोज ही एक-आध घंटे उसकी दुकान पर बैठकर सिगरेट पीना मेरी नियति बन गई थी | रफीक का घर सड़क के उस पार नई बसी कालोनीकबीरनगर में था | मैं सड़क के इस पार शिवनगर के बाद प्रकाशपुरा से अगली कॉलोनी बसंतनगर से आता था | जो शहर के एकदम करीब थी या कहूं शहर से जुड़ ही जाती यदि बीच में यमुना न होती | वैसे तो मैं पुल पार कर अपने किसी दोस्त के पास शहर में भी जाकर बैठ बतिया सकता था | लेकिन रफीक के पास न जाने क्यों मुझे एक अजीब सा सुख मिलता था | अनेक ऐसी घटनाएँ और किस्से मैं वहां सुन लेता था जिनमें से मेरी नई कहानियाँ फूटती थीं | छुट्टी वाले दिन की दोपहर का समय उसकी दुकान पर काटना किसी पुस्तकालय में बीतने जैसा होता था | जहाँ नए-नए लोगों के साथ आत्मीय पहचान और दोस्ती जुड़ती है | वहीँ मेरी मुलाक़ात हरीश और विकास से हुई थी | जो उसके बचपन के दोस्त थे | भाईसे कहीं ज्यादा | रफीक उनकी तारीफें करता नहीं अघाता था | इससे पहले कई बार यह नाम मैंने उसके मुंह से सुने थे |
एक दिन शाम को बिजली नहीं आ रही थी रफीक की दुकान पर काम करने वाले दोनो कारीगर जा चुके थे | हरीश, विकास और रफीक अण्डों की आमलेट खाते हुए ठट्ठे लगा रहे थे | पहुंचकर मैं भी उनके साथ शामिल होता कि इससे पहले हरीश और विकास “चल अब तू काम कर हम चलते हैं |” कह कर चले गये | उनकेजाने के बाद हम दोनों मोमबत्ती की रोशनी में ही बातों में मशगूल हो गये | तब उसने बताया था हरीश और विकास गाँव में हमारे पड़ोसी रहे हैं | हरीश के पिता पुलिस में थे अब तो रिटायर हैं और विकास के पिताजी बैंक में कैशियर हैं | हम तीनों पांचवीं तक एक ही स्कूल में पढ़े थे | फिर इनके पापा इनकी पढ़ाई को लेकर यहाँ बस गये | गाँव में हम तीनों के घर एकदम सटे हुए थे | लगता ही नहीं था कि तीनों घर अलग-अलग हैं | ताऊजी यानी हरीश के पापा के कहने पर ही हम लोग यहाँ आये थे | उन्होंने हमारी बड़ी मदद की | उन्होंने ही कुछ पैसों का बंदोवस्त कर यहाँ कबीरनगर में हमें प्लाट दिलाया | आज भी हम थोड़ी दूर पर हैं लेकिन यह दूरी अभी तक हमें अलग नहीं कर पाई | बोलते-बोलते उसने घड़ी में समय देखा नौ बज चुके थे, बाहर का अन्धेरा सड़क के रंग से मेल खाने लगा था आसपास की दुकानें भी लगभग बंद हो गईं थीं | उसका मंतव्य समझकर कर मैं भी उठ खड़ा हुआ | अक्सर ही हमें इतना वक़्त हो ही जाता था |
पन्द्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी की अखबार में छुट्टी रहने लगी थी | मैं इंतज़ार करता उस दिन का ताकि पूरी लापरवाही और आज़ादी से देर तक सोऊंगा | लेकिन हर बार रफीक एक दिन पहले ही टोक देता कल सुबह सात बजे तक घर आ जाना | और मुझे पहुंचना पड़ता | दरअसल हर पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरीको उसके घर पर झंडा रोहण होना तय था | उसने बताया था “पत्रकार बाबू हमने होश सम्भाला है तब से अपने घर पर इस दिन झंडा फहराते देखा है | यह हमारे घर की परम्परा बन गई है | पापाकहते थे ईद, दिवाली, दशहरा मनाते हैं तो, यह तो हमारे राष्ट्रीय त्यौहार हैं, इन्हें क्यों नहीं मनाएं | वैसे राजीव जी आपको नहीं लगता कि हमारे यह राष्ट्रीय पर्व स्कूलों तक ही सिमट कर रह गये हैं जबकि इन पर्वों को तो और ज्यादा उल्लास से हर घर में मनाया जाना चाहिए |” रफीक के इस सवाल का मुझसे कोई जवाब तोनहीं बन पाया हाँ लेकिन देशभक्ति या राष्ट्रीयता जैसे शब्द जिन्हें मैं अक्सर ही अखबार की कुछ ख़बरों में जोश के लिए इस्तेमाल करता था मेरे भीतर ही कहीं कुम्भला गए थे | ...... तो झंडा फहराया जाता, राष्ट्रगान गाया जाता और बच्चों को टाफियां या बिस्कुट बंट जाने के बाद ही मैं वहां से निकल पाता |
यहाँ आ बसने के बाद की मेरी पहली होली मुझे अभी भी याद है | मैं नया-नया आया था ऊपर से काम भी ऐसा कि न सुबह जाने का वक़्त और न शाम को लौटने का ही ठिकाना | इसलिए यहाँरफीक के अलावा एक दो लोगों से ही पहचान हो पाई थी | ईद पर मैं रफीक के घर भी गया था वहाँ रफीक की माँ के हाथ की सिवैयां भी खाकर आया था | लेकिन अब होली पर मैं कहाँ जाता | रफीक मुसलमान है यह सोचकर मैं उस होली पर घर से निकला ही नहीं था | उस दिन का फायदा उठाने को मैं सुबह ही खा-पीकर कुछलिखने बैठा था कि दरवाजे पर दस्तक हुई मेरे दरवाज़ा खोलते ही रंग-गुलाल में डूबे हुए पांच-छः हुडदंगियों ने मुझे पकड़कर अपने जैसा कर लिया | तब रफीक जो पहचानने में भी नहीं आ रहा था, ने मिलने के लिए बाँहें फैलाईं और बोला “पत्रकार बाबू आज कैसे बच जाओगे ?” हम मिले और एक दूसरे की शक्लों को देखकर खूब देर तक हँसते रहे | उसके बाद क्या ईद क्या दिवाली दोस्तों की कमी ही नहीं रही |
मुझे उसके पास बैठते वर्षों हो गए थे | अब तो वह मेरा भी जिगरी यार बन था | बचपन से मेरे परिवार से सिंचित मुस्लिमों के लिए मेरी कल्पनाएँ कि ‘मुस्लिम दर्जी शाम होते ही दुकान के किसी कोने में नमाज़ पढ़ेगा या पी-खाकर मूड बनाएगा और सट्टे के नम्बरों का हिसाब लगाएगा |’ ऐसे बे-सिर-पैर की अनेक धारणाएं उससे हुई मेरी पहली मुलाक़ात से ही टूटने लगीं थीं | एक शाम मैं उसकी दुकान पर चाय के इंतज़ार में था | रफीक काउंटर पर बिछे कपड़े पर टेढ़ी-सीधी रेखाएं खींच रहा था | मैं उसे एक टक यह सबकरते देख रहा था | तभी हरीश और विकास की मोटरसाइकिल आकर रुकी | “ला भाई ला जल्दी कर यार |” विकास के इतना कहते ही रफीक ने अपना ए टी एम् निकालकर विकास को दे दिया | साथ में एक कागज़ का टुकडा भी “न० इसी पर लिखा है |” “ओके |” मुझे अजीव लगा तो मैंने उनके जाने के बाद रफीक को टोका भी कि “ए टी एम् और पिन को ऐसे नहीं शेयर करना चाहिए |”
लेकिन रफीक व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ बोला “राजीव जी अपनों से भी क्या छुपाना | रही बात भरोसे की तो खुद से भरोसा उठ सकता है लेकिन इन दोनों से नहीं | आप परेशान न हों और चाय पियें |” मुझे जरूरत नहीं लगी कि इससे आगे कुछ कहूं सो मैं उसदिन चुप रह गया |
उस साल सर्दी ने पिछले कई सालों का रिकार्ड खुद ही तोड़ दिया था | अँधेरे के साथ ही लोग घरों में सिमटने लगते थे | घड़ियोंके हिसाब से धुंध के रूप में अन्धेरा तब उतरने लगता था जब ऑफिसों में छुट्टी का समय भी नहीं हुआ होता था | मोटरसाइकिलसे, ऑफिस से आते समय, यमुना के पुल पर सीधे हिमालय का एहसास होता था | रोज़ ही आते हुए यह बात जरूर ध्यान हो आती कि इस ग्लोबल वार्मिंग के समय में, सर्दी से मेरी यह हालत है तो बूढ़े होने पर राजा महाराजा हिमालय पर तप करने चले जाते थे उनका क्या हाल होता होगा ? इतिहास का यह बयान सच है या झूठ यह सोचते हुए ही पुल पार होता था और इतिहास में दिमाग उलझा होने के कारण मुझे सर्दी का इतना आभास नहीं रह पाता था | एक दिन यही सब सोचते हुए पुल पार करके पैंठ से गरम मूगफली लीं और सीधे रफीक की दुकान पर ही सांस ली |
दुकान में थोड़ी राहत पाकर मेरे अन्दर बैठी सर्दी फुर-फुरी के साथ बाहर आ रही थी | “यार रफीक हमसे तो तू ही ठीक है कम से कम बाहर के सीत की सीधी टक्कर से तो बचा है.. ले मूंगफली खा... |”
“राजीव बाबू दूर के ढोल सुहावने दिखते हैं |” उसने मूंगफली उठाते हुए गर्म प्रेस मेरे सामने रख दी बोला “इससे राहत मिलेगी | राजीवजी किसी को शौक नहीं होता इस सर्दी में लोहे से पैर मारने का.... मैं भी बहुत कुछ करना चाहता था लेकिन पिताजी के उस एक्सीडैंट ने सब बदल दिया |” कहते हुए वह कहीं बहुत पीछे चला गया था | मुझे प्रेस से गर्मी मिल रही थी सो मैंने और सपोर्ट कर दिया “एक्सीडैंट....?”
“पापा यहाँ हरीश का मकान बनाने आये थे लेकिन यहाँ एक्सीडैंट होने के बाद हमें भी अपनी पढ़ाई छोड़कर यहाँ आना पड़ा | बिनाकमाई के शहर में बसना जैसे कोढ़ में खाज | छटवीं पार कर सातवीं में दाखिला लेते ही पढ़ाई छूट गई | एक साल बाद विकास के पापा ने कोशिश करके स्कूल में दाखिला भी दिलाया लेकिन तब तक जिन्दगी ने अपना ज्ञान देना शुरू कर दिया था | बचपनहालातों ने छीन लिया और जिन्दगी ने जल्दी ही बड़ा बना दिया |”
“तुम पढ़ाई तो अब भी कर सकते हो ....|”
“अब उस पढ़ाई से, क्या जिन्दगी को इतना समझ पाता जो इन किताबों ने सिखा दिया | उन सब से तो आज भी ठीक हूँ न, जोबहुत पढ़े-लिखे हैं फिर भी रोजगार के लिए भटक रहे हैं...?” उसकीइस बात पर हम दोनों अजीब सी हंसी हँसे | अब तक मुझमें भी मोटरसाइकिल से घर तक जाने लायक गर्मी आ गई थी |
उस दिन कार्यालय से घर लौटने पर, मुझे और दिनों से कहीं ज्यादा थकान हो रही थी | यह थकान शारीरिक से कहीं ज्यादा मानसिक थी | दरअसल सहषुणता, असहषुणता पर शहर भर से एक विस्तृत रिपोर्ट लिखने के टास्क ने मुझे सुबह से ही अजीब स्थिति में ला दिया था | ऊपर से आँख दबाकर कही गई संपादक की वह बात “इस लेख में थोड़ा...... दिखना चाहिए |” मैं उसी समय बिलबिला गया था | “सर क्या जरूरत है इस लेख की...?और ऊपर से आपका यह डंडा ? मैंने निवेदन किया था “सर शहरकी और भी बहुत चीज़ें हैं जिन पर लिखें |”
“यह अखबार है माई डिअर, जो तुम लेखकों के सिद्धांतों से नहीं चलता | जब नौकरी करने निकलो तो अपने लेखक को घर छोड़ दिया करो समझे |” संपादक ने व्यंग्य किया था | फिर वे समझाने की मुद्रा में आये “सच पूछो तो इच्छा मेरी भी नहीं है...... अबक्योंकि अखबार मेरी इच्छाओं से नहीं चलता.... अब अखबार भीराजनैतिक मंशाओं से चलते हैं | देख नहीं रहे दिल्ली को, कहींखान-पान की आज़ादी और पाबंदी का दंगल है तो कहीं सम्मान लेने और लौटाने का घमाशान, चर्चा में है तो कभी घर बापसी....|बीस साल हो गए इस मीडिया में, मैं भी जानता हूँ जब व्यवस्थाएंकुछ नहीं करतीं तब यही सब होता है..... लेकिन मेरे ऊपर भी दबावहै .... तो समझ गये होगे .... इसलिए कीप इट अप ...गो |” बस मैं तभी से परेशान था | घर पर बिजली नहीं थी | अँधेरा और ज्यादा घुटन पैदा कर रहा था | अंत में निरुद्देश्य सा चलता हुआ रफीक की दुकान पर पहुँच गया |
रफीक मोमबत्ती की रोशनी में स्टूल पर उकुडूं बैठा कोईकिताब पढ़ रहा था | दुकान पर काम करने वाले मजदूर चले गए थे | रफीक अकेला था | मेरे पहुँचते ही उसने सवाल दाग दिया “आइये पत्रकार बाबू !..... क्या हुआ कुछ परेशान दिखते हो... सबठीक तो है |”
“सब ठीक ही है....| रफीक ! कैसे इस अँधेरे में बैठे हो बिजली तो आनी नहीं है बारह बजे तक ?” मैंने अपने दिमाग को स्थिर करने के लिए बात घुमाई थी |
“एक ग्राहक का फोन आ गया है उसे कपड़े उठाने हैं घर में कोई शादी है... तो बस उसी का इंताजर कर रहा था |”
उसने किताब बंद करके रख दी थी | मार्केट की कुछ और दुकानें भीबंद होने लगी थीं | बाहर सड़क के किनारे फड़ लगाकर सब्जी बेचने वाले भी एक-एक कर जाने लगे थे | जिससे बाहर भी चहल-पहल कम हो गई थी | कुछ बचे फडों पर जहाँ-तहां जलतीं मोमबत्ती या पेट्रोमैक्स की रौशनी भी बाहर के अँधेरे के लिए ना काफी होने लगी थी | थोड़ी दूर से भी किसी को पहचानना मुश्किल होने लगा था | तब एक तेज रौशनी के साथ एक मोटरसाइकिल रफीक की दुकान पर आकर रुकी | जिस पर तीन लोग सवार थे | रफीक को लगा वह ग्राहक आ गया | लेकिन वे हरीश और विकास थे उनके साथ एक लड़की भी थी | लड़की को साफ़-साफ़ पहचान पाना तो मुश्किल था लेकिन उसके खड़े होने और इधर-उधर देखनेसे उसकी असहजता जरूर झलक रही थी | रफीक उस लड़की को पहचानने की कोशिश कर ही रहा था कि हरीश ने उसे टोका “अरेउसे छोड़.... और..... बिजली तो आनी नहीं है... तो..... तू भी क्या कर रहा है... निकल ही जा |”
“निकल जा मतलब.... कहाँ ?”
“घर नहीं जाएगा ...?”
“घर नहीं जाउंगा तो और कहाँ जाऊँगा... लेकिन अभी मैं एकग्राहक का इंतज़ार कर रहा था वह अपने कपड़े लेने आ रहा है |” रफीक ने मुस्कराते हुए कहा था |
“चल, वह सुबह ले जाएगा.....कपड़े |”
“अरे नहीं यार ! उसके घर शादी है तभी तो रुका हूँ .... लेकिन तूबता न बात क्या है तू मुझे घर भेजने को इतना उतारू क्यों है ?” अब रफीक के चहरे पर कुछ उलझन के भाव आए थे |
“तू यार रफीक समझता क्यों नहीं है ?” बोलते बोलते हरीश ने एक नजर लड़की पर डाली और फिर बोला “देख वैसे भी अब बिजली के बिना तेरा कोई काम तो होगा नहीं...... तो.... अच्छा तू ऐसा कर,बाहर से सटर गिरा दे और कुछ देर बाहर घूम आ |” कहते हुए उसने फिर एक नज़र लड़की पर डाली और रफीक की तरफ देखकर एक आँख दबाई | तीनों की अच्छी अंडरस्टैंडिंग है यह सोचकर मैंअब तक उन की बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा था | बावजूदइसके हरीश, विकास और उस लड़की के हाव-भाव से मैं चौकन्ना जरूर हो गया था | अब हरीश के इस अंतिम वाक्य और उसके इशारे से मुझे बहुत हद तक पूरा माजरा समझ आ गया था | शायदरफीक ने भी वही सोचा होगा जो मैं सोच रहा था | इसीलिए इस बार वह अप्रत्याशित तरीके से चौंका “क्या..... दिमाग तो सही है तेरा ?” रफीक के साथ ही मैंने भी टोकना चाहा “लेकिन ये......|” विकास ने मुझे बीच में ही रोक दिया “राजीव जी यह हमारी आपस की बात है इसलिए आप ज्यादा ध्यान न दीजिये....| हाँ यदि अच्छा नहीं लग रहा तो आप घर चले जाइए |” तीनों दोस्त हैं मुझे क्या...?लेकिन इस बार न जाने क्यों मुझे रफीक पर भी संदेह सा होने लगा | देखते हैं क्या होने वाला है सोचकर मैं चुप हो गया |
“रफीक जल्दी से निकल यार.... मुश्किल से सैटिंग बनी है |”
“यार विकास यह मेरी दुकान है मेरी रोज़ी-रोटी है....|”
“तो कौन सा हम तेरी दुकान को छीन रहे हैं.... बस इतना कह रहे हैं कि आधा घंटे को छोड़ दे.... तेरी समझ में नहीं आ रही..? हमारेलिए इतनी सी बात नहीं मान रहा | अरे कह कर देख हम तेरे लिए जान दे देंगे.... चल बच्चों की तरह मान ले...| और फिर इस अँधेरे में किसी को क्या पता चलेगा |”
“वह सब ठीक है लेकिन, मेरा भी तो अपना कुछ है....? जो भी हो यह ठीक नहीं है और माफ़ करना यार मैं यह नहीं कर सकता....|”
“क्या..... क्या कहा तूने.....?” हरीश की आवाज़ में थोड़ी तल्खी थी या निराशा की खीझ थी जो तल्ख़ हो रही थी | मेरे मन में भी अब रफीक के लिए पैदा हुआ संदेह खत्म हो गया था | किसी शंका आशंका के बीच मैं भी थोड़ा सतर्क हो गया था |
“हाँ यार हरीश न तो मैं दुकान से बाहर जाने वाला और न ही तुमको यह सब करने दूंगा..... यार ... जान देने की बात है मुझसे कहो मैं एक बार भी उफ़ नहीं करूंगा किन्तु यह क्या तरीका है...फिर तुमने ऐसे सोच भी कैसे लिया ?”
“तो अब तू हमें तरीका सिखाएगा..... नहीं मान सकता इतनी सीबात ...?”
“नहीं मैं ......नहीं यार मेरी इतनी बड़ी परिक्षा न लो |” रफीक ने इस बार जैसे याचना की थी |
“ठीक है ...|” हरीश ने विकास की तरफ देखा और तीनों ही वापस चले गए | मैंने राहत की सांस ली लेकिन रफीक अभी भी कुछ बोल पाने की स्थिति में नहीं था | मुझे भी चुप रहकर उसके स्थिर होने का इंतज़ार करना ही ठीक लगा | हम दोनों अभी अपनी चुप्पी तोड़ भी नहीं पाए थे कि हरीश और विकास फिर से वापस आए | इसबार वे दोनों ही थे और साथ में था शराब की दुर्गन्ध का भयंकर भभूका | रफीक और मैं कुछ समझ पाते कि हरीश चिल्लाते हुए दुकान में घुसा “क्यों वे मियां के अब तू ज्यादा समझदार हो गया.... हमें सिखाएगा सही और गलत.... क्यों ...?”
रफीक भौंचक उसकी तो आवाज़ ही नहीं निकल पाई .... “यार मेरा मतलब.....|”
“अबे ! तू क्या बताएगा मतलब, हम सब जानते हैं तुम्हारा मतलब..... साले खाते यहाँ का हो और बजाते वहाँ का हो ....|” विकास जोर जोर से यह बेसिर-पैर की बातें कहने लगा तो मैं बीचमें आया “यह क्या बेकार की बातें करने लगे आप लोग...?”
“अरे.. आप जैसे लोगों की वजह से ही इन मुल्लों की इतनी हिम्मत बढ़ गयी है ...| इनकी बातों के जाल में आते रहे तो ये देश को ही खत्म कर देंगें..... साले आतंक के पुतले |” कहते हुए विकास ने मेरी तरफ अंगुली तान रखी थी | मैंने कुछ बोलना चाहा तो हरीश ने मुझे धक्का देकर बाहर धकेल दिया “अबे चल बाहर भो....... के |”
रफीक किसी अपराधी की तरह सिर झुकाए बैठा था | मैं मन ही मन खीझ रहा था कि आखिर वह विरोध क्यों नहीं करता | अबतक आवाजें सुनकर दुकान के बाहर कुछ लोग इकट्ठे हो गये थे | वेमुझे पूछ रहे थे “क्या हो गया....?” मैं कुछ कह पाने की हालत में नहीं रह गया था | मेरा दिमाग सुन्न और शरीर काँप सा रहा था | यह मेरे भीतर का क्रोध था या कोई डर उस समय यह भी तय कर पाना मुश्किल था |
हरीश और विकास अभी भी रफीक के इंसानी वजूद को भद्दीगालियों से तार-तार कर रहे थे | वे चिल्लाते और दांती पीसते रफीक के एकदम पास पहुंचे कि मैं चिल्लाया “बचाओ उसे...|” वहां जुटे लोग क्या समझे थे क्या नहीं यह मैं नहीं जानता लेकिन वेउन दोनों को खींचकर बाहर ले आये और उन्हें धकियाते हुए मार्केट से बाहर ही कर दिया | वे दोनों बाहर भी चिल्लाने लगे | मैं अब और कांपने लगा यह सोचकर कि इस समय भीडतंत्र शबाब पर है, यदि बाहर कुछ और लफंगों की भीड़ जुट गई तो.... सोचकर ही पसीना आ गया | तभी कुछ और लोगों ने उन्हें वहाँ से फटकार कर भगाया | वे शायद उन दोनों को जानते थे या कुछ और लेकिन अब वे चले गये थे | मेरे भीतर एक आंधी को जन्म देकर |
मैं अभी भी कुछ आशंकित था | लोग रफीक को समझाने में जुटे थे | जो अभी तक सिर पकड़े बैठा था | “साले शराबी हैं.....,बेटा रफीक ! इनकी बातों को दिल पर क्यों लेता है .....बकने देइनको, इनके बाप का देश है यह ? |” और एक-एक कर सब वापस जाने लगे | उस समय रफीक पर आई अपनी खीझ को बाहरलाने में मुझे बहुत ताकत लगानी पड़ी थी “रफीक...! तू चुप क्यों हो गया था तूने उनका विरोध क्यों नहीं किया...?”
इतनी देर से चुप बैठा रफीक अब बोला था “छोटा सा विरोध ही तो किया था..... लेकिन आप परेशान न होइए.... हमें आदत है.....!अपने ही घर में, हमें अपनों ने ही इस अभिशप्त एहसास के साथ जीने को अभ्यस्त बना दिया है |”
रफीक की आवाज़ जैसे बहुत गहरे से रिस कर बाहर आई थी |उसके इस वाक्य ने मुझे मेरे भीतर ही कहीं मार दिया था | मैं तो रो भी नहीं सकता था लेकिन मेरे अन्दर कहीं कुछ बह रहा था | मैंनेकुछ कहने को अपना मुंह खोला ही था कि रफीक की भरी हुई आँखों ने वहां बचे खड़े लोगों को एक बार देखा “उन दो लोगों में पूरा हिन्दुस्तान नहीं है राजीव जी.... देश आप में है इन सब में है.....चलिए....|” कहकर मुझे चुप कर दिया और दुकान बंद करने लगा था | न जाने क्यों मुझे लगा था कि उसके भीतर का बहुत कुछ मुझमें उतर गया है | जैसे उसने, इस एक वाक्य से मेरे भीतर मर रहे इंसानी भरोसे को ज़िंदा रखने की कोशिश की हो । मैं क़ायल था उसकी समझ और अपने दोस्तों पर किए गए उसके भरोसे का जिसने मेरी आँखों के सामने उसके इंसानी वजूद को रेशा-रेशा कर छितरा दिया……था । और मैं….. निर्लिप्त सा नाटक के किसी दृश्य की तरह उसे देखते रहने के अलावा कुछ नहीं कर सका । मैं शर्म और घृणा के सामूहिक ऐहसास में डूबा निशब्द और निर्जीव सा रफ़ीक को जाते हुए देख रहा था, वह अपने भरोसे की लहूलुहान लाश को कंधे पर लादे मार्केट से निकल रहा था, मुझे लग रहा था जैसे रफ़ीक ज़िंदा होकर भी अपने ‘मैं’ की लाश में तब्दील हुआ जा रहा है ।
हनीफ मदार
(संपादक- हमरंग)
मथुरा, उ0 प्र0
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